SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ फाल १०. सम्यग्ज्ञानका कालनामा अंग म.आ./२७०-२७५ पादो सियवेरत्तियगोसग्गियकालमेव गेण्हित्ता । उभये कालम्हि पुगो समाज होदि कायो २००१ राज्झाये पणे जंघ वायं वियाग सतपर्व पुण्यहे अवरहे तामिवणे | २७१| आसाढे दुपदा छाया पुस्समासे चदुप्पदा । वड्ढदे हीयदे चावि मासे मासे दुअंगुला ॥ २०२॥ पयसत्त पंचगाहापरिमाणं दिखिविभागसोधीए । पुव्वण्हे अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए । २७३ | दिसदाह उक्कविवासदिच दुग्धसम्झदिनचंदग्गहसूरराहु च ॥२०॥ कलहाविधूमकेतु धरणीकंपंच अभग माया सम्झाए बजिदा दोसा ॥२०५॥ प्रदोषकाल वैरात्रिक, गोसर्गकाल - इन चारों कालोंमें से दिनरातके पूर्व काल अपरकाल इन दो कालोंमें स्वाध्याय करनी चाहिए । २७०। स्वाध्यायके आरम्भ करनेमें सूर्यके उदय होनेपर दोनों जाँघोंकी छाया सात विलस्त प्रमाण जानना । और सूर्यके अस्त होनेके काल में भी सात विलस्त छाया रहे तब स्वाध्याय समाप्त करना चाहिए । २७१ आषाढ महीने के अन्त दिवसमें पूर्वाह्नके समय दो पहर पहले जंघा छाया दोस्त अर्थाय बारह अंगुल प्रमाण होती है और पौषमासमें अन्तके दिनमें पौबीस अंगुल प्रमाण जंपदाथा होती है और फिर महीने महीने में दो-दो अंगुल बढती घटती है। सब संध्याओंमें आदि की दो दो घड़ी छोड़ स्वाध्याय काल है । २०२ दिशाओंके पूर्व आदि भेदोंकी शुद्धिके लिए प्रातः कालमें नौ गाथाओंका, तीसरे पहर सात गाथाओं का, सायंकालके समय पाँच गाथाओंका स्वाध्याय ( पाठ व जाप) करे ।२७३ | उत्पातसे दिशाका अग्नि वर्ण होना, साराके आकार गतका पड़ना बिजलीका चमकना, मेघों संघट्टसे उत्पन्न वज्रपात, ओले बरसना, धनुषके आकार पंचवर्ण पुद्गलोंका दीखना, दुर्गन्ध, लालपीलेवर्ण के आकार साँझका समय, बादलोंसे आच्छादित दिन, चन्द्रमा, ग्रह, सूर्य, राहुके विमानोंका आपस में टकराना | २७४॥ लड़ाईके वचन, लकडी आदि से झगड़ना, आकाशमें धुआँके आकार रेखाका दीखना, धरतीकंप, बादलोंका गर्जना, महापवनका चलना, अग्निदाह इत्यादि बहुत-से दोष स्वाध्याय में वर्जित किये गये हैं अर्थात् ऐसे दोषोंके होनेपर नवीन पठन-पाठन नहीं करना चाहिए 1२०५१ (भ.आ./वि./११३ / २६० ) 1 ११. पुद्गल आदिकोंके परिणामकी काळ संज्ञा कैसे सम्भव है ८२ प./४/१.२.१/३९७/१ पोग्गलादिपरिणामस्थ कर्म कालमवएसो ग एस दोसो, कज्जे कारणोवयारणिबंधणत्तादो । - प्रश्न- पुद्गल आदि द्रव्योंके परिणामके 'काल' यह संज्ञा कैसे सम्भव है ! उत्तर--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कार्य कारणके उपचार के निबन्धनसे इगलादिम्योंके परिणामके भी 'कात' संज्ञाका व्यवहार हो सकता है। = १२. दीक्षा शिक्षा आदि कालोंमेंसे सर्व ही एक जीवको हों ऐसा नियम नहीं Jain Education International पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२२ अत्र कालषटकमध्ये केचन प्रथमकाले केचन द्वितीयका केचन तृतीयादी वनमुत्पादयतीति कास नियमो नास्ति । यहाँ दीक्षादि छः कालो में कोई तो प्रथम काल में कोई, द्वित्तीय कालमें कोई तृतीय आदि काल केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार छः कालोंका नियम नहीं है । २. निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि २. निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि १. निश्चय कालका लक्षण - पं का../२४ वणरसो बरगददोगंधफासो । अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो ति । २४॥ काल (निश्चयकाल) पाँच वर्ग और पाँच रस रहित दो गन्ध और आठ स्पर्श रहित, अगुरु अमूर्त और वर्तना लक्षण वाला है (स.सि./३/२२/२१३/२) ( ति प /४/२७८ ) स.सि./५/२२/२१९/७ स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना सहकृत्यभावावर्तनोपलक्षितः कालः (यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय उत्पन करनेमें) स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह माह्य सहकारी कारणके बिना नहीं हो सकती इसलिए उसे प्रयतने वाला काल है ऐसा मानकर वर्तना कालका उपकार कहा है । स.सि./५/३६/३१२/११ कालस्य पुनद्वेधापि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्तीत्यकाय...तस्मात्पृथगि कालो देश क्रियते। अनेक सति किमस्य प्रमाणम् लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तावन्तः कस्लाणवो निष्क्रिया एकेकाशप्रदेशे एकेका व्याप्य व्यवस्थिताः । रूपादिगुण विरहादर्ता निश्चय और व्यवहार) दोनों ही प्रकारके कालमें प्रदेशप्रचयकी कल्पनाका अभाव है ।... काल अध्यका पृथक से कथन किया गया है। शंका-काल अनेक द्रव्य हैं इसका या प्रमाण है उत्तर जितने प्रवेश हैं उतने कालागु हैं और वे निष्क्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाकाशके एक एक प्रदेश पर एक एक कालाणु अवस्थित है । और वह काल रूपादि गुणोंसे रहित तथा अमूर्तीक है। (रा.वा./५/२२/२४/४८२/२) रा. वा. /४/१४/२२२/१२प्यते प्रेमेन क्रिया कालः जिसके द्वारा क्रियावान द्रव्य 'यते लिप्यते प्रेते' अर्थात् प्रेरणा किये जाते हैं, वह काल द्रव्य है । स घ. ४ / १,५.१/३/३१५ ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहि । विविपरिणामियाणं हवइ सुहेऊ सयं कालो |३| = वह काल नामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है, और न अन्यको अन्यरूपसे परिणमाता है। किन्तु स्वतः नाना प्रकारके परिणामोंको प्राप्त होने वाले पदार्थोंका काल स्वयं सुहेतु होता है । ३। (ध.१९/४, २.६.९/२/०६) = ध. ४/२, ५,१/७/३१७ सम्भावसहावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च । परियट्टणसंभूओ कालो नियमेण पण्णत्तो ॥ ७॥ - सत्ता स्वरूप स्वभाव राले जीवोंके, तथैव पुगलों और 'च' शब्द धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्यके परिवर्तनमें जो निमित्तकारण हो, वह नियमसे कालद्रव्य कहा गया है। म पु. /३/४ यथा कुलालचक्रस्य भ्रान्तेर्हेतुरधरिशला तथा कालः पदा नांव नो मतः ॥४॥ जिस प्रकार कुम्हारके चाल के घूमने में उसके नीचे लगी हुई की कारण है उसी प्रकार पदार्थोंके परिणमन होने में कालस्य सहकारी कारण है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only न.च.वृ./१३० परमत्थो जो कालो हो चिय हेऊ हवेह परिणामो-जो निश्चय काल है वही परिणमन करनेमें कारण होता है । गो.जी./मू./५६८ त कालो बन्तणगुणमयि दव्वचियेषु खाताधारेणेव य बटूति हु सव्वदव्वाणि । ५६८६ - णिच् प्रत्यय संयुक्त धातुका कर्म वा भावना शब्द निपजे है सोयाका यह जो वर्ते वा वर्तना मात्र होइ ताक वर्तना कहिए सो धर्मादिक द्रव्य अपने अपने पर्यायनको निष्पत्ति विषै स्वयमेव वर्तमान है। तिनके बाह्य कोई कारणभूत उपकार बिना सो प्रवृत्ति सभवे नाहीं, तायें तिनकें तिस प्रवृति करावने के कारण कालद्रव्य है, ऐसे वर्तना कालका उपकार है । www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy