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________________ ध्यान ४. अप्रशस्त प्रशस्त व शुद्ध ध्यानोंके लक्षण मु. आ./६८१-६८२ परिवारइड्किसक्कारपूयणं असणपाण हेऊ बा । लयणसयणास भत्तपाणकामट्ठहेऊ वा । ६८१| आज्ञाणिद्द समाजकि - महावगुण झाणमिणवसर मणसंकल्पों दु विरो ।६८२ ॥ डा./३/२६-३१]पुण्याशयनशास्त्रात शुद्धतेश्यानलम्बन चिन्नास्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते |२१| पापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वाद्वस्तुविभ्रमात् । कषायाज्जायतेऽजस्रमसद्ध्यानं शरीरिणाम् |३०| क्षीणे रागादिसंताने प्रसन्ने चान्तरात्मनि । य' स्वरूपोपलम्भः स्यात्सशुद्रास्यः प्रकीर्तितः ॥३१॥ १. पुत्रशिष्यादिके लिए हाथी घोड़ लिए, आदरपूजन के लिए भोजनपान के लिए, खुदी हुई पर्वतकी जगहके लिए. शयन-आसन-भक्ति व प्राणोंके लिए, मैथुनकी इच्छा के लिए, आज्ञानिर्देश प्रामाणिकता कीर्ति प्रभावना व गुणविस्तार के लिए इन सभी अभिप्रायोंके लिए यदि कायोत्सर्ग करे तो मनका वह संकल्प' अशुभ ध्यान है /मू. आ./ जोबोंके पापरूप आशयके वश तथा मोह मिथ्यात्वकषाय और तत्त्वोंके अयथार्थ रूप विभ्रमसे उत्पन्न हुआ ध्यान अप्रशस्त व असमीचीन है |३०| (शा./२४ /११) ( और भी दे० अपध्यान ) । २. पुण्यरूप आशयके वशसे तथा शुद्धलेश्याके आलम्बनसे और वस्तुके यथार्थ स्वरूप चिन्तवनसे उत्पन्न हुआ ध्यान है | २६० शेष० धर्मध्यान/१/१) ३. रागादिको सन्तानके क्षीण होनेपर अन्तर आत्मा के प्रसन्न होनेसे जो अपने स्वरूपका अवलम्बन है, वह शुद्धध्यान है । ३१ । (दे० अनुभव ) । ४९६ २. ध्यान निर्देश १. ध्यान व योगके अंगोंका नाम निर्देश घ. १३/५.४,२६/६४/५ सत्याचारि अहियारा होंति प्याता. ध्येयं ध्यानं, ध्यानफलमिति । ध्यानके विषय में चार अधिकार हैं. - ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल । ( चा. सा./१६७/१ ) ( म. पु. / २१/८४ ) ( ज्ञा /४/५ ) ( त. अनु / ३७ ) । म. २१/२२१-२२४ भेद योगमादो यः सोऽनुयोज्य समाहितै। योग कः कि समाधानं प्राणायामश्च कीदृश ॥ २२३ ॥ का धारणा किमाध्यानं कि ध्येयं को स्मृति कि फलं कानि बीजानि प्रत्याहारोऽस्य कीदृश' । २२४। जो छह प्रकारसे योगोंका वर्णन करता है. उस योगवादी विद्वान् पुरुषों को पूछना चाहिए कि योग क्या है समाधान क्या है ? प्राणायाम कैसा है 1 धारणा क्या है ? आध्यान ( चिन्तवन ) क्या है " ध्येय क्या है ? स्मृति कैसी है ? ध्यानका फल क्या है ' ध्यानका बीज क्या है ? और इसका प्रत्याहार कैसा है । ।२२३-२२४। ज्ञा./२२/१ अथ कैश्चिद्यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधन इवानानि योगस्य स्थानानि ।। स्थान्यैर्यमनियमाव पास्यासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधय इति षट् । २। उत्साहान्निश्चयात्संतोषादर्शनाद सुनेर्जनपदत्यागात् पद्मयोगः प्रसिद्ध्यति |१| कई अन्यमती 'आठ अंग योगके स्थान है' ऐसा कहते है - १. यम, २. नियम ३. आसन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६, धारणा, ७ ध्यान और ८ समाधि । किन्हीं अन्यमतियो यम नियमको छोड़कर छह कहे है- १. आसन, २. प्राणायाम, ३, प्रत्याहार, ४. धारणा, ५ ध्यान, ६, समाधि । किसी अन्यने अन्य प्रकार कहा है- १. उत्साहसे, २. निश्चयसे, ३. धैर्यसे, ४. सन्तोषसे दर्शन और देशके स्वागत योगकी सिद्धि होती है। = Jain Education International . २. ध्यान निर्देश २. ध्यान अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं टिक सकता घ. १३/५,४,२६/५१/७६ अंतोमुहुत्तमेतं चितावत्थाणमेगवत्थुम्हि । स्थाणं उम्कानं जोगगिरोहों जिगाणं तु ॥५१। एक वस्तु अन्त मुहूर्त कालतक चिन्ताका अवस्थान होना वयस्थोंका ध्यान है और योग निरोध जिन भगवान्का ध्यान है । ५१॥ त. सू. /६/२० ध्यानमान्तर्मुहुर्ता | २७॥ स.सि./६/२००४४५/१ इत्यनेनानधिकृ ततः परं दुर्धरला देकाग्रचिन्ताया. । रा. वा./१/२०/२१/६२०/५ स्यादेतद ध्यानोपयोगेन दिवसमासाद्ययस्थान नान्तर्मुहुर्तादिति तत्र किं कारणम् इन्द्रियोपप्रसंगावध्यान अन्तर्मुक होता है। इससे कालकी अवधि कर दी गयी। इससे ऊपर एकाग्रचिन्ता दुर्धर है । प्रश्न- एक दिन या महीने भर तक भी तो ध्यान रहनेकी बात सुनी जाती है ? उत्तर--यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि, इतने कालतक एक ही ध्यान रहनेमें इन्द्रियों का उपघात ही हो जायेगा । २. ध्यान व ज्ञान आदिमें कथंचित् भेदाभेद 1 म.पू. २१/१५-१६ प ज्ञानपर्यायो ध्यानाय ध्येयगोचरः । तथाप्येकासंदष्टो धत्ते बोधादि वान्यताम् । १५० हर्षामर्षादिवत् सोऽयं चिद्धमोऽप्यनबोधितः प्रकाशते विभिन्नारमा कथंचि स्तिमितात्मकः १६। यद्यपि ध्यान ज्ञानकी हो पर्याय है और वह ध्येयको विषय करनेवाला होता है। तथापि सहवर्ती होनेके कारण वह ध्यान -ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप व्यवहारको भी धारण कर लेता है | १३| परन्तु जिस प्रकार चित धर्मरूपसे जाने गये हर्ष व क्रोधादि भिन्नभिन्न रूपसे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार अन्तःकरणका संकोच करनेरूप ध्यान भी चैतन्यके धर्मोसे कथंचित् भिन्न है | १६ | ४. ध्यान द्वारा कार्य सिद्धिका सिद्धान्त त. अनु. / २०० यो यत्कर्मप्रभुर्देवस्तदध्यानाविष्टमानसः । ध्याता तदात्मको भूत्वा साधयत्यात्म वाञ्छितम् ॥ २००॥ -जो जिस कर्मका स्वामी अथवा जिस कर्म के करनेमें समर्थ देव है उसके ध्यानसे व्याप्त चित्त हुआ ध्याता उस देवतारूप होकर अपना वांछित अर्थ सिद्ध करता है । दे० धर्मध्यान /६/८ ( एकाग्रता रूप तुम्मयता के कारण जिस-जिस पदार्थका चितवन जीव करता है, उस समय वह अर्थात उसका ज्ञान तदाकार हो जाता है। -- (दे० आगे ध्यान / ४ ) । ५. ध्यानसे अनेकों लौकिक प्रयोजनोंकी सिद्धि ज्ञा./३८ / श्लो. सारार्थ - अष्टपत्र कमलपर स्थापित स्फुरायमान आत्मा व णमो अहंतान के आठ अक्षरोंको प्रत्येक दिशाके सम्मुख होकर क्रमसे आठ रात्रि पर्यन्त प्रतिदिन ११०० बार जपने से सिह आदि र अन्तु भी अपना गर्व छोड़ देते हैं । ६५-६६ आठ रात्रियाँ व्यतीत हो जानेपर इस कमलके पात्रों पर वर्तनेवाले अक्षरोंको अनुक्रमसे निरूपण करके देखें। तत्पश्चात् यदि प्रणव सहित उसी मन्त्रको ध्यावै तो समस्त मनोवाञ्छित सिद्ध हों और यदि प्रणव (ॐ) से वर्जित ध्यावे तो मुक्ति प्राप्त करे ।१०० - १०२ । ( इसी प्रकार अनेक प्रकारके मन्त्रोंका ध्यान करनेसे, राजादिका विनाश, पापका नाश, भोगोंकी प्राप्ति तथा मोक्ष प्राप्ति तक भी होती है । १०३-११२ ॥ शा./४०/२मन्त्रमण्डलमुद्रादिप्रयोगः सुरासुरनरबाट क्षोभयस्यखिलं क्षणात |२| यदि ध्यानी मुनि मन्त्र मण्डल मुद्रादि प्रयोगोंसे ध्यान करनेमें उद्यत हो तो समस्त सुर असुर और मनुष्यों के समूहको क्षणमात्रमें क्षोभित कर सकता है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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