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________________ ध्यान ४९५ १. ध्यानके भेद व लक्षण ध्यानकी तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त ध्याता अपने ध्यानभावसे तन्मय होता है। जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा वैसा ही। होता है। | आत्मा अपने ध्येयके साथ समरस हो जाता है। अर्हतको ध्याता हुआ स्वयं अर्हत होता है। ५ | गरुड आदि तत्त्वोंकों ध्याता हुआ स्वयं गरुड आदि रूप होता है। * गरुड आदि तत्त्वोंका स्वरूप। --दे० वह वह नाम । जिस देव या शक्तिको ध्याता है उसी रूप हो जाता है। -दे० ध्यान/२/४.५। | अन्य ध्येय भी आत्मामें आलेखितवत् प्रतीत होते हैं। १. ध्यानके भेद व लक्षण १. ध्यान सामान्यका लक्षण १. ध्यानका लक्षण-एकाग्र चिन्ता निरोध त.सु./६/२७ उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमाऽन्तर्मुहुर्तात ॥२७१ -उत्तम संहननवालेका एक विषयमें वित्तवृत्तिका रोकना ध्यान है, जो अन्तर्महूर्त काल तक होता है । (म.पु./२१/८), (चा सा./ १६६/६), (प्र.सा./त.प्र./१०२), (त.अनु./५६) स.सि./६/२०/४३६/८ चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम् । =चित्तके विक्षेपका त्याग करना ध्यान है। त.अनु./१६ एकाग्रग्रहणं चात्र वैययविनिवृत्तये। व्यग्र हि ज्ञानमेव स्याद् ध्यानमेकाग्रमुच्यते ॥५६॥ = इस ध्यानके लक्षणमें जो एकाग्रका ग्रहण है वह व्यग्रताकी विनिवृत्तिके लिए है। ज्ञान ही वस्तुतः व्यग्र होता है, ध्यान नहीं। ध्यानको तो एकाग्र कहा जाता है। पं.ध/उ./८४२ यत्पुनर्जानमैकत्र नैरन्तर्येण कुत्रचित् । अस्ति तबध्यानमात्रापि क्रमो नाप्यक्रमोऽर्थतः।८४२। -किसी एक विषयमें निरन्तर रूपसे ज्ञानका रहना ध्यान है, और वह वास्तवमें क्रमरूप ही है अक्रम नहीं। २. ध्यानका निश्चय लक्षण-आत्मस्थित आत्मा पं.का./मू./१४६ जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो। तस्स सुहासुहडहणो भाणमओ जायए अगणी। =जिसे मोह और रागद्वेष नहीं है तथा मन वचन कायरूप योगों के प्रति उपेक्षा है, उसे शुभाशुभको जलानेवाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है। त.अनु./७४ स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतो यतः। षटकारकमयस्तस्मादध्यानमात्मैव निश्चयात् ।७४ - चू*कि आत्मा अपने आत्माको, अपने आत्मामें, अपने आत्माके द्वारा, अपने आरमाके लिए, अपने-अपने आत्महेतुसे ध्याता है, इसलिए कर्ता. कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे षट् कारकरूप परिणत आत्मा ही निश्चयनयकी दृष्टिसे ध्यानस्वरूप है। अन.ध./१/११४/११७ इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चेतः स्पिरं तत' । ध्यानं रत्नत्रयं तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ।११४। = इष्टानिष्ट बुद्धिके मूल मोहका छेद हो जानेसे चित स्थिर हो जाता है। उस चित्तकी स्थितताको ध्यान कहते हैं। २. एकाग्र चिन्ता निरोध लक्षणके विषय में शंका स. सि./६/२७/४४५/१ चिन्ताया निरोधो यदि ध्यान, निरोधश्चाभावः, तेन ध्यानमसरखरविषाणवत्स्यात् । नैष दोषः अन्यचिन्तानिवृत्त्यपेक्षयाऽसदिति चोच्यते, स्वविषयाकारप्रवृत्तेः सदिति च; अभावस्य भावान्तरत्वाइधेवारवादिभिरभानस्य बस्तुधर्भवसिधेश्च । अथवा नायं भावसाधन', निरोध निरोध इति । किं तहि। कर्मसाधनः निरुध्यत इति निरोध'। चिम्ता चासौ निरोधश्च चिन्तानिरोध इति । एतदुक्तं भवति-ज्ञानमेवापरिस्पन्दाग्निशिखावदवभासमान ध्यानमिति । प्रश्न-यदि चिन्ताके निरोधका नाम ध्यान है और निरोध अभावस्वरूप होता है, इसलिए गधेके सोंगके समान ध्यान असत ठहरता है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्य चिन्ताकी निवृत्तिको अपेक्षा वह असत् कहा जाता है और अपने विषयरूप प्रवृत्ति होनेके कारण वह सत् कहा जाता है। क्योंकि अभाव भावान्तर स्वभाव होता है (तुच्छाभाव नहीं)। अभाव वस्तुका धर्म है यह बात सपक्ष सत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति इत्यादि हेतुके अंग आदिके द्वारा सिद्ध होती है (दे० सप्तभंगी)। अथवा यह निरोध शब्द 'निरोधनं निरोधः' इस प्रकार भावसाधन नहीं है, तो क्या है। "निरुध्यत निरोध'-जो रोका जाता है, इस प्रकार कर्मसाधन है। चिन्ताका जो निरोध वह चिन्तानिरोध है। आशय यह है कि निश्चल अग्निशिखाके समान निश्चल रूपसे अवभास. मान झान ही ध्यान है। (रा.बा//२७/१६-१७/६२६/२४), (विशेष दे० एकाग्र चिन्ता निरोध) दे० अनुभव/२/३ अन्य ध्येयोंसे शून्य होता हुआ भी स्वसंवेदनको अपेक्षा शून्य नहीं है। ३. ध्यानके भेद १. प्रशस्त व अप्रशस्तकी अपेक्षा सामान्य मेद चा सा./१६७/६ तदेतच्चतुरङ्गध्यानमप्रशस्त-प्रशस्तभेदेन द्विविधं । वह (ध्याता, ध्यान, ध्येय व ध्यानफल रूप) चार अंगवाला ध्यान अप्रशस्त और प्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है। (म. पू/२१/२७ ), (ज्ञा./२/१७) ज्ञा./३/२७-२८ संक्षेपरुचिभि. सूत्रात्तन्निरूप्यात्मनिश्चयात। विधैवाभिमतं कैश्चिद्यतो जीवाशयस्त्रिधा ॥२७॥ तत्र पुण्याशयः पूर्व स्तद्विपक्षोऽशुभाशयः। शुद्धोपयोगसंज्ञो य. स तृतीयः प्रकीर्तितः ।२८। -कितने ही संक्षेपरुचिवालोंने तीन प्रकारका ध्यान माना है, क्योंकि, जीवका आशय तीन प्रकारका ही होता है ।२७ उन तीनोंमें प्रथम तो पुण्यरूप शुभ आशय है और दूसरा उसका विपक्षी पापरूप आशय है और तीसरा शुद्धोपयोग नामा आशय है। २. आर्त रौद्रादि चार भेद तथा इनका अप्रशस्त व प्रशस्तमें अन्तर्भावस.सू /8/२८ आर्तरौद्रधHशुक्लानि ।२८/= ध्यान चार प्रकारका है आर्त रौद्र धय और शुक्ल । (भ. आ. मू./१६६६-१७००) (म.पु./ २१/२८); (ज्ञा. सा./१०); (त. अनु./३४); (अन. ध./७/१०३/ ७२७)। मू. आ./३६४ अटच रुद्दसहियं दोणि वि झाणाणि अप्पसत्थाणि । धम्म सुक्कं च दुवे पसत्थझाणाणि णेयाणि ।३६४ =आर्त ध्यान और रौद्रध्यान ये दो तो अप्रशस्त हैं और धर्म्यशुक्ल ये दो ध्यान प्रशस्त हैं। (रा. वा./४/२८/४/६२७/३३); (ध. १३/५,४.२६/४७/११ में केवल प्रशस्तध्यानके ही दो भेदोंका निर्देश है); (म. पु./२१/२७); (चा. सा. १६७/३ तथा १७२/२) (ज्ञा. सा./२/२०) (ज्ञा./२६२०) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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