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________________ धर्मध्यान ४८१ २. धर्मध्यानमें सम्यक्त्व व भावों आदिका निर्देश १। = इस संस्थान विचय नामा धर्मध्यानमें चार भेद कहे हैं, उनका वर्णन किया जाता है-जो भव्यरूपी कमलोको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्यके समान योगीश्वर हैं उन्होंने ध्यानको पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे चार प्रकारका कहा है। (भा.पा/टी./६/ २३६/१३) द्र.सं./टो./४८/२०५/३ में उद्धृत-पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थ पिण्डस्थं स्वात्म चिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् । द्र.सं./टो./४६/२०४६/७ पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमहं त्सबज्ञस्वरूपं दर्शयामीति ।-मन्त्रवाक्योंमें स्थिति पदस्थ, निजात्माका चिन्तवन पिंडस्थ, सर्वचिद्रूपका चिन्तवन रूपस्थ और निरंजनका (त्रिकाली शुद्धात्माका) ध्यान रूपातीत है। (भा.पा./टी./६/२३६ पर उद्धृत ) पदस्थ, पिडस्थ व रूपस्थमें अहंत सर्वज्ञ ध्येय होते है। नोट--उपरोक्त चार भेदोंमें पिंडस्थ ध्यान तो अहंत भगवानकी शरीराकृतिका विचार करता है, पदस्थ ध्यान पंचपरमेष्ठीके वाचक अक्षरों व मन्त्रोंका अनेक प्रकारसे विचार करता है, रूपस्थ ध्यान निज आत्माका पुरुषाकाररूपसे विचार करता है और रूपातीत ध्यान विचार व चिन्तवनसे अतीत मात्र ज्ञाता द्रष्टा रूपसे ज्ञानका भवन है (दे० उनउनके लक्षण व विशेष) तहाँ पहिले तीन ध्यान तो धर्मध्यानमें गर्भित हैं और चौथा ध्यान पूर्ण निर्विकल्प होनेसे शुक्लध्यान रूप है (दे० शुक्लध्यान) इस प्रकार संस्थान विचय धर्मध्यानका विषय बहुत व्यापक है। ८. बाह्य व आध्यात्मिक ध्यानका लक्षण ह.पु./१६/३६-३८ लक्षणं द्विविधं तस्य बाह्याध्यात्मिकभेदतः। सूत्रार्थमार्गणं शीलं गुणमालानुरागिता ।३६। जम्माजम्भाक्षुतोद्गारप्राणापानादिमन्दता। निभृतात्मवतात्मत्वं तत्र बाह्यं प्रकीतितम् ॥३७॥ दशधाssध्यात्मिकं धर्नामपायविचयादिकम् ।।३८बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे धर्म्यध्यानका लक्षण दो प्रकारका है। शास्त्रके अर्थकी खोज करना, शीलवतका पालन करना, गुणोंके समूहमें अनुराग रखना अंगड़ाई जमुहाई छींक डकार और श्वासोच्छवासमें मन्दता होना, शरीरको निश्चल रखना तथा आत्माको व्रतोंसे मुक्त करना, यह धर्म्यध्यानका बाह्य लक्षण है। और आभ्यन्तर लक्षण अपाय विचय आदिके भेदसे दस प्रकारका है। चा,सा./१७२/३ धर्म्यध्यानं बाह्याध्यात्मिकभेदेन द्विप्रकारम। तत्र परानुमेयं बाह्य सूत्रार्थगवेषणं दृढव्रतशीलगुणानुरागानिभृतकरचरणबदनकायपरिस्पन्दवाग्व्यापार जम्भम्भोदारक्षक्युप्राणपातोद्रेकादिविरमणलक्षणं भवति। स्वसवेद्यमाध्यात्मिकम, तद्दश विधम् बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे धर्मध्यान दो प्रकारका है। जिसे अन्य लोग भी अनुमानसे जान सकें उसे बाह्य धर्मध्यान कहते है। सूत्रों के अर्थकी गवेषणा (विचार व मनन), व्रतोंको दृढ़ रखना, शील गुणों में अनुराग रखना, हाथ पैर मुंह कायका परिस्पन्दन और वचनव्यापारका बन्द करना, जभाई, जंभाईके उद्गार प्रगट करना, छींकना तथा प्राण-अपानका उद्रेक आदि सब क्रियाओंका त्याग करना बाह्य धर्मध्यान है। जिसे केवल अपना आत्मा हो जान सके उसे आध्यात्मिक कहते हैं। वह आज्ञाविचय आदिके भेदसे दस प्रकारका है। २. धर्मध्यानमें सम्यक्त्व व भावों आदिका निर्देश १. धर्मध्यानमें विषय परिवर्तन निर्देश प्र.सा./ता.वृ./१९६/२६२/६ अथ ध्यानसंतानः कथ्यते-यत्रान्तर्मुहर्त्तपर्यन्तं ध्यानं तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तपर्यन्ते तत्त्वचिन्ता, पुनरप्यन्तर्महूर्तपर्यन्तं ध्यानम् । पुनरपि ततः चिन्तेति प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थानव दन्तर्मुहूर्तेऽन्तमुहूर्त गते सति परावर्तनमस्ति स ध्यानसंतानो भण्यते । = ध्यानकी सन्तान बताते है-जहाँ अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त ध्यान होता है, तदनन्तर अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त तत्त्वचिन्ता होती है। पुनः अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त ध्यान होता है, पुन. तत्त्वचिन्ता होती है। इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त गुणस्थानकी भॉति अन्तर्मुहूर्त मे परावर्तन होता रहता है, उसे ही ध्यानकी सन्तान कहते है । (चा,सा./२०६/२) । २. धर्मध्यानमें सम्भव भाव व लेश्याएँ घ. १३/५,४,२६/५३/७६ होंति कम्मविसुद्धाओ लेस्साओ पीय पउम मुक्काओ। धम्मज्माणोवगयस्स तिव्वमंदादिभेयाओ ।५६ -धर्मध्यानको प्राप्त हुए जीवके तीव मन्द आदि भेदोको लिये हुए, क्रमसे विशुद्धिका प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होतो है। (म पु./ २१/१५६) । चा.सा./२०३ सर्वमेतत् धर्मध्यानं पीतपद्मशुक्ललेश्या बलाधानम्... परोक्षज्ञानत्वात् क्षायोपशमिकभावम् । =सर्व हो प्रकारके धर्मध्यान पीत पद्म व शुक्ललेश्याके बलसे होते हैं, तथा परोक्षज्ञानगोचर होनेसे क्षयोपशमिक है। म.पु./२१/१५६-१५७) म.पू./२१/१५६-९५७) ज्ञा./४१/१४ धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तर्मुहर्तको । क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्लैब शाश्वती १४ = इस धर्मध्यानकी स्थिति अन्तमुहूर्त है, इसका भाव क्षायोपश्चमिक है और लेश्या सदा शुक्ल हो रहती है । (यहाँ धर्मध्यानके अन्तिम पायेसे अभिप्राय है)। ३. वास्तविक धर्मध्यान मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं न.च.व./१७६ माणस्स भावणाक्यि ण हु सो आराहओ हवे नियमा। जो ण विजाणइ वत्थ पमाणणयणिच्छयं किच्चा। जो प्रमाण व नयके द्वारा वरतुका निश्चय करके उसे नहीं जानता, वह ध्यानकी भावनाके द्वारा भी आराधक नहीं हो सकता । ऐसा नियम है। ज्ञा./६/४ 'रत्नत्रयमनासाद्य य. साक्षाद्वयातुमिच्छति । खपुष्पै कुरुते मूढ स वन्ध्यासुतशेखरम/४। ज्ञा./४/१८,३० दुई शामपि न ध्यान सिद्धि' स्वप्नेऽपि जायते। गृह्णता दृष्टिवै कन्याद्वस्तुजात यदृच्छया ।१८। ध्यानतन्त्र निषेध्यन्ते नेते मिथ्यादृश परम् । मुनयोऽपि जिनेशाज्ञाप्रत्यनीकाश्चलाशयाः/३० । -जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रयको प्राप्त न होकर ध्यान करना चाहता है, वह मूर्ख आकाशके फूलोसे बन्ध्यापुत्रके लिए सेहरा बनाना चाहता है।४ा दृष्टिकी विकलतासे वस्तुसमूहको अपनी इच्छानुसार ग्रहण करनेवाले मिथ्यादृष्टियोके ध्यानकी सिद्धि स्वप्नमे भी नही होती है ।१८। सिद्धान्तमें ध्यानमात्र केवल मिथ्यादृष्टियोके हो नहीं निषेधते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र भगवान्की आज्ञासे प्रतिकूल है तथा जिनका चित्त चलित है और जैन साधु कहाते है, उनके भी ध्यानका निषेध किया जाता है, क्योकि उनके ध्यानकी सिद्धि नहीं होती/३० । पं.ध/उ./२०६ नोपल ब्धिरसिद्धास्य स्वादुसंवेदनात्स्वयम् । अन्यादे शस्य संस्कारमन्तरेण सुदर्शनात ।२०६॥ संसारी जीवोंके मैं सुखी दुःखी इत्यादि रूपसे सुख-दुःखके स्वादका अनुभव होनेके कारण अशुद्धोपलब्धि असिद्ध नहीं है, क्योंकि उनके स्वयं ही दूसरी अपेक्षाका ( स्वरूपसंवेदनका) संस्कार नहीं होता है। ४. गुणस्थानों की अपेक्षा धर्मध्यानका स्वामित्व स.सि /६/३६/४५०/५ धर्म्यध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् । तदविरतदेश विरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति । स.सि./६/३७/४५३/६ श्रेण्यारोहणात्याग्धयं श्रेण्यो शुक्ले इति व्याख्याते। १. धर्मध्यान चार प्रकारका जानना चाहिए। यह अविरत, देशविस्त, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत जीवोके होता है। (रा. वा/ १/३६/१३/६३२/१८), (ज्ञा./२८/२८)।२. श्रेणी चढनेसे पूर्व धर्मध्यान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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