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________________ धर्मध्यान द्वारा तत्त्वका समर्थन करनेके लिए, उसके जो तर्क नय और प्रमाण की योजनारूप निरन्तर चिन्तन होता है, वह सर्वशको आशाको प्रकाशित करनेवाला होनेसे आहाविषय कहा जाता है। (रा.बा./१/ २६/४-५/६३०/-) (इ.पू. ५६/४६): (चा. सा. / २०१/४): (त. सा. ७/४०): (ज्ञा. / ३३/६-२२); (द्र.सं./टी./४८/२०२/६) । ५. जीवविचय 1 इ.पू. ५६/४२-४३ अनादिनिधना जीवा द्रव्यादिभ्ययान्यथा असंस्थेयप्रदेशास्ते स्वोपयोगः ४२ अपेनोपकरणाः स्वकृतोचितभोगिन । इत्यादिचेतनाध्यानं यज्जीवविचयं हि तत् । द्रव्यार्थिकनयसे जीव अनादि निधन है. और पर्यायार्थिक नयसे सादिसनिधन है. असंख्यात प्रवेशी है, उपयोग लक्षणस्वरूप है, शरीररूप अचेतन उपकरणसे युक्त है, और अपने द्वारा किये गये कर्मके फलको भोगते है...इत्यादि रूपसे जीवका जो ध्यान करना है वह जीवविचय नामका तीसरा धर्मध्यान है (चा.सा./१७३/५) ४८० ६. भवविचय C = ह.पु. / ५६/४७ प्रेत्यभावो भवोऽमीषा चतुर्गतिषु देहिनाम् । दुःखात्मेचिन्ता तु भवादिविषयं पुनः 1४७1 चारो गतियोंमें भ्रमण करनेवाले इन जीवोंको मरनेके बाद जो पर्याय होती है वह भव कहलाता है । यह भव दुखरूप है। इस प्रकार चिन्तवन करना सो भय नामका सातवाँ धध्यान है (चा. सा./१७६/१) ७. विपाकविचय भ. ज./मू./१०९३/९८४५ एवा जीवाणं पुणपावकम्मफलं । उदीरण संबन्धे मोच विचिणादि जीवों को जो एक और अनेक भवमें पुण्य और पापकर्मका फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, सक्रम, बन्ध और मोक्षका चिन्तवन करता है। (खा. ४०९), (प. १३/५.४.२६/गा. ४२७२) (स.सि./१/३६/४५०/२): (रा.वा./१/३६/८-६ / ६३०-६३२ में विस्तृत कथन), (भ.आ./ वि. / १७०८ / १५३६/२१) ( म.पू./२१ / १४३-१४७) (त.सा./७/४२) (०/१५/१-११). टी. ४८/२०२/१०) । ४.२६/४५ यच्चतुर्विधमन्यस्य कर्मणोऽष्टविधस्य तु विपाकचित विपाकवि विदु. ॥४५॥ ज्ञानावरणादि आठ कमोंके प्रकृति स्थिति और अनुभाग रूप चार प्रकारके बन्धोंके विपाकफलका विचार करना, सो विपाकविश्चय नामका पाँचवाँ धर्मध्यान है । (चा.सा./१७४/२) । ८, विराग विचय ह.पु / ५६/४६ शरीरमशुचिर्भोगा किपाकफलपाकिनः । विरागबुद्धिरिस्वादि विरागविषयं स्मृतम् ४६ शरीर अपवित्र है और भोग किपाकफलके समान तदात्व मनोहर है, इसलिए इनसे विरक्तबुद्धिका होना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि चिन्तन करना विरागविजय नामका छठा धर्म्यध्यान है । (चा.सा./१७१/१) ९. संस्थान विचय (देखो आगे पृथक् शीर्षक) १०. हेतु विचय 1 .पू./६/५० नुसारिणः पंस स्याद्वादप्रक्रियाश्रयाद सन्मार्गाश्रमणध्यान हतुविषयं हि तत् ५० और तर्कका अनुसरण पुरुष स्याद्वादकी प्रक्रियाका आश्रय लेते हुए समीचीन मार्गका आश्रय करते हैं, इस प्रकार चिन्तवन करना सो हेतुविचय नामका दसवाँ ध्यान है (चासा / २०२/१) Jain Education International १. धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश ६. संस्थानविच धर्मध्यानका स्वरूप घ. १३/५.४.२६/मा, ४३-५०/०२/१३ तिष्णं लोगानं संठागपमामा आउयाविचित ठाणविषयं णाम उत्थं धम्मज्माणं एत्थ गाढ़ाओ जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाईं । उप्पादट्ठिदिभंगादिपज्यमा जे य दव्वाणं ॥४३॥ पंचत्थिकायमइयं लोयमणाइणिहणं जिनकस्वादं णामादिभेयविहियं तिहिमहोलोगभागादि लिदिदीवसारणधर विमाण भवनादिसंठागं वोमादि पट्ठिा जिव लोगदिविहाणं ॥ ४५ ॥ उबजोगलखण मणाइ मिगमत्यंतरं सरीरादो। जीवमरूवि कारि भोई स सयस्स कम्मस्स । ४६ । तम्स य सकम्मजयिं जम्मा कसायपायासं वसणसयसारमीगं मोहावत्तं महाभीमं ॥४७॥ णाणमयकणहारं वरवारितमय महापोयं । संसारसागरमणोरपारमनिचिज्म ४८ सव्वषयसमुहम " यो समयसम्म ४६| उमाणोवर मे नि मुगी पिचमणि-च्यादिविणापरमो होह समाविचितो धम्मज्माने व्हि व पुवं । ०१. तीन लोकोंके संस्थान, प्रमाण और आयु आदिका चितवन करना संस्थान विचय नामका चौथा धर्म ध्यान है । (स.सि./६/१६/४५०/३) (रा.वा./६/३६/१०/६३२ / ६) (भ.आ.// १७०/१५३६/२३) (त.सा./७/४३): (शा./३६/१८४१०६); (व. सं. टी. ४८I २०३/२) । २. जिनदेवके द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहनेका स्थान, भेद, प्रमाण उनकी उत्पाद स्थिति और व्यय आदिरूप पर्यायोका चिन्तवन करना |४३| पंचास्तिकायका चिन्तवन करना ४४ (दे० पीछे जीव-जीव विचयके लक्षण ) ३ अपोलोक आदि भागरूपसे तीन प्रकारके (अघो मध्य व उ) लोकका तथा पृथिवी. वलय द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदिके संस्थानों (आकारों) का एवं उसका आकाशमै प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेदका चिन्तन करे 198-४५। (भ.आ./मू./१०१४ १५४५) (गू.आ./४०२) (४.५/५६/४०); (म.पु. २१/१४८-१२०): (शा./ ३६ / १-१०, ८२ - १०); (विशेष दे० लोक) ४. जीव उपयोग लक्षणवाला है, अनादिनिधन है, शरीरसे भिन्न है, अरूपी है, तथा अपने कर्मोंका कर्ता और भोक्ता है | ४६ | ( म.पु. / २१/१५१) ( और दे० पीछे 'जीव विचय' का लक्षण) ५. उस जीवके कर्मसे उत्पन्न हुआ जन्म, मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकडों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य है: मोहरूपी आर्त है, और अत्यन्त भयंकर है. ज्ञानपी कर्णधार है, उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत है। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनन्त ( आध्यात्मिक ) संसारका चिन्तवन करे 1४७-४८ (म.पु. २१/१२-१५३) ६. बहुत कहने से क्या लाभ यह जितना जीवादि पदार्थोंका विस्तार कहा है, उस सबसे युक्त और सर्वनयसमूहमय समय सद्भावका ( द्वादशांगमय सकल श्रुतका) ध्यान करे ४६। (म.पु. / २१/१५४) ७. ऐसा ध्यान करके उसके अन्तमें मुनि निरन्तर अनित्यादि भावनाओंके चिन्तनमें तत्पर होता है। जिससे वह पहलेकी भाँति धर्मध्यान में सुभावितचित्त होता है ।५०१ (भ.आ./व. १०९४/१६४६) (मु. जा /४०२): (चा.सा./१७६/९): (विराग विषयका लक्षणों) नोट (अनुप्रेक्षाओके भेद व सक्षम-३० अनुप्रेक्षा) हा ३६/ श्ल. नं. ८ ( नरकके दुःखोंका चिन्तवन करे ) १११-८९ । ( विशेष देखो नरक) (भव विषयका लक्षण) १. (स्वर्ग के सुख तथा देवेन्द्रोंके वैभव आदिका चिन्वन ०-१२वशेष वर्ग) १०. (सिद्धढोका तथा सिद्ध के स्वरूपका चिन्तवन करे । १८३१ ११. ( अन्तमें कर्म मल से रहित अपनी निर्मल आत्माका चिन्तवन करें ) | १८५ ७. संस्थान विषयके पिण्डस्थ आदि भेदोंका निर्देश ज्ञा - / ३७ / १ तथा भाषाकारकी उत्थानिका - पिण्डस्थं च पदस्थं च स्वरूपस्थ रूप चतुर्द्धा ध्यानमाम्नात भव्यराजीव भास्कर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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