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________________ ४७९ ५. व्यवहारधर्मकी कथंचित् प्रधानता तथा सम्यम्दष्टि को शुभोपयोग होने पर निकट में ही शुद्धोपयोग की प्राप्ति हो जाती है इसलिये, व्रतादिरूप शुभोपयोग को उपचार से मोक्षमार्ग कह दिया जाता है। ५. व्यवहार धर्मको कथंचित् प्रधानता १. व्यवहार धर्म निश्चयका साधन है द्र.सं./टी./३१/१०२/६ अथ निश्चयरत्नत्रयपरिणत शुद्धात्मद्रव्यं तदबहिरङ्गसहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठचाराधनं च शरणम् । निश्चय रत्नत्रयसे परिणत जो स्वशुद्धात्मद्रव्य है वह और उसका बहिरंगसहकारीकारणभूत पंचपरमेष्ठियोंका आराधन है। २. व्यवहारकी कथंचित् इष्टता प्र.सा./मू-/२६० असुभोवयोगरहिदा मुधुवजुता महोवजुत्ता वा। णित्यारयंति लोगं तेसु पसत्यं लहदि भत्ता।२६-जो अशुभोपयोग रहित वर्तते हुए शुद्धोपयुक्त अथवा शुभोपयुक्त होते हैं वे ( श्रमण ) लोगोंको तार देते हैं। उनकी भक्ति से प्रशस्त पुण्य होता है । २६०। दे. पुण्य/४/४ ( भव्य जीवोंको सदा पुण्यरूप धर्म करते रहना चाहिए।) कुरल काव्य /४/६ करिष्यामीति संकल्पं त्यक्त्वा धर्मी भवद्रुतम् । धर्म एव परं मित्रं यन्मृतौ सह गच्छति ।६। यह मत सोचो कि मैं धीरे-धीरे धर्म मार्गका अवलम्बन करू गा। किन्तु अभी बिना विलम्ब किये ही शुभ कर्म करना प्रारम्भ कर दो, क्योंकि, धर्म ही वह अमर भित्र है, जो मृत्युके समय तुम्हारा साथ देनेवाला होगा। स. स्तो/५८ पूज्यं जिनं त्वाय॑यतो जिनस्य, सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषायनाऽलं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशी 1। हे पूज्य श्री वासुपूज्य स्वामी ! जिस प्रकार विष की एक कणिका सागर के जल को दूषित नहीं कर सकती, उसी प्रकार आपकी पूजा में होने वाला लेशमात्र साबय योग उससे प्राप्त वहपुण्य राशि को दूषित नहीं कर सकता। रा.वा./६/३/9/५०७/३४ उत्कृष्टः शुभपरिणामः अशुभजघन्यानुभागबन्धहेतुत्वेऽपि भूयसः शुभस्य हेतुरिति शुभः पुण्यस्येत्युच्यते, यथा अल्पाकारहेतुरपि बहूपकारसद्भावदुपकार इत्युच्यते। यद्यपि शुभ परिणाम अशुभके जघन्य अनुभागबन्धके भी कारण होते हैं, पर बहुत शुभके कारण होनेसे 'शुभः पुण्यस्य' यह सूत्र सार्थक है। जैसे कि थोड़ा अपकार करनेपर भी बहुत उपकार करनेवाला उपकारक ही माना जाता है। प.प्र./टी./२/१५/१७७/४ अत्राह प्रभाकरभट्टः। तहि ये केचन पुण्यपापद्वयं समानं कृत्वा तिष्ठन्तीति तेषां किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति । भगवानाह यदि शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं.. समाधि लब्ध्वा तिष्ठन्ति तदा संमतमेव । यदि पुनस्तथाविधमवस्थामलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च त्यक्त्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम्। -प्रश्न-यदि कोई पुण्य व पाप दोनोंको समान समझकर व्यवहार धर्मको छोड़ तिष्ठे तो उसे क्या दूषण है। उत्तर-यदि शुद्धात्मानुभूतिरूप समाधिको प्राप्त करके ऐसा करता है, तब तो हमें सम्मत ही है। और यदि उस प्रकारकी अवस्थाको प्राप्त किये बिना ही गृहस्थावस्थामें दान पूजादिक तथा साधुकी अवस्थामें षडावश्यकादि छोड देता है तो उभय भ्रष्ट हो जानेसे उसे दूषण ही है। प्र.सा /ता.व./२५०/३४४/१३ इदमत्र तात्पर्यम् । योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थ शिष्यादिमोहेन वा सावद्य नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते, यदि पुनरन्यत्र सावधमिच्छति, वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्ति। यहाँ यह तात्पर्य समझना कि जो व्यक्ति स्वशरीर पोषणार्थ या शिष्यादिके मोहवश सावद्यकी इच्छा नहीं करते उनको ही यह व्याख्यान (बैयावृत्ति आदिमें रत रहनेवाला साधु गृहस्थके समान है) शोभा देता है। किन्तु जो अन्यत्र तो सावद्यको इच्छा करे और धर्म कार्यों के सावध का त्याग करे, उसे तो सम्यकत्व ही नहीं है। द.पा./टी./३/४/१३ इति ज्ञात्वा.. दानपूजादिसत्कर्म न निषेधनीय, आस्तिकभावेन सदा स्थातव्यमित्यर्थः । (द.पा./टी./२/१/२२) चा.पा-टी./८/१३३/१० एवमर्थ ज्ञात्वा ये जिनपूजनस्नपनस्तवननवजीर्ण चैत्यचैत्यालयोद्धारणयात्राप्रतिष्ठादिकं महापुण्यं कर्म प्रभावनाङ्ग गृहस्थाः सन्तोऽपि निषेधन्ति ते पापात्मनो मिथ्यादृष्टयो.. अनन्तसंसारिणो भवन्तीति...-१. ऐसा जानकर दान पूजादि सत्कर्म निषेध करने योग्य नहीं हैं, बल्कि आस्तिक भावसे स्थापित करने योग्य है। (द.पा./टी./१/५/२२) २. जिनपूजन, अभिषेक, स्तवन, नये या पुराने चैत्य चैत्यालयका जीर्णोद्धार, यात्रा प्रतिष्ठादिक महापुण्य कर्म रूप प्रभावना अंगको यदि गृहस्थ होते हुए भी निषेध करते हैं तो वे पापात्मा मिथ्यादृष्टि अनन्त संसारमें भ्रमण करते है। (पं.ध./७३६-७३६) ३. अन्यके प्रति व्यक्तिका कर्तव्य-अकर्तव्य ज्ञा./२-१०/२१ यद्यत्स्वस्यामिष्टं तत्तद्वाकचित्तकर्मभिः कार्यम् । स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्याग्रिम लिङ्गम् ।२१। -धर्मका मुख्य चिह्न यह है कि, जो जो क्रियाएँ अपनेको अनिष्ट लगती हों, सो सो अन्यके लिए मन वचन कायसे स्वप्नमें भी नहीं करना चाहिए। ४. ज्यवहार धर्मका महत्व आ.अनु./२२४,२२६ विषयविरतिः संगत्यागः कषायविनिग्रह', शमयमदमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोद्यम' । नियमितमनोवृत्तिर्भ क्तिजिनेषु दयालुता, भवति कृतिन' संसाराब्धेस्तटे निकटे सति ।२२४। समाधिगतसमस्ता' सर्वसावधदूरा', स्वहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः । स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः, कथमिह न विमुक्तेर्भाजनं ते विमुक्ता' ।२२६। - इन्द्रिय विषयोंसे विरक्ति, परिग्रहका त्याग, कषायोंका दमन, शम, यम, दम आदि तथा तत्त्वाभ्यास, तपश्चरणका उद्यम, मनको प्रवृत्ति पर नियन्त्रण, जिनभगवान में भक्ति, और दयालुता, ये सब गुण उसी पुण्यात्मा जीवके होते हैं, जिसके कि संसाररूप समुद्रका किनारा निकट आ चुका है।२२४। जो समस्त हेयोपादेय तत्त्वोंके जानकार, सर्वसावद्यसे दूर, आत्महितमें चित्तको लगाकर समस्त इन्द्रियव्यापारको शान्त करनेवाले है, स्व व परके हितकर बचनका प्रयोग करते हैं, तथा सब संकल्पोंसे रहित हो चुके हैं, ऐसे मुनि कैसे मुक्तिके पात्र न होंगे 1 ॥२२६। का.अ./मू./४३१ उत्तमधम्मेण जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देवो। चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि ।४३१३ =उत्तम धर्मसे युक्त तिथंच भी देव होता है, तथा उत्तम धर्मसे युक्त चाण्डाल भी सुरेन्द्र हो जाता है। ज्ञा./२-१०/४,१९ चिन्तामणिनिधिदिव्यः स्वर्धन. कल्पपादपाः । धर्मस्यैते श्रिया साद्ध मन्ये भृत्याश्चिरन्तनाः ।४। धर्मो गुरुश्च मित्र च धर्मः स्वामी च बान्धवः । अनाथवत्सलः सोऽय संत्राता कारणं विना । ११ । - लक्ष्मीसहित चिन्तामणि, दिव्य नवनिधि, कामधेनु और कल्पवृक्ष, ये सब धर्मके चिरकालसे किंकर है, ऐसा मैं मानता हूँ।४। धर्म गुरु है, मित्र है, स्वामी है, बान्धव है, हितू है, और धर्म ही बिना कारण अनाथोंका प्रीतिपूर्वक रक्षा करनेवाला है। इसलिए प्राणोको धर्म के अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है ।१९। ६. निश्चय व व्यवहारधर्म समन्वय १. निश्चय धर्मकी प्रधानताका कारण प.प्र./मू./२/६७ सुद्धहं संजमु सीलु तउ सुद्धहँ दसणु णाणु । सुद्धहँ कम्म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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