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________________ धर्म ४७० ४. व्यवहारवर्मको कथंचित् गौणता ज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानराग- एसु च पसंगो मोहस्सेदाणि लिगाणि।- पदार्थका अयथाग्रहण, तिर्यच निषेधार्थतीवरागज्मरविनोदार्थ वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति । मनुष्यों के प्रति करुणाभाव और विषयोंकी संगति, ये सब मोहके चिह्न धर्ममें अर्थात व्यवहारचारित्रके अनुष्ठानमें भावप्रधान चेष्टा । ... हैं । (अर्थात पहला तो दर्शन मोहका, दूसरा शुभरागरूप मोहका तथा यह (प्रशस्त राग) वास्तवमें जो स्थूल लक्षवाले होनेसे मात्र भक्ति तीसरा अशुभरागरूप मोहका चिह्न है।) (पं. का.मू./१३५/१३६)। प्रधान हैं ऐसे अज्ञानीको होता है। उच्चभूमिकामें स्थिति प्राप्त न पं. बि./७/२५ तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो संमतः। यो की हो तब, अस्थान (अस्थिति) का राग रोकनेके हेतु अथवा भोगादि निमित्तमेव स पुन' पापं बुधैर्मन्यते ।-जो धर्म पुरुषार्थ तीब राग ज्वर मिटानेके हेतु कदाचित ज्ञानीको भी होता है। मोक्षपुरुषार्थका साधक होता है वह तो हमें अभीष्ट है, किन्तु जो धर्म (नि.सा./ता.व./१०५) केवल भोगादिका ही कारण होता है उसे विद्वज्जन पाप ही समझते २. व्यवहाररत जीव परमार्थको नहीं जानते स.सा./मू./४१३ पासंडीलिंगेम व गिहिलिगेस व बहुपयारेसु। कुव्वं ति ६. व्यवहारधर्म अकिंचित्कर है जे ममत्तं तेहि ण णायं समयसारं ।४१३। जो बहुत प्रकारके मुनिलिंगोंमें अथवा गृहीलिंगोंमें ममता करते हैं, अर्थात यह मानते हैं कि स, सा./आ./१५३ अज्ञानमेव बन्धहेतुः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां द्रव्य लिंग ही मोक्षका कारण है उन्होंने समयसारको नहीं जाना। ज्ञानिना बहिर्वतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भा वात् । -अज्ञान ही बन्धका कारण है, क्योंकि उसके अभावमें स्वयं ३. व्यवहारधर्ममें रुचि करना मिथ्यात्व है हो ज्ञानरूप होनेवाले ज्ञानियोंके बाह्य व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि पं. का./ता. वृ./१६४/२३/१६ यदि पुन शुद्धात्मभावनासमर्थोऽपि तां शुभ कर्मोंका असद्भाव होने पर भी मोक्षका सद्भाव है। त्यक्त्वा शुभोपयोगादेव मोक्षो भवतीत्येकान्तेन मन्यते तदा स्थूलपर ज्ञा./२२/२७ यस्य चित्तं स्थिरीभूतं प्रसन्नं ज्ञानवासितम् । सिद्धमेव समयपरिणामेनाज्ञानी मिथ्यावृष्टिर्भवति। यदि शुद्धात्माकी भावना- मुनेस्तस्य साध्य किं कायदण्डनैः ।२७। जिस मुनिका चित्त स्थिरीमें समर्थ होते हुए भी कोई उसे छोड़कर शुभोपयोगसे ही मोक्ष होता भूत है, प्रसन्न है,रागादिकी कलुषतासे रहित तथा ज्ञानकी वासनासे है, ऐसा एकान्तसे मानता है, तब स्थूल परसमयरूप परिणामसे युक्त है, उसके सब कार्य सिद्ध हैं, इसलिए उस मुनिको कायदण्ड देनेसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है। क्या लाभ है। ४. व्यवहार धर्म परमार्थसे अपराध अग्नि व दुःखस्व- ७. व्यवहार धर्म कथचित् हेय है स. सा./आ./२७१/क. १७३ सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं पु. सि. उ./२२० रत्नत्रयमिह हेतु निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस- जिनै स्तन्मन्ये व्यवहार एव निरिवलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । वति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः। = इस लोकमें रत्नत्रयरूप सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं वे सब जिनेन्द्र भगवान्ने धर्मनिर्वाणका ही कारण है. अन्य गतिका नहीं। और जो रत्नत्रयमें त्यागने योग्य कहे हैं, इसलिए हम ग्रह मानते है कि पर जिसका पुण्यका आस्रव होता है. यह अपराध शुभोपयोगका है। (और भी आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है। देखो चारित्र /४/३)। प्र. सा./त. प्र./१६७ स्वसमयप्रसिद्धयर्थ पिब्जनलग्नतूलन्यासन्यायप्र. सा.त. प्र./७७,७६ यस्तु पुनः धर्मानुरागमवलम्बते स खल्लूपरक्त- मदिधताऽहंदादिविषयोऽपि क्रमेण रागरेणुरपसारणीय इति ।-जीवचित्तभित्तितया तिरस्कृतशुद्धोपयोगशक्तिरासं सारं शरीरं दुखमेवा- को स्वसमयकी प्रसिद्धिके अर्थ, धुनकीमें चिपकी हुई रूईके न्यायसे, नुभवति ।७७। यः खलु...शुभोपयोगवृत्त्या बकाभिसारिकयेवाभिसार्य- अहंत आदि विषयक भी रागरेणु क्रमशः दूर करने योग्य है। माणो न मोहवाहिनोविधेयतामविकरति स किल समासन्नमहादुःख- ( अन्यथा जैसे वह थोड़ी-सी भी रूई जिस प्रकार अधिकाधिक रूईसंकटः कथमात्मानमविप्लुतं लभते ।७६। जो जीव (पुण्यरूप) धर्मा- को अपने साथ चिपटाती जाती है और अन्तमें धुनकीको धुनने नहीं नुरागपर अत्यन्त अवलम्बित है, वह जीव वास्तबमें चित्तभूमिके देती उसी प्रकार अल्पमात्र भी वह शुभ राग अधिकाधिक रागकी उपरक्त होनेसे (उपाधिसे रंगी होनेसे ) जिसने शुद्धोपयोग शक्तिका वृद्धिका कारण बनता हुआ जीवको संसारमें गिरा देता है।) तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ संसार पर्यन्त शारीरिक दु.ख ८. व्यवहार धर्म बहुत कर लिया अब कोई और मार्ग का ही अनुभव करता है ।७७। जो जीव धूर्त अभिसारिका की भाँति शुभोपयोग परिणतिसे अभिसार (मिलन) को प्राप्त हुआ मोहकी सेनाको वशवर्तिताको दूर नहीं कर डालता है, तो जिसके महादुःख अमृताशीति/५६ गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेश-स्थितिकरण निरोधसंकट निकट है वह, शुद्ध आत्माको कैसे प्राप्त कर सकता है ।७३। ध्यानतीर्थोपसेवा। पठनजपनहोमै ह्मणो नास्ति सिद्धिः, मृगय तदपरं प. का./त. प्र/१७२ अर्हदादिगतमपि रागं चन्दनगसङ्गतमग्निमिव त्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः।-गिरि, गहन, गुफा, आदि तथा शून्यवन सुरलोकादिक्लेशप्राप्तधात्यन्तमन्तहाय कल्पमानमाकलय्य...। = प्रदेशों में स्थिति, इन्द्रियनिरोध, ध्यान, तीर्थ सेवा, पाठ, जप, होम अर्हन्तादिगत रागको भी, चन्दनवृक्षसंगत अग्निकी भाँति देवलो आदिकोंसे ब्रह्म (व्यक्ति) को सिद्धि नहीं हो सकती। अतः हे कादिके क्लेश प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अन्तर्वाहका कारण समझकर (.प्र. भव्य ! गुरुओंके द्वारा कोई अन्य ही उपाय खोज । सा./त. प्र/११) (यो. सा./अ./६/२५), (नि. सा./ता. वृ. १४४)। ९. व्यवहारको धर्म कहना उपचार है पं. का /त. प्र./१६८ रागकलिविलासमूल एवायमनर्थसंतान इति । स सा./आ./४१४ यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन 'द्विविध द्रव्य लिंग =यह (भक्ति आदि रूप रागपरिणति) अनर्थसंततिका मूल रागरूप भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः, स केवलं व्यवहार एव, न परक्लेशका विलास ही है। मार्थः । अनगार व सागार, ऐसे दो प्रकारके द्रव्य लिगरूप मोक्षमार्ग५. व्यवहार धर्म मोह व पापरूप है का प्ररूपण करना व्यवहार है परमार्थ नहीं। मो. मा. प्र.//३६७-१५, ३६५/२२ ; ३७२/३ : ३७६/६; ३७७/११ प्र. सा./मू./८५ अठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु । विस- निम्न भूमि में शुभोपयोग और शोपयोग का सहवर्तीपना होने से, हँढ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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