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________________ धर्म ४६५ सूचीपत्र व्यवहारधर्मकी कथंचित् प्रधानता व्यवहारधर्म निश्चयका साधन है। व्यवहारधर्मको कथंचित् इष्टता। अन्यके प्रति व्यक्तिका कर्त्तव्य अकर्तव्य। व्यवहार धर्मका महत्व। * * २ / धर्ममें सम्यग्दर्शनका स्थान सम्यग्दर्शन ही धर्मका मूल है। मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शन प्रधान है। -दे० सम्यग्द०/1/५ धर्म सम्यक्त्वपूर्वक ही होता है। सच्चा व्यवहार धर्म सम्यग्दृष्टिको ही होता है। ___-दे० भक्ति। सम्यक्वयुक्त ही धर्म मोक्षका कारण है रहित नहीं। सम्यक्त्व रहित क्रियाएँ वास्तविक व धर्मरूप नहीं हैं। सम्यक्त्वरहित धर्म परमार्थसे अधर्म व पाप है। सम्यक्त्वरहित धर्म वृथा व अकिचित्कर है। धर्मके श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान । -दे० सम्यग्दर्शन/II/१ ६ निश्चय व व्यवहार धर्म समन्वय * * * * निश्चय धर्मकी कथंचित् प्रधानता * * * निश्चयधर्म ही भूतार्थ है। शुभ-अशुभसे अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक | धर्म है। * | धर्म वास्तवमें एक है, उसके भेद, प्रयोजन वश किये गये हैं। -दे० मोक्षमार्ग/४। एक शुद्धोपयोगमें धर्मके सब लक्षण गर्मित हैं। | निश्चयधर्मको व्याप्ति व्यवहार धर्मके साथ है, पर ____ व्यवहारकी निश्चयके साथ नहीं। | निश्चय रहित व्यवहार धर्म वृथा है। निश्चय रहित व्यवहार धर्मसे शुद्धात्माकी प्राप्ति नहीं होती। ७ निश्चय धर्मका माहात्म्य । यदि निश्चय ही धर्म है तो सांख्यादि मतोंको मिथ्या क्यों कहते हो।-दे० मोक्षमार्ग/१/३। | निश्चयधर्मकी प्रधानताका कारण । यदि व्यवहारधर्म हेय है तो सम्यग्दृष्टि क्यों करता है। -दे० मिथ्यादृष्टि/४। व्यवहारधर्म निषेधका कारण । व्यवहार धर्म निषेधका प्रयोजन । व्यवहार धर्मके त्यागका उपाय व क्रम । स्वभाव आराधनाके समय व्यवहारधर्म त्याग देना चाहिए।-दे० नय/l/३/६॥ व्यवहारधर्मको उपादेय कहनेका कारण । व्यवहार धर्मका पालन अशुभ वंचनार्थ होता है। -दे० मिथ्याष्टि/४/४। व्यवहार पूर्वक गुणस्थान क्रमसे आरोहण किया जाता है। -धर्मध्यान/६.६। निश्चयधर्म साधुको मुख्य और गृहस्थोंको गौण होता है। -६० अनुभव/५ । व्यवहारधर्म साधुको गौण और गृहस्थको मुख्य होता है। साधु व गृहस्थके व्यवहारधर्ममें अन्तर । -दे० संयम/१/६। साधु व गृहस्थके निश्चयधर्ममें अन्तर । -दे० अनुभव/५ । ७ उपरोक्त नियम चारित्रकी अपेक्षा है श्रद्धाकी अपेक्षा नहीं। निश्चय व व्यवहार परस्पर सापेक्ष ही धर्म हैं निरपेक्ष नहीं। उत्सर्ग व अपवाद मार्गकी परस्पर सापेक्षता। -दे० अपवाद/४। | शान व क्रियानयका समन्वय ।-दे० चेतना/३/८ । धर्म विषयक पुरुषार्थ । -दे० पुरुषार्थ । निश्चय व्यवहारधर्ममें मोक्ष व बन्धका कारणपना निश्चयधर्म साक्षात् मोक्षका कारण है। केवल व्यवहार मोक्षका कारण नहीं। व्यवहारको मोक्षका कारण मानना अज्ञान है। वास्तवमें व्यवहार मोक्षका नहीं संसारका कारण है। व्यवहारधर्म बन्धका कारण है। * याद व्यवहार धर्मकी कथंचित् गौणता व्यवहार धर्म शानी व अज्ञानी दोनोंको सम्भव है। व्यवहाररत जीव परमार्थको नहीं जानते। व्यवहार धर्ममें रुचि करना मिथ्यात्व है। व्यवहार धर्म परमार्थसे अपराध, अग्नि व दुःखस्वरूप * व्यवहार धर्म परमार्थसे मोह व पापरूप है। व्यवहार धर्ममें कथंचित् सावधपना ।-दे० सावध । व्यवहार धर्म अकिचित्कर है। व्यवहार धर्म कथंचित् विरुद्धकार्य (बन्ध ) को करने वाला है। दे० चारित्र/५/५: (धर्म/७)। व्यवहार धर्म कथंचित् हेय है। व्यवहार धर्म बहुत कर लिया अब कोई और मार्ग ढूंढ। व्यवहारको धर्म कहना उपचार है। Kno.6 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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