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________________ धनुषपृष्ठ ४६४ धनुषपृष्ठ-धनुषपृष्ठ निकालनेकी प्रक्रिया-दे० गणित/II/७/३ धन्य-भगवान् महावीरके तीर्थ के १० अनुत्तरोपपादको मेंसे एक-दे० अनुत्तरोपपादक। धन्यकुमार चरित्र-आ. गुणभद्र (ई. ११८२ ) द्वारा रचित ७ परिच्छेदप्रमाण । संस्कृत श्लोकबद्ध एक चरित्र ग्रन्था पोछेसे अनेक कवियों ने इसका भाषामें रूपान्तर किया है । (ती०४/६०) । धम्मरसायण-मुनि पद्मनन्दि (ई०६७७) कृत संसार देह भोग से बिरक्ति विषयक १६३ माथा प्रमाण मुक्तककाव्य । (ता./३/१२१) । धरण-तोलका एक प्रमाण-दे० गणित//१/२। धरणी-१ ध. १३/५.६/सूत्र ४०/२४३ धरणी धरणाट्ठवणा कोट्ठा पदिट्ठा ।४० धरणी, धरणा, स्थापना, कोष्ठा, और प्रतिष्ठा ये एकार्थवाची नाम है। २. पिज पार्वको उत्तर श्रेणोका एक नगर-दे० विद्याधर । धरणोतिलक-भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४। धरणीधर-प. पु./श्लोक) भगवान् ऋषभदेवका युग समाप्त हो जानेपर इक्ष्वाकुवंशमें अयोध्या नगरीका राजा ।५६-६०) तथा अजितनाथ भगवान्के पडबाबा थे।६३॥ धरणावराह-राजा महीपालका अपरनाम-दे० महीपाल धरणेन्द्र-१. एक लोकपाल-दे० लोकपाल । २. (प. पु./३/ ३०७), (ह. पु/२२/५१-५५)। नमि और विनमि जब भगवान ऋषभनाथसे राज्यकी प्रार्थना कर रहे थे तब इसने आकर उनको अपनी दिति व अदिति नामक देवियोंसे विद्याकोष दिलवाकर सन्तुष्ट किया था। ३. (म.पु/७४/श्लोक) अपनी पूर्वपर्यायमें एक सर्प था । महिपाल (दे० कमठके जीवका आठवाँ भव ) द्वारा पचाग्नि तपके लिए जिस लक्कडमे आग लगा रवीथी,उसीमेंयहाबैठा था । भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा बताया जानेपर जब उसने वह लक्कड काटा तो वह घायन होकर मर गया ।१०१-१०३। मरते समय भगवान पार्श्वनाथने उसे जो उपदेश दिया उसके प्रभावसे वह भवनवासी देवोमे धरणेन्द्र हुआ।११८-११६। जब कमठने भगवान पार्श्वनाथपर उपसर्ग किया तो इसने आकर उनकी रक्षा की ।१३६-१४१। धरसेन-आचार्य अहदली के समकालीन,पूर्वषिद, षट्खण्डागम के मुल, पुष्पदन्त तथा भूतबली के गुरु । समय-वी. नि.६५-६३३ (ई० ३८-१०६) (विशेष दे० कोश परिशिष्ट २/१०)। २. पुनाटसंघ की पट्टावलो के अनुसार दीपसेन के शिष्य, मुधर्मसेन के गुरु समय-ई. श. ५ (रे. इतिहास/ब)। धराधर-विजयाध की दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । धर्म-१. (म. पु/१६/श्लोक नं०) पूर्वभव नं. २ में भरतक्षेत्रके कुणालदेशमे श्रावस्ती नगरीका राजा था (७२। पूर्वभव नं०१ में लान्तव स्वर्ग में देव हुआ। और वहाँसे चयकर वर्तमानभवमें तृतीय बलभद्र हुए। --दे० शलाकापुरुष/३ । २ (म.पु./१७/श्लोक नं.) यह एक देव था। कृत्याविद्या द्वारा पाण्डवोंके भस्म किये जानेका षड्यन्त्र जानकर उनके रक्षणार्थ आया था ।१५६-१६। उसने द्रौपदीका त। वहॉसे हरण कर लिया और पाण्डवोंको सरोवरके जलसे मुच्छित कर दिया । कृत्याविद्याके आनेपर भीलका रूप बना पाण्डवो के शरीरोंको मृत बताकर उसे धोकेमें डाल दिया। विद्याने वहाँ से लौटकर क्रोधसे अपने साधकोंको ही मार दिया। अन्त में वह देव पाण्डवों को सचेत करके अपने स्थानपर चला गया ।१६३-२२५॥ धर्म-धर्म नाम स्वभाव का है। जीवका स्वभाव आनन्द है, ऐन्द्रिय सुख नही। अत वह अतीन्द्रिय आनन्द ही जीवका धर्म है, या कारणमें कार्यका उपचार करके, जिस अनुष्ठान विशेषसे उस आनन्दकी प्राप्ति हो उसे भी धर्म कहते हैं । वह दो प्रकार का है-एक बाह्य दूसरा अन्तरंग। बाह्य अनुष्ठान तो पूजा, दान, शील, संयम, व्रत, त्याग आदि करना है और अन्तरंग अनुष्ठान साम्यता व वीतरागभावमें स्थितिकी अधिकाधिक साधना करना है। तहाँ बाह्य अनुष्ठानको व्यवहारधर्म कहते हैं और अन्तरंगको निश्चयधर्म । तहाँ निश्चयधर्म तो साक्षात समता स्वरूप होनेके कारण वास्तविक है और व्यवहार धर्म उसका कारण होनेसे औपचारिक । निश्चयधर्म तो सम्यक्त्व सहित ही होता है. पर व्यवहार धर्म सम्यक्त्व सहित भी होता है और उससे रहित भो।उनमेंसे पहला तो निश्चयधर्म से मिलकुल अस्पष्ट रहता है और दूसरा निश्चयधर्म के अश सहित होता है। पहला कृत्रिम है और दूसरा स्वाभाविक । पहला तो साम्यताके अभिप्रायसे न होकर पुण्य आदिके अभिप्रायोंसे होता है और दूसरा केवल उपयोगको माह्य विषयोंसे रक्षाके लिए होता है। पहले में कुत्रिम उपायोंसे बाह्य विषयों के प्रति अरुचि उत्पन्न कराना इष्ट है और दूसरे में वह अरुचि स्वाभाविक होती है। इसलिए पहला धर्म बाह्यसे भीतरकी ओर जाता है जब कि दूसरा भीतरमे बाहरकी ओर निकलता है। इसलिए पहला तो आनन्द प्राप्तिके प्रति अकिचित्कर रहता है और दूसरा उसका परम्परा साधन होता है, क्योंकि वह साधकको धीरेधीरे भूमिकानुसार साम्यताके प्रति अधिकाधिक झुकाता हुआ अन्तमें परम लक्ष्यके साथ घुल-मिलकर अपनी सत्ता खो देता है। पहला व्यवहार धर्म भी कदाचित् निश्चयधर्मरूप साम्यताका साधक हो सकता है, परन्तु तभी जब कि अन्य सत्र प्रयोजनोंको छोड़कर मात्र साम्यताकी प्राप्ति के लिए किया जाये तो। निश्चय सापेक्ष व्यवहारधर्म भी साधककी भूमिकानुसार दो प्रकारका होता है-एक सागार दूसरा अनगार। सागारधर्म गृहस्थ या श्रावकके लिए है और अनगारधर्म साधुके लिए। पहलेमें विकल्प अधिक होनेके कारण निश्चयका अंश अत्यन्त अस्प होता है और दूसरेमे साम्यताकी वृद्धि हो जानेके कारण वह अश अधिक होता है। अत: पहलेमें निश्चय धर्म अप्रधान और दूसरेमे वह प्रधान होता है। निश्चयधर्म अथवा निश्चयसापेक्ष व्यवहार धर्म दोनोंमें ही यथायोग्य क्षमा, मार्दव आदि दस लक्षण प्रकट होते है, जिसके कारण कि धर्मको दसलक्षण धर्म अथवा दश विध धर्म कह दिया जाता है। धमके भेद व लक्षण संसारसे रक्षा करे या स्वभावमें धारण करे सो धर्म । धर्मका लक्षण अहिसा व दया आदि। स्वभाव गुण आदिके अर्थमें धर्म-दे० स्वभाव/१। धर्मका लक्षण उत्तमक्षमादि। -दे० धर्म/८ । धर्मका लक्षण रत्नत्रय । भेदाभेद रत्नत्रय -दे० मोक्षमार्ग। व्यवहार धर्मके लक्षण। व्यवहार धर्म व शुभोपयोग।-दे० उपयोग/II/४ | व्यवहार धर्म व पुण्य ।-दे० पुण्य । निश्चय धर्मका लक्षण। १. साम्यता व मोक्षक्षोभ विहीन परिणाम । २. शुद्धात्मपरिणति। निश्चयधर्म के अपरनाम धर्मके भेद । -दे० मोक्षमार्ग/२/11 धर्मके भेद । सागार व अनगार धर्म । -दे० वह-वह नाम । * जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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