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________________ देव ४४८ II देव (गति) सनत्कुमार और माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं। तथा उपशम श्रेणीपर चढ़ करके और पुन' उतर करके मध्य शुक्ल लेश्यासे परिणत होते हुए यदि मरण करते है तो उपशम सम्यक्त्व के साथ आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नौ ग्रेवेयक विमानवासी देवोमे उत्पन्न होते हैं। तथा पूर्वोक्त उपशम सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्कृष्ट शुक्ल लेश्याको परिणत होकर यदि मरण करते है, तो उपशम सम्यक्त्वके साथ नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। इस कारण सौधर्म स्वर्गसे लेकर ऊपरके सभी असंयतसम्यग्दृष्टि देवोके अपर्याप्त कालमें औपशमिक सम्यक्त्व पाया जाता है (स.सि./१/७/२३/७) । अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोके पर्याप्त कालमें औपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। ५. फिर इन अनुदिशादि विमानों में उपशम सम्यक्त्वका निर्देश क्यों ध.१/१,१.१७१/४०७/७ कथं तत्रोपशमसम्यक्त्वस्य सत्त्वमिति चेत्कथ च तत्र तस्यासत्त्वं । तत्रोत्पन्नेभ्यः क्षायिकक्षायोपशमिक्सम्यग्दर्शनेभ्यस्तदनुत्पत्ते. । नापि मिथ्यादृष्टय उपात्तीपशमिकसम्यग्दर्शनाः सन्तस्तत्रोत्पद्यन्ते तेषां तेन सह मरणाभावात् । न, उपशम ण्यारूढानामारुह्यतीर्णानां च तत्रोत्पत्तितस्तत्र तत्सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्नअनुदिश और अनुत्तर विमानोमें उपशम सम्यग्दर्शन सद्भाव कैसे पाया जाता है । प्रतिशंका-वहाँपर उसका सद्भाव कैसे नहीं पाया जा सकता है। उत्तर-वहाँपर जो उत्पन्न होते है उनके क्षायिक, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन पाया जाता है, इसलिए उनके उपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यग्दर्शनको ग्रहण करके वहॉपर उत्पन्न नही होते है, क्योंकि उपशम सम्यग्दृष्टियोंका उपशम सम्यक्त्वके साथ मरण नहीं होता। उत्तर-नहीं, क्योकि उपशम श्रेणी चढनेवाले और चढ़कर उतरनेवाले जोवों को अनुदिश और अनुत्तरोंमें उत्पत्ति होती है, इसलिए वहॉपर उपशम सम्यक्त्वके सद्भाव रहनेमे कोई विरोध नहीं आता है। दे०-मरण/३ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें मरण सम्भव है परन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्वमे मरण नहीं होता है । ४. अनुदिशादि विमानोंमें पर्याप्तावस्थामें भी उपशम सम्यक्त्व क्यों नहीं ध.२/१,१/५६६/१ केण कारणेण (अनुदिशादिसु) उवसमसम्मत्तं णस्थि । बुच्चदे-तत्य ट्ठिदा देवा ण ताव उवसमसम्मत्तं पडिबज्जति तत्थ मिच्छाइट्ठीणमभावादो। भवदु णाम मिच्छाइट्ठीणमभावो उवसमसम्मत्त पि तत्थ ठ्ठिदा देवा पडिवज्जति को तत्थ विरोधो। इदि ण 'अणंतर पच्छदो य मिच्छत्तं' इदि अणेण पाहूडसुत्तेण सह बिरोहादो। ण तत्थ ठ्ठिद-वेदगसम्माइट्ठिणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जंति मणुसगदि-बदिस्तिण्णगदीसु वेदगसम्माइट्टिजीवाणं दसण मोहुबसमणहेदु परिणामाभावादो। ण य वेदगसम्माइट्टित्तं पडि मणुस्से हितो विसेसाभावादो मणुस्साणं च दंसणमोहुवसमणजोगपरिणामेहि तत्थ णियमेण होदव्वं मणुस्स-संजम-उवसमसेढिसमारूहणजोगत्तणेहि भेदद सगादो। उवसम-से ढिम्हि कालं काऊणुवसमसम्मत्तेण सह देवेसुप्पण्णजीवा ण उवसमसम्मत्तेण सह छ पज्जत्तीओ समाणेति तत्थ तणुवसमसम्मत्तकालोदो छ-पज्जत्तीणं समाणकालस्स बहुत्त बलं भादो। तम्हा पज्जत्तकाले ण एदेसु देवेसु उवसमसम्मत्तमथि त्ति सिद्ध। प्रश्न-नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोके पर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व क्सि कारणसे नहीं होता। उत्तर-वहॉपर विद्यमान देव तो उपशम सम्यवत्वको प्राप्त होते नही है, क्योंकि वहाँपर मिथ्यादृष्टि जीवोका अभाव है। प्रश्न- भले ही वहाँ मिथ्यादृष्टि जीवोका अभाव रहा आवे, किन्तु यदि वहाँ रहनेवाले देव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त करे तो, इसमें क्या बिरोध है । उत्तर-१. 'अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पश्चात मिथ्यात्वका उदय नियमसे होता है परन्तु सादि मिथ्यादृष्टिके भाज्य है' इस कषायप्राभृतके गाथासूत्रके साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। २. यदि कहा जाये कि वहाँ रहनेवाले वेदक सम्यग्दृष्टि देव औपशमिक सम्यक्त्वको प्राप्त होते है, सो भी बात नहीं है, क्योकि मनुष्यतिके सिवाय अन्य तीन गतियों में रहनेवाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के दर्शनमोहनीयके उपशमन करनेके कारणभूत परिणामोका अभाव है। ३. यदि कहा जाये कि वेदक सम्यग्दृष्टिके प्रति मनुष्योसे अनुदिशादि विमानवासी देवों के कोई विशेषता नहीं है, अतएव जो दर्शनमोहनीयके उषशमन योग्य परिणाम मनुष्योके पाये जाते है वे अनुदिशादि विमानवासी देवोके नियमसे होना चाहिए, सो भी कहना युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि संयमको धारण करनेकी तथा उपशम श्रेणीके समारोहण आदिकी योग्यता मनुष्योमें होनेके कारण दोनोमें भेद देखा जाता है। ४. तथा उपशमश्रेणीमे मरण करके औपशमिक सम्यक्त्वके साथ देवोंमे उत्पन्न होनेवाले जीव औपशमिक सम्यक्त्वके साथ छह पर्याप्तियों को समाप्त नहीं कर पाते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त अवस्थामे होनेवाले औपशमिक सम्यक्रवके कालसे छहो पर्याप्तियों के समाप्त होनेका काल अधिक पाया जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि ६. भवनवासी देव देवियों व कल्पवासी देवियों में सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं उत्पन्न होते ध.१११,१,६७/३३६/५ भवतु सम्यग्मिथ्यादृष्टेरतत्रानुत्पतिस्तस्य तद्गुणेन मरणाभावात् किन्तवेतन्न घटते यदसंयतसम्यग्दृष्टिमरणास्तत्र नोत्पद्यत इति न, जघन्येषु तस्योत्पत्तरभावात् । नारकेषु तिर्यक्षु च कनिष्ठेत्पद्यमानास्तत्र तेभ्योऽधिकेषु किमिति नोत्पद्यन्त इति चेन्न, मिथ्यादृष्टीना प्राग्बद्वायुष्काणां पश्चादात्तसम्यग्दर्शनानां नारकाा त्पत्तिप्रतिबन्धन प्रति सम्यग्दर्शनस्यासामर्थ्यात् । तद्व वेष्वपि किन्न स्यादिति चेत्सत्यमिष्टत्वात् । तथा च भवनवास्यादिष्वप्यसयतसम्यग्दृष्टेरुत्पत्तिरास्कन्देदिति चेन्न. सम्यग्दर्श नस्य बद्धायुषी प्राणिनां तत्तद्गत्यायु सामान्येनाविरोधिनस्तत्तद्गतिविशेषोत्पत्तिविरोधित्वोपलम्भात् । तथा च भवनवासिव्यन्तरज्योतिष्कप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिक...उत्पत्त्या विरोधो असंयतसम्यग्दृष्टे: सिद्धयेदिति तत्र ते नोत्पद्यन्ते ।प्रश्न-सम्यमिथ्यादृष्टि जीवकी उक्त देव देवियोमें उत्पत्ति मत होओ, क्योकि इस गुणस्थानमें मरण नहीं होता है। परन्तु यह बात नहीं घटती कि मरनेवाल। असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उक्त देव-देवियोमे उत्पन्न नहीं होता है। उत्तर-महीं क्यों कि सम्यग्दृष्टि की जघन्य देवों में उत्पत्ति नहीं होती। प्रश्न-जघन्य अवस्थाको प्राप्त नारकियोमें और तिर्यचोमें उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव उनसे उत्कृष्ट अवस्थाको प्राप्त भवनवासी देव और देवियोमे तथा कल्पवासिनी देवियों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं। उत्तर-नही. क्योंकि, जो आयुकर्मका अन्ध करते समय मिथ्यादृष्टि थे और जिन्होने अनन्तर सम्यग्दर्शनको ग्रहण किया है, ऐसे जीवोंकी नरकादि गतिमें उत्पत्तिके रोकनेका सामर्थ्य सम्यग्दर्शनमे नहीं है। प्रश्नसम्यग्दृष्टि जीवोकी जिस प्रकार नरकगति आदिमें उत्पत्ति होती है उसी प्रकार देवोंमें क्यो नही होती है। उत्तर-यह कहना ठीक है, क्योकि यह बात इष्ट ही है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो भवनवासी आदि में भी असयत सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति प्राप्त हो जायेगी ? उत्तर--नहीं, क्यो कि, जिन्होंने पहले आयु कर्मका बन्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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