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________________ दृष्टिविष रस ऋद्धि /८ । दृष्टिविष रस ऋद्धि-ि दृष्टि शक्ति ससा / आ./ परि/शक्ति नं. ३ अनाकारोपयोगमयी दृष्टिशक्तिः । यह तोसरो दर्शन क्रिया रूप शक्ति है । कैसी है जिसमें क्षेत्र रूप आकारका विशेष नहीं है ऐसे दर्शनोपयोगमयी (सत्तामात्र पदार्थ से उपयुक्त होने स्वरूप) है। देय - गणितकी विरलन देय विधि- दे० गणित /II/१/६ । देयक्रम --- (क्ष. सा. / भाषा/४७६/५६६/१) अपकर्षण की या द्रव्यको जैसे दीया तैसे जो अनुक्रम सो देयक्रम है । देयद्रव्य जो द्रव्यनिषेो न कृष्टियों आदिमें जोड़ा जाता है उसे देय द्रव्य कहते है । देव श्रुतावतारको पट्टावली के अनुसार आप भद्रबाहु प्रथम (श्रुत केवली) के पश्चाद दसवे ११ अंग व १० पूर्वके धारी हुए आपका अपर नाम गंगदेव था । समय- वी. नि. / ३१५३२६ ( ई. पू. २११ - १६७ ) - दे० इतिहास / ४/४ सिद्ध के देव - देव शब्दका प्रयोग बोतरागी भगवान् अर्थात् अहं लिए तथा देव गति ससारी जीवोंके लिए होता है । अत कथन के प्रसंगको देखकर देव शब्दका अर्थ करना चाहिए। इनके अतिरिक्त पंच परमेष्ठी, चैत्य, चैत्यालय, शास्त्र तथा तीर्थक्षेत्र ये नौ देवता माने गये है।' देवगति देन चार प्रकारके होते हैं-भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिषी व स्वर्गवासी । इन सभीके इन्द्र सामानिक आदि दश श्रेणियाँ होती हैं देवोंके चारों भेदोंका कथन तो उन उनके नाम के अन्तर्गत किया गया है, यहाँ तो देव सामान्य तथा उनके सामान्य भेदका परिचय दिया जाता है। 1 देव (भगवान्) देव निर्देश 9 १ २ ३ ४ आचार्य, उपाध्याय साधु भी कथंचित् देवत्व । आनार्यादि देवत्वं सम्बन्धी शंका समाधान । ५ अन्य सम्बन्धित विषय सिद्ध भगवान् अर्हन्त भगवान् २ देवका लक्षण । देवके भेदोका निर्देश 1 नव देवता निर्देश | देव बाहरमें नहीं मनमें हैं सुदेव श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान - दे० प्रतिमामें भी कथंचिद् देवत्व 11 | देव (गति) 9 भेद व लक्षण १ देवका लक्षण | २ * ३ ४ देवोंके भवनवासी आदि चार भेद । व्यन्तर आदि देव विशेष आकाशोपपन्न देवोंके भेद । पर्याप्तापर्यातकी अपेक्षा भेद । Jain Education International सम्यग्दर्शन / II / १ - ३० पूजा/३। ૪૪ - दे० मोक्ष | - दे० अहंत । - दे० पूजा / ३ । - दे० १० वह वह नाम । २ १ * देनोंके सर्व भेद नामकर्म कृत २ * देव निर्देश देवोंमें इन्द्रसामानिकादि २० विभाग। इन्द्र सामानिकादि विशेष भेद - दे० वह वह नाम । --०नामकर्म ३ * ५ देवोंका दिव्य आहार ६. देवोंक रोग नहीं होता। ९ कन्दर्पादि देव नीच देव हैं देवोंका दिव्य जन्म (उपपाद शय्यापर होता है) -दे० जन्म / २ । सभी देव नियमसे जिनेन्द्र पूजन करते हैं। देवोके शरीरकी दिव्यता ३ देव गतिमें सुख व दु.ख निर्देश 1 देवविशेष, उनके इन्द्र, वैभव व क्षेत्रादि - दे० वह वह नाम देवोंके गमनागमनमें उनके शरीर सम्बन्धी नियम मारणांतिक समुच्चातगत देवोके मूल शरीरमें प्रवेश करके या बिना किये ही मरण सम्बन्धी दो मत -दे० मरण /५/५ मरण समय अशुभ तीन दयाओंगे या केवल कापोत या पतन सम्बन्धी दो मत - दे०मरण /३० होनेका नियम भाव मार्गणा आयके अनुसार व्यय - दे० मार्गणा । ऊपर-ऊपर के स्वगमें सुख अधिक और विषय सामग्री हीन होती जाती है। १० ऊपर-ऊपर के स्वगमें मविचार भी होन-दोन होता है, और उसमें उनका वीर्यं क्षरण नही होता । देव देवायु व देवगति नामकर्म देवायु के बन्ध योग्य परिणाम देवायुकी बन्ध, उदय, सत्त्वादि बायुष्कोको देवायुबन्धमें ही प्रत होने सम्भव हैं - दे० वह वह नाम । - दे० आयु / ६/७ । सत्त्वादि प्ररूपणाएँ -२०/३। प्ररूपणाएँ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only देवगतिकी मन्ध, उदय, - दे० वह वह नाम । देवगतिमै उद्योत कर्मका अभाव-३०/५ सम्यक्त्वादि सम्बन्धी निर्देश व शंका समाधान देवगतिके गुणस्थान, जीवसमास, मार्गेणास्थानके स्वामित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ ३० सत् देवगति सम्बन्धी सद ( अस्तिल) संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ - दे० वह वह नाम । कौन देव मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे- दे० जन्म / ६ । www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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