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________________ दृष्टिभेद नं. दृष्टि नं० १ मिश्रगुणस्थान मे तीर्थ करका सत्व नही ५२ प्रकृतियोंषी सच हवे गुणस्थान में पहले ८ कषायोंकी व्यु च्छित्ति होती है पीछे १६ प्रकृ० की उपान्त समय में ७२ की चरम समयमें १३ की दो मत है। ५४ १४ वे गुणस्थान में नामकर्मकी प्रकृ०की सत्त्वव्युत ५५ उत्कर्षण विधान में उत्कृष्ट निषेक सम्बन्धी अनिवृत्तिकरण ८ वर्षों को छोड़कर सम्यक्त्व प्रकृतिको | शेष सर्व स्थिति क्षपणा सवका ग्रहण ५७ १५८ ५६ ६० ६१ विषय ६३ महामरस्यका शरीरमुख और छपर अतिसूक्ष्म दुखमाकालके Ec अवगाहना मरण ६४) मारणान्तिक समु० गत महामरस्यका जन्म Jain Education International दृष्टि नं० २ पहले १६० की व्युच्छित्ति होती है पीछे ८ ययोंकी उपान्त समय में ७३ चरम समय में १२ सीता व सोतोदा नदीके दोनो किनारों पर पाँच द्रह है, कुल २० द्रह हैं प्रत्येक द्रहके दोनों तरफ ५.५ कांचन गिरि है, कुल १०० है दे० सत्त्व संख्यात हजार क्षय /२/७ वर्षोंको छोडकर शेष सर्व स्थिति सत्त्वका ग्रहण पटित नहीं संन होता (३२ हाथ होती है काल आदि हाथ होती है जिस गुणस्थानमें नियम नहीं है मरण/३ बायुबंधी है उसी में मरण होता है। सासादन में मरण नहीं होता है कृतकृत्य वेदक जोव करता है मरण नहीं करता जघन्य आयुवाले होता है जीवोंका मरण नहीं होता निगोद व नरक दो जगह सम्भव है ६ ोिका अन्त वातवलयोंके अंत भीतर-भीतर ६६ वातवलयों का क्रम होता है घनोदधि घन व तनु ६७ देव व उतर कुरुमें स्थित ग्रह व कांचन गिरि मरण समय सभी केवल कापोत मरण/३ देव अशुभ तीन सेश्यामें आते है लेश्याओंमे आ जाते हैं द्वितोयोपशम से प्राप्त होता है ४४२ C घटित नहीं मरण / होता を वियंच ३/३ ही रहत है घन घनोदधि | लोक / तनु २/४ सीताव सोतोदा लोक/ नदोके मध्य ३/१ पाँच द्रह हैं ऐसे १० द्रह है. प्रत्येक के दोनों तरफ १०-१० कांचन गिरि है कुल १०० हैं नं० विषय ६६ सजग समुद्र में देवों की नगरियाँ ७० नंदीश्वर द्वीपस्थ रतिर पर्वत ७१ नंदीश्वर द्वीपकी विदिशाओं में स्थित ਕਾਂਗਰ ਕੀਰ ७२ कुण्डलवर द्वीपस्थ चार हैं जिनेन्द्र कूट ७३ कुमानुष द्वीपोंकी स्थिति ७४ पाण्डुशिलाका विस्तार ७५ सौमनस वन में स्थित बलभद्र नामा कूट ७६जतका विस्तार ७७ लवण समुद्रका विस्तार ७८) शुक्ल व कृष्ण पक्ष में लवण समुश्की वृद्धि-हानि ८२ केवली समुद्धात ८३ ७६ गंगा नदीका | मुख पर २५ यो० है विस्तार चक्रवर्ती रत्नोंको आयुधशालादिमें उत्पत्ति उत्पन्न होते हैं पहले भोजपा अर्थ जानते है फिर उसका विस्तार जानते हैं बोज बुद्धि ऋद्धि ८६ ८७ इति नं० १ आकाश भी है और सागर के दोनों किनारोंपर पृथ्वी पर भी प्रत्येक दिशामें आठ १६ रतिकर है लोक रतिकर हैं ४/५ है नहीं है 17 जम्बू द्वीपकी वेदिका से इनका अन्तराल बताया जाता है ६ माह आयु दोष रहनेपर समुखात होता है ८४) स्पर्शादि गुणोंके परस्पर संयोगसे अनेक भंग भंग बन जाते हैं वीर निर्वाण पश्चात ४६१ वर्ष पश्चात राजा शककी उत्पत्ति कषाय पाहुड़ ग्रन्थ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only १००x१००४५० यो० सर्वत्र ५०० योजन दृष्टि नं० २ पृथ्वीपर नग रियों नहीं है १००×५०x८ यो० ५००x२५०x४ योजन है १०००x१००x | ५०० योजन नेरुके पास ५०० और कुलधरके पास २५० यो० पृथ्वीसे ७०० यो० ११०० ऊँचे ऊँचे २०० कोश बढ़ता ५००० है बढता है सभी केवलियोंको होता है दृष्टिभेव आठ हैं विभिन्न प्रकार से बनाया जाता है ६७८५ पश्चात् ६० वर्ष यो० ६४ यो० है कोई नियम नहीं है दोनों एक साथ जानते हैं दे० टोक 跳 लोक / ४/६ लोक / ४/१ लोक / ३/७ यो० लोक लोक / ३/६ लोक / ३/ लोक / ४/१ लोक/ ६/७ शलाका पुरुष फडि २/२ किसी-किसी को केवली होता है अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर भी हो जाता है नहीं बँधते हैं १४०१३ वर्ष पश्चात वर्ष ७६६५ पश्चात् १८० गाथाएँ नाग- कुल ग्रन्थ गुण- कषाय हस्ती आचार्यने धर आचार्यने पाहुड़ रची रचा है ८६ सुग्रीव का भाई बाली दीक्षा धारण कर लक्ष्मण के हाथ से बाली ली मारा गया 19/8 केवली ४/६ घ./पु. १३/२५ वर्ष इतिहास /२/६ :: www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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