SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दान ४२२ १. दान सामान्य निर्देश मन्दिरमें घंटी, चमर आदिके दानका महत्त्व व फल । -दे० पूजा/४/२। दानके प्रकृष्ट फलका कारण। विधि, द्रव्य, दात, पात्रादि निर्देश भक्ति पूर्वक ही पात्रको दान देना चाहिए । -दे० आहार/II/१ | दानकी विधि अर्थात् नवधा भक्ति। -दे० भक्ति/६। दान योग्य द्रव्य। साधुको दान देने योग्य दातार। -दे० आहार/II/५। दान योग्य पात्र कुपात्र आदि निर्देश। -दे० पात्र । दानके लिए पात्रकी परीक्षाका विधि निषेध । -दे० विनय/५। दान प्रति उपकारकी भावनासे निरपेक्ष देना चाहिए। गाय आदिका दान योग्य नही। मिथ्यादृष्टिको दान देनेका निषेध । कुपात्र व अपात्र को करुणा बुद्धिसे दान दिया जाता है। दुखित भुखितको भी करुणा वुद्धिसे दान दिया जाता है। ग्रहण व संक्रान्ति आदिके कारण दान देना योग्य नही। आहार, औषधके तथा ज्ञानके साधन शास्त्रादिक उपकरण और स्थानके (वस्तिकाके ) दानसे चार प्रकारका वैयावृत्य कहते है ।११७॥ (ज.प./२/१४८) (वसु श्रा./२३३) (पं.वि./२/५०) स.सि /६/२४/३३८/११ त्यागो दानम् । तस्त्रिविधम्-आहारदानम भयदानं ज्ञानदानं चेति। त्याग दान है। वह तीन प्रकारका है-आहारदान, अभयदान और ज्ञानदान । म.पु./३८/३५... चतुर्धा वर्णिता दत्तिः दयापात्रसमान्वये ।३५॥ दया दप्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वय दत्ति ये चार प्रकारकी दत्ति कहो गयी है। (चा.सा./४३/६) सा.ध./२/४७ में उद्धृत-तीन प्रकारका दान कहा गया है--सात्त्विक, राजस और तामस दान । ३. औषधालय सदावत आदि खुलवानेका विधान सा.ध./२/४० सत्रमप्यनुकम्प्यानां, सृजेदनुजिघृक्षया । चिकित्साशालबद्दुष्येन्नेज्जायै वाटिकाद्यपि।४० - पाक्षिक श्रावक, औषधालयकी तरह दुखी प्राणियोके उपकारकी चाहसे अन्न और जल वितरणके स्थानको भी बनवाये और जिनपूजाके लिए पुष्पवाटिकाएँ बावडी व सरोवर आदि बनवानेमें भी हर्ज नहीं है। १. दया दत्ति आदिके लक्षण म.पु /३८/३६-४१ सानुकम्पमनुग्राह्ये प्राणिवृन्देऽभयप्रदा। त्रिशुद्धयनुगता सेयं दयादत्तिर्मता बुधैः ।३६। महातपोधनाचार्याप्रतिग्रहपुर सरम् । प्रदानमशनादीनां पात्रदानं तदिष्यते ॥३७ समानायात्मनात्यस्मै क्रियामन्त्रवतादिभिः। निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ।३८॥ समानदत्तिरेषा स्यात् पात्रे मध्यमतायिते। समानप्रतिपत्त्यैव प्रवृत्ता श्रद्धयान्विता ॥३६॥ आत्मान्वयप्रतिष्ठाथ सूनवे यदशेषतः । स्म समयवित्ताभ्यां स्ववर्गस्यातिसर्जनम् ।४०। सैषा सकलदत्तिः...॥४१॥ सअनुग्रह करने योग्य प्राणियोंके समूह पर दयापूर्वक मन, वचन, कायकी शुद्धिके साथ उनके भय दूर करनेको पण्डित लोग दयादत्ति मानते हैं ।३६। महा तपस्वी मुनियों के लिए सत्कार पूर्वक पड़गाह कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्र दत्ति कहते है ।३७। क्रिया, मन्त्र और व्रत आदिसे जो अपने समान है तथा जो संसार समुद्रसे पार कर देने वाला कोई अन्य उत्तम गृहस्थ है उसके लिए ( कन्या, हस्ति, घोडा, रथ, रत्न (चा. सा.) पृथिवी सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्रके लिए समान बुद्धिसे श्रद्धाके साथ जो दान दिया जाता है वह समान दत्ति कहलाता है १३८-३४: अपने वंशकी प्रतिष्ठाके लिए पुत्रको समस्त कुल पद्धति तथा धनके साथ अपना कुटुम्ब समर्पण करनेको सकल दत्ति (वा अन्वयदत्ति) कहते हैं ।४०। (चा.सा./४३/६); (सा.प./७/२७-२८) वसु.श्रा./२३४-२३८ असणं पाणं खाइयं साइयमिदि चउविहो वराहारो। पुन्बुत्त-णव-विहाणेहि तिविहपत्तस्स दायव्यो ।२३४) अइबुड्ढ-बालमूयंध-बहिर-देसतरीय-रोडाणं । जह जोगं दायव्य करुणादाणं त्ति भणिऊण ।२३॥ उववास-वाहि-परिसम-किलेस-परिपीडयं मुणेऊण । पत्थं सरीरजोग्गं भेसजदाणं पि दायव्यं ।२३६। आगम-सस्थाई लिहाविऊण दिज्जंति ज जहाजोग्गं । तं जाण सत्थदाणं जिणवयणज्मावणं च तहा ।२३७५ जं कीरइ परिरक्खा णिच्चं मरण-भयभीरुजीवाणं । तं जाण अभयदाणं सिहामणि सव्वदाणाणं ॥२३८। -अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ये चार प्रकारका श्रेष्ठ आहार पूर्वोक्त नवधा भक्तिसे तीन प्रकारके पात्रको देना चाहिए ।२३४। अति, बालक, मूक (गूगा), अन्ध, बधिर (बहिरा ), देशान्तरीय ( परदेशी) और रोगो दरिद्री जीवोको 'करुणादान दे रहा हूँ' ऐसा कहकर अर्थात समझकर यथायोग्य आहार आदि देना चाहिए ।२३॥ उपवास, व्याधि, परिश्रम और क्लेशसे परिपीड़ित ६। दानार्थ धन संग्रहका विधि निषेध | दानके लिए धनकी इच्छा अशान है। | दान देनेकी बजाय धनका ग्रहण ही न करे। | दानार्थ धन संग्रहको कथंचित् इष्टता । आयका वर्गीकरण। १. दान सामान्य निर्देश १. दान सामान्यका लक्षण त.स./७/३८ अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥३८स्वपरोपकारोऽनुग्रह' (स.सि /9/३८)। -स्वयं अपना और दूसरेके उपकारके लिए अपनी वस्तुका त्याग करना दान है। स.सि./६/१२/३३०/१४ परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसजनं दानम् । दुसरे का उपकार हो इस बुद्धिसे अपनी वस्तुका अर्पण करना दान है । (रा. वा-/६/१२/४/५२२) ध.१३/५,५.१३०/३८६/१२ रत्नत्रयवद्भ्य' स्ववित्तपरित्यागो दानं रत्न त्रयसाधनादित्सा वा। -रत्नत्रयसे युक्त जीवोके लिए अपने वित्तका त्याग करने या रत्नत्रयके योग्य साधनों के प्रदान करनेकी इच्छाका नाम दान है। २. दानके भेद र.क श्रा/मु./११७ आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन वैयावृत्यं व बते चतुरात्मत्वेन चतुरस्रा. ११७ - चार ज्ञानके धारक गणधर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy