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________________ तिर्यंचायु तीर्थकर तीणकर्ण-भरत क्षेत्रके उत्तर आर्य खण्डका एक देश।-दे० मनुष्य/४ तीर्थकर-महापरिनिर्वाण सुत्र, महावग्ग दिव्यावदान आदि मौर ग्रन्थों के अनुसार महात्मा बुद्धके समकालीन छह तीर्थकर थे१. भगवान महावीर; २. महात्मा बुद्ध; ३. मस्करीगोशालः ४. पूरन कश्यप..। तीर्थकर-संसार सागरको स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार करानेवाले महापुरुष तीर्थकर कहलाते हैं । प्रत्येक कलपमें वे २४ होते हैं। उनके गर्भावतरण. जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञानोत्पत्ति व निर्वाण इन पांच अवसरोंपर महान् उत्सव होते हैं जिन्हे पंच कल्याणक कहते हैं। तीर्थंकर बननेके संस्कार षोडशकारण रूप अत्यन्त विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थ कर प्रकृतिका बँधना कहते हैं । ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भक्में और वहाँ भी किसी तीर्थकर वा केवलौके पादमूलमें ही होने सम्भव हैं। ऐसे व्यक्ति प्रायः देवगतिमें ही जाते हैं। फिर भी यदि पहलेसे नरकायुका बंध हुआ हो और पीछे तीर्थकर प्रकृति बंधे तो वह जीव केवल तीसरे नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, उससे अनन्तर भवमें वे अवश्य मुक्तिको प्राप्त करते है। घ.4/ १६,२०/४२६/१० णत्थि मच्छा वा मगरा का ति जेण तस- जीवपडिसेहो भोगभूमिपडिभागिएमु समुह सु कदो, तेण तस्थ पढमसम्मत्तस्स उपपत्ती ण जुज्नुत्ति त्ति । ण एस दोसो, पृथ्ववइरियदेवेहि खित्तपंचिदियतिरिक्रवाणं तत्थ संभवादो। -प्रश्न-चंकि 'भोगभूमिके प्रतिभागी समुद्रोंमें मत्स्य या मगर नहीं हैं। ऐसा वहाँ उस जीवीका प्रतिषेध किया गया है, इसलिए उन समुद्रो में प्रथम सम्यक्षकी उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के द्वारा उन समुद्रोमें डाले गये पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंकी सम्भावना है। 'त्रि.सा./३२० जलयरजीवा लवणे कालेयंतिमसयभुश्मणे य । कम्ममही पडिबद्ध ण हि सेसे जलयरा जीवा १३२०॥ -जलचर जीव लक्षण समुद्रपिच बहुरि कालोदक विर्षे बहुरि अन्तका स्वयम्भूरमण विर्षे पाइये है। जाते ये तीन समुद्र कर्मभूमि सम्बन्धी है। बहुरि अवशेष सर्व समुद्र भोगभूमि सम्बन्धी है। भोगभूमि विर्षे जलचर जीवोंका अभाव है। तातै इन तीन बिना अन्य समुद्र विषै जलचर जीव नाही। ७. वैरी जीवोंके कारण विकलनय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं ध.४/१, ४, ५६/२४३/- सेसपदेहि वइरिसंबंधेण विगलिदिया सव्वस्थ तिरियपदरभंतरे होति त्ति। =वैरी जीवों के सम्बन्धसे विकलेन्द्रिय जीव सर्वत्र तिर्यक्प्रतरके भीतर ही होते हैं। घ.७/२, ७, ६२/३६७/४ अधवा पुबवेरियदेवपओगेण भोगभूमि पडिभागदीव-समुद्दे पदिदतिरिखकलेबरेसु तस अपज्जत्ताणमुप्पत्ती अस्थि त्ति भणं ताणमहिप्पारण। -[विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका अवस्थान क्षेत्र स्वयंप्रभपर्वतके परभागमें ही है क्योंकि भोगभूमि प्रतिभागमें उनकी उत्पत्ति का अभाव है ] अथवा पूर्व वैरीके प्रयोगसे भोगभूमि प्रतिभागरूप द्वीप समुद्रोंमें पड़े हुए तिर्यंच शरीरोंमें त्रस अपर्याप्तोंकी उत्पत्ति होती है ऐसा कहनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे...। तिथंचायु-दे० आयु । तिर्यचिनी-दे० वेद/३। चतुरस्त्र-Cuband (ज. प /प्र.१०६ ) तिर्यक क्रम-दे० क्रम/१। तिर्यक गच्छ-गुण हानियों का प्रमाण । विशेष -दे० गणित/ Ily तिर्यक् प्रचय-दे० क्रम/१। राजू (ध. १३/५, १, ११६/३७३/१०) तिर्यक लोक-दे० तिर्यंच/३। तिल-एक ग्रह ! -दे० 'ग्रह। तिलक-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर। -दे० विद्याधर । तिलपुच्छ-एक ग्रह। -दे० 'ग्रह' । तिल्लोय पण्णत्ति-आ० यतिवृषभ ( ई० १७६ ) द्वारा रचित लोकके स्वरूपका प्रतिपादक प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। उसमें । अधिकार और लगभग १००० गाथाएँ हैं । (जै./२/३६,४०) । तीन-तीनकी संख्या कृति कहलाती है। -दे० कृति । तीन चौबीसी व्रत-प्रतिवर्ष तीन वर्ष तक भाद्रपद कृ० ३ को उपवास करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य। (बतविधान सं./पृ०८६) किशनसिह क्रियाकोष । तीर्थकर निर्देश तीर्थ करका लक्षण। तीर्थकर माताका दूध नहीं पीते। गृहस्थावस्थामें अवधिज्ञान होता है पर उसका प्रयोग । नहीं करते। ४ | तीर्थ करोंके पॉच कल्याणक होते है। तीर्थकरके जन्मपर रत्नवृष्टि आदि अतिशय । -दे० कल्याणक। ५ | कदाचित् तीन व दो कल्याणक भी संभव है अर्थात् तीर्थकर प्रकृतिका बंध करके उसी भवसे मुक्त हो सकता है ? ६ तीर्थ करोंके शरीरकी विशेषताएँ। केवलशानके पश्चात् शरीर ५००० धनुष ऊपर चला जाता है। -दे० केक्ली । तीर्थकरोंका शरीर मृत्युके पश्चात कपूरवत् उड़ जाता है। -दे० मोक्षा। हुडावसर्पिणीमें तीर्थंकरोंपर कदाचित् उपसर्ग मी होता है। तीर्थ कर एक कालमें एक क्षेत्रमें एक ही होता है। उत्कृष्ट १७० व जघन्य २० होते है। -दे० विदेह/१ । * दो तीर्थ करोंका परस्पर मिलाप सम्भव नहीं है। -दे० शलाका पुरुष/१ । दतीसरे कालमे भी तीर्थ करकी उत्पत्ति सम्भव है। * | तीर्थ कर दीक्षित होकर सामायिक संयम ही ग्रहण करते है। -दे० छेदोपस्थापना/५॥ प्रथम व अन्तिम तीर्थोंमें छेदोपस्थापना चारित्रकी प्रधानता। -दे० छेदोपस्थापना। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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