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________________ तप ४. तपके कारण व प्रयोजनादि ३. संयम बिना तप निरर्थक है शी.पा./मू./५ संजमहीणो य तबो जइ बरइ णिरत्ययं सव्वं । बहुरि संयमरहित तप होय सो निरर्थक है। एसें ए आचरण करें तो सर्व निरर्थक है (मू.पा./७७०) । मू.आ./९४० सम्मदिहिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि । होदि हु हथिण्हाणं चुदच्छिदकम्म तं तस्स १४० संयम रहित तप... महान् उपकारी नहीं। उसका तप हस्तिस्नानकी भॉति जानना, अथवा दही मथने की रस्सी की तरह जानना। (भ.आ./मू./७)। भ.आ./मू./७७०. संजमहीणो य तवो जो कुणदि णिरत्ययं कुणदि । - संयम रहित तप करना निरर्थक है, अर्थात उससे मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। १. अंतरंग तपके बिना बाह्य तप निरर्थक है प.प्र./मू./१६१ घोरु करंतु वि तवचरणु सयल वि सत्य मुणतु । परम समाहिविवज्जियउ णवि देववइ सिउ संतु1१६१ - घोर तपश्चरण करता हुआ भी और सब शास्त्रोको जानता हुआ भी जो परम समाधिसे रहित है वह शान्तरूप शुद्धारमाको नहीं देख सकता। भ,आ /वि./११४८/१३०६/१ यद्धि यदर्थ तत्प्रधानं इति प्रधानताभ्यन्तरतपसः। तच्च शुभशुद्धपरिणामात्मकं तेन विना न निर्जरायै बाह्यमलम् । -आभ्यन्तर तपके लिए बाह्य तप है। अत: आभ्यन्तर तप प्रधान है। यह आभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणामोंसे युक्त रहता है इसके बिना बाह्य तप कर्म निर्जरा करने में असमर्थ है। .सा./आ./२०४/क, १४२ क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुवै : कर्मभिः, क्लिश्यन्ता च परे महावततपो भारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमान स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं बिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते नहि ।१४२१-कोई जीव दुष्करतर और मोक्षसे पराड मुख कर्मोके द्वारा स्वयमेव क्लेश पाते है तो पाओ और अन्य कोई.जीव महाबत और तपके भारसे बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश प्राप्त करें तो करो, जो साक्षात् मोक्ष स्वरूप है, निरामय पद है, और स्वयं संवेद्यमान है, ऐसे इस ज्ञानको ज्ञानगुणके बिना किसी भी प्रकारसे वे प्राप्त नहीं कर सकते। ज्ञा./२२/१४/२३४ मन.शुद्धयैव शुद्धिः स्यादहिना नात्र संशयः । वृथा तद्वयतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ।१४ - निःसन्देह मनकी शुद्धिसे ही जीवोंके शुद्धता होती है, मनकी शुद्धिके बिना केवल कायको क्षीण करना वृथा है (ज्ञा./२२/२८)। आचारांग/१११ अति करोतु तप. पालयतु संयम पठतु सकलशास्त्राणि । यावन्न ध्यात्यात्मानं तावन्न मोक्षो जिनो भणति । आ.सा./५४/१२६ सकलशास्त्र सेवितां सूरिसंघान् दृढयतुच तपश्चाभ्यस्तु स्फोतयोगं । चरतु विनयवृत्ति बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलासः सर्वमेतन्न किंचित् । = १. अति तप भी करे, संयमका पालन भी करे, और सकल शास्त्रोंका अध्ययन भी करे, परन्तु जब तक आत्माको नहीं ध्याता है, तब तक मोक्ष नहीं होती है ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ।११। २. सकल शास्त्रको पढ़े. आचार्यके संघको दृढ़ करे, और निश्चल योगवर तपश्चरण भी करे, विनय वृत्ति धारण करे, तथा समस्त विश्वके तत्त्वौंको भी जाने, परन्तु यदि विषय विलास है तो ये सर्व निरर्थक हैं। मो.मा.प्र./9/३४०/१ जो बाह्य तप तो करै अर अन्तरंग तप न होय, तौ उपचार ते भी वाकों तप संज्ञा नहीं। मो.मा.प्र./७/३४२/८ वीतराग भावरूप तपको न जाने अर इन्हींको तप जानि संग्रह करै तो संसार ही में भ्रमै। ५. अंतरंग सहित ही बाह्य तप कार्यकारी है घ.१३/५,४,२६/५५/३ ण च चउबिहआहारपरिच्चागो चेव अणेसणं, रागादि हि सह तच्चागस्स अणेसणभावभुवगमादो। - पर इसका (अनशनादिका) यह अर्थ नहीं कि चारो प्रकारके आहारका त्याग ही अनेषण कहलाता है क्योकि रागादिके साथ ही उन चारोके (चार प्रकारका आहार) त्यागको अनेषण रूपसे स्वीकार किया है। ६. बाह्य तप केवल पुण्य बन्धका कारण है ज्ञा.1419/४३ मुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेण वानिशम्। संचिनोति शुभ कर्म काययोगेन संयमी -भले प्रकार गुप्त रूप किये हुए, पर्याव अपने वशीभूत किय हुए कारपे तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभकर्मको संचय करते है। ७. बाह्य तपोंको तप कहनेका कारण अन.ध./७/५८ देहाक्षतपनारकर्मदहनादान्तरस्य च । तपसो वृद्धिहेतुत्वात् स्यात्तपोऽनशनादिकम् ।। बाहयैस्तपोभि कायस्य कर्शनादक्षमर्दने । छिन्वबाहो भट इव विक्रामति कियन्मन' 101 अनशनादि तप इसलिए है कि इनके होनेपर शरीर इन्द्रियाँ उद्रिक्त नहीं हो सकतीं किन्तु कृश हो जाती है। दूसरे इनके निमित्तसे सम्पूर्ण अशुभकर्म अग्निके द्वारा ईधनकी तरह भस्मसाद हो जाते हैं। तीसरे आभ्यन्तर प्रायश्चित्त आदि तपोके बढानेमे कारण है । बाह्य तपोके द्वारा शरीरका कर्षण हो जानेसे इन्द्रियोंका मर्दन हो जाता है, इन्द्रिय दलनसे मन अपना पराक्रम किस तरह प्रगट कर सकता है कैसा भी योद्धा हो प्रतियोद्धा द्वारा अपना घोडा मारा जानेपर अवश्य निर्बल हो जायेगा। मो.मा.प्र./७/३४०/१ बाह्य साधन भए अन्तरंग तपकी वृद्धि हो है । तातै उपचार करि इनको तप कहै हैं । ८. बाह्य अभ्यन्तर तपका समन्वय स्व. स्तो/३ बाह्यं तप. परमदुश्चरमाचरंस्त्व-माध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् । ध्यानं निरस्य क्लुषद्वयमुत्तरस्मिन, ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने ।३। - आपने आध्यात्मिक तपकी परिवृद्धिके लिए परम दुश्चर बाह्य तप किया है। और आप आर्तरौद्र रूप दो कलुषित ध्यानोंका निराकरण करके उत्तरवर्ती दो सातिशय ध्यानों में प्रवृत्त हुए हैं । (भ.आ./वि./१३४८/१३०६/१)। भ.आ./मू./१३५० लिगं च होदि आभंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी। भिउडोकरणं लिंग जहसंतो जदकोधस्स ।१३५० -अभ्यंतर परिणाम शुद्धिका अनशनादि बाह्य तप चिह्न है। जैसे किसी मनुष्यके मनमें जन क्रोध उत्पन्न होता है, तब उसकी भौंहे चढती हैं इस प्रकार इन तपोंमें लिंग लिंगी भाव है। द.सं./टी./५७/२२८/११ द्वादशविधं तपः। तेनैव साध्यं शुद्धात्मस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्च । = बारह प्रकारका तप है। उसी (व्यवहार ) तपसे सिद्ध होने योग्य निज शुद्ध अन्म स्वरूपमें प्रतपन अर्थाव विजय करने रूप निश्चय तप है। मो.मा प्र.10/३४०/१ बाह्य साधन होते अंतरंग तपकी वृद्धि होती है। इससे उपचारसे उसको तप कहते हैं। परन्तु जो माह्य तप तो कर अर अतरंग तप न होय तो उपचारसे भी उसको तप संज्ञा प्राप्त नहीं। ४. तपके कारण व प्रयोजनादि १. तप करने का उपदेश मो, पा/मू./१० धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेह तवयरण। णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णागजुत्तो वि 01-आचार्य कहै हैदेखो जाकै नियमकरि मोक्ष होनी है अर च्यार ज्ञान मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय इनिकरि युक्त है ऐसा तीर्थंकर है सो भौ तपश्चरण कर है, ऐसे निश्चय करि जानि ज्ञान करि युक्त होतें भी तप करना योग्य है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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