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________________ तप ३. तप मनुष्यगति में ही सम्भव है घ. / ११ / ८४२१/११/२ पेररपल बोरा लियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहाभावादतिरिक्तु महत्ययाभावादो। ( नारकी देव, तथा तियंचो में तपकर्म नही होते ) क्योंकि नारकी व देवोंके औदारिक शरीरका उदय तथा पंचमहाव्रत नहीं होते तथा... तिने महान नहीं होते। ४. गृहस्थ के लिए तप करनेका विधि निषेध भ.आ./मू./७ सम्मादिस्सि वि अभिरदस्त ण सनो महागुणो होदि होदि हु हरिथहाणं चुदच्चुदगं व तं तस्स ॥७॥ अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुषका तप महान् उपकार करनेवाला नहीं होता है, वह उसका तप हाथी के स्नान के सह होता है अथवा नम जैसे छेद पाहते करते) समय डोरी बाँधकर घुमाते है तो वह डोरी एक तरफसे खुलती है दूसरी तरफसे एड जाती है। (मु. आ./१४०) सा. ध. /७/५० श्रावको वीर्यचर्याह - प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी... १५०६ - धावक वीर्यचर्या, दिनमें प्रतिमायोग धारण करना आदि रूप मुनियोंके करने योग्य कार्योंके विषय में... अधिकारी नहीं है और भी ० /१/३ । ५. तप शक्तिके अनुसार करना चाहिए मू आ. / ६६७ बलवोरियमासेज्ज य खेत्ते काले सरीरसंहडणं । काओसरगं कुरजा इमे दु दोसे परिहयो । मस और बारमशक्तिका आश्रयकर क्षेत्र, काल, शरीरके संहनन- इनके बल्की अपेक्षा कर कायोत्सर्ग के कहे जानेवाले दोषोंका त्याग करता हुआ कायोत्सर्ग करे। ( आ. / ६०१ ) " अन. ध. /५/६५ द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीर्यं समीक्ष्य च । स्वास्थ्याय वर्ततां सर्वविद्धशुद्धाशनैः सुधीः ॥ ६५ ॥ -विचारक साधुओं को आरोग्य और आत्मस्वरूपमे अवस्थान करनेके लिए द्रव्य क्षेत्र, काल, भान बल और वीर्य इन वह मालोंका अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वादान, विद्याशन और शुद्धाशनके द्वारा आहार में प्रवृत्ति करना चाहिए । ६. तपमें फलेच्छा नहीं होनी चाहिए रा, वा /१/११/१६/६११/२४ इत्यत सम्यग्ग्रहणमनुवर्त्तते, तेन दृष्टफलनिवृत्ति कृता भवति सर्वत्र 'सम्यकू' पदकी अनुवृत्ति आने से दृष्टफल निरपेक्षताका होना तपोमे अनिवार्य है । ७. पंचमकालमें तपकी अप्रधानता म.प्र. ४१/६६ भारनिर्भुग्नपृष्ठस्थाश्मस्य मीक्षणात् कृस्नाव तपोगुणान्वोढुं नालं दुष्षमसाधवः ॥ ६६ ॥ भगवान् ऋषभदेवने भरत कनके स्वप्न फल बताते हुए कहा कि 'बड़े हाथी के उठाने योग्य बोझ से जिसकी पीठ झुक गयी है, ऐसे घोड़े के देखनेसे मालूम होता है कि पचमकालके साधु तपश्चरण के समस्त गुणोंको धारण करनेमे समर्थ नही हो सकेंगे। ८. तप धर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ भ. आ // ९४५३,१४६२ अप्पा य वंचिओ ते होई निश्चि ग्रहिये भयदि सुह सीसदार जीमो मंदि असावी ॥१४५३ संसारमहाडाहेण उज्झमाणस्स होइ सीयधरं । सुत्तवोदाहेण जहा सीधरं उज्झमाणस्स || १४६२॥ शक्त्यनुरूप तपमें जो प्रवृत्ति नहीं करता है, उसने अपने आत्माको फँसाया है और अपनी शक्ति भी छिपा दी है ऐसा मानना चाहिए, सुखासक्त होनेसे जोत्रको असाता Jain Education International ३. बाह्याभ्यन्तर तपका समन्वय detter अनेक भव में तीव्र दुःख देनेवाला, तीव्र पापबंध होता है | १४५२] जैसे सूर्य की प्रचंड किरणोंसे संतप्त मनुष्यका शरीरदाह धारागृह नष्ट होता है वैसे संसार के महादाहसे दग्ध होनेवाले भन्योंके लिए तप अलगृहके समान शान्ति देनेशला है। तपमें सांसारिक दुख निर्मुलन करना यह गुण हैं ऐसा यह गाथा कहती है (भ.आ./टी./ १४५०-१४०५). (पं.वि./१/१८-१००) दे. तप /४/७ ( तपकी महिमा अपार है। जो तप नहीं करता वह तृणके समान है।) ३. बाह्याभ्यन्तर तपका समन्वय १. सम्यक्व सहित ही तप तप है मो.मा./मू./५६ तवरहियं जं गाणं णाणविजुतो तवो वि अकयत्थो । जो ज्ञान तप रहित है, और जो राप है सो भी ज्ञान रहित है तो दोउही अकार्य है। का.अ./१०२ भारत-विहेण तुमसा जियाग रहियस्स गिजरा होदि । वेरा भावणादी निरहंकारस्स शामिस्स | १०२ निदान रहित, निरभिमानी, ज्ञानी पुरुषके मेराग्यकी भावना से अथवा वैराग्य और भावनासे बारह प्रकारके तपके द्वारा कर्मोंकी निर्जरा होती है। २. सम्यक्व रहित तप अकिंचिकर है नि.सा./ १२४ कि काहदि वणवासी कामकलेसो विचित उपवासो अन्ययमोपपहूदी समदारहियत्स समगरस ।१२४| वनवास, कायक्लेश रूप अनेक प्रकारके उपवास, अध्ययन मौन आदि समता रहित मुनिको क्या करते हैं- क्या लाभ करते हैं । अर्थात् कुछ नहीं । ५.पा./ /सम्म बिरहिया वि उग्गं तवं परं ताणं ण सह ति मोहिलाई अविवाहस्सकोहि || सम्यस्य बिना करोड़ों वर्ष तक उम्र तप भी तो भी बोधिकी प्राप्ति नाही (मोपा./२७.५६ (रसा./१०३), (सू.बा./१००) मो.पा./१६ कि काहिदि कि कि काहिदि बहुविहं च पण तु । कि काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो | ६६ आत्म स्वभावतें विपरीत प्रतिकूल बाह्यकर्म जो क्रियाकांड सो कहा करेगा क मोक्षका कार्य ती किचिन्मात्र भी नाहीं करेगा, बहुरि अनेक प्रकार क्षमण कहिए उपवासादिक कहा करेंगा आतापनयोगादि कायक्लेश कहा करेगा ? कछू भी नांहीं करेगा। स.श./३३ यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम् । लभते स न निर्वाणं तप्त्वापि परमं तपः । ३३ | = जो अविनाशी आत्माको शरीरसे भिन्न नहीं जानता है, वह घोर तपश्चरण करके भी मोक्षको नही प्राप्त करता है (ज्ञा./१२/४७) । मो.सा.अ./६/१० माहामाम्यन्तरमा प्रत्येक कुतापः नैनो निर्जीर्यते शुद्धमात्मतत्वमजानता |१०| जो पुरुष शुद्ध आत्मस्वरूपको नहीं जानता है वह चाहें बाह्य आभ्यन्तर दोनो प्रकारके तप करे वा एक प्रकारका करे, कभी कर्मोंकी निर्जरा नहीं कर सकता । पं.वि./१/६० कालत्रये महरम स्थितिमी सातपत्रमुख परियो दुखेोपविले शकतोऽपि कायम वृधावृतिरियो तिशालिया नितीन कालोमे घर छोडकर माहिर रहने से उत्पन्न हुए वर्षा, शैत्य और धूप आदिके तीव्र दुखको सहता है यह यदि उन तीन कालो में अध्यात्म ज्ञानसे रहित होता है तो उसका यह सब ही कायवलेश इस प्रकार व्यर्थ होता है जिस प्रकार कि धान्यांकुरोसे रहित खेतों में बाँसों या काँटों आदिसे माइका निर्माण करना। (वि./२/५०) 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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