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________________ सत्त्व ३५३ २. सप्त तत्त्व व नव पदार्थ निर्देश २. तत्त्वार्थका अर्थ नि.सा./मू./ह जीवापोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता ।। =जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, काल और आकाश, यह तत्त्वार्थ कहे है, जो कि विविध धर्म, अधर्म कालत है। चीयत इति यातिरेकात् ।तत्वाचा १. भेद व लक्षण १. तत्त्वका अर्थ १. वस्तुका निज स्वरूप स.सि /२/१/१५०/११ तद भावस्तत्वम् । -जिस वस्तुका जो भाव है वह तत्व है। (स.सि./२/४२/३१७/५); (ध.१३/५,५,६०/२८/११); (मो.मा.प्र./४/८०/१४) रा.वा/२/१/६/१००/२५ स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वं, स्वोभावोऽसाधारणो धर्मः । -अपना तत्त्व स्वतत्त्व होता है, स्वभाव असाधारण धर्मको कहते हैं। अर्थात वस्तुके असाधारण रूप स्वतत्त्वको तत्व कहते हैं। स. श./टी./३५/२३५ आरमनस्तत्त्वमात्मनःस्वरूपम् । -आत्म तत्त्व अर्थात आत्माका स्वरूप। स. सा./आ./३५६/४६१/७ यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति...इति तत्त्व सम्बन्धे जीवति। -जिसका जो होता है वह वही होता है. ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवित होनेसे..। २. यथावस्थित वस्तु स्वभाव स.सि./१/२/८/३ तत्त्वशब्दो भावसामान्यवाची। कथम् । तदिति सर्वनामपदम्। सर्वनाम च सामान्य वर्तते । तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्यकस्य । योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः। -तत्त्व शब्द भाव सामान्य वाचक है, क्योंकि 'तव' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थमें रहता है अतः उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ तत्व पदसे कोई भी पदार्थ लिया गया है। आशय यह कि जो पदार्थ जिस रूपसे अवस्थित है, उसका उस रूप होना यही यहाँ। तत्त्व शब्दका अर्थ है । (रा.वा/१/२/९/१६/8); (रा.वा/९/२/२/१६/१8); (भ.आ./वि./१६/१५०/१६); (स्या.म./२५/२६६/१२) ३. सत्, द्रव्य, कार्य इत्यादि न.च./४ तच्च तह परमठ्ठ दव्वसहावं तहेव परमपर । धेय मुझे परमं एयछा हुति अभिहाणा ।४। - तत्त्व, परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, परमपरम, ध्येय, शुद्ध और परम ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। गो.जी./जी.प्र./१६१/१००६ आर्या नं.१ प्रदेशप्रचयारकायाः द्रवणाद द्रव्यनामकाः । परिच्छेद्यत्वतस्तेऽर्थाः तत्त्वं वस्तु स्वरूपतः ।। - बहुत प्रदेशनिका प्रचय समूहकों धर है तातें काय कहिये। बहुरि अपने गुण पर्यायनिको द्रवे है तातै द्रव्यनाम कहिए। जीवनकरि जानने योग्य है तातै अर्थ कहिए, बहुरि वस्तुस्वरूपपनाकौं धरै है तात तत्त्व कहिए। पं.ध./पू./ तत्त्वं सल्लाक्षणिक सन्मात्रं वा यतः स्वतः सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्प च ।। -तत्त्वका लक्षण सत है अथवा सतही तत्त्व है। जिस कारणसे कि वह स्वभावसे ही सिद्ध है, इसलिए वह अनादि निधन है, वह स्वसहाय है और निर्विकल्प है। ४. अविपरीत विषय रा.वा./२/२/१/११/- अविपरीतार्थ विषयं तत्त्वमित्युच्यते। -अविप रीत अर्थ के विषयको तत्त्व कहते हैं। ५. श्रुतशानके अर्थमें ध.१३/५,९,१०/२८५/११ तदिति विधिस्तस्य भावस्तत्वम् । कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेशः 1 सर्वनयविषयाणामस्तित्व विधायकत्वात् । तत्त्वं श्रुतज्ञानम् । ='तत' इस सर्वनामसे विधिको विवक्षा है, 'तत'का भाव तत्त्व है। प्रश्न-श्रुतकी विधि संज्ञा कैसे है। उत्तर-चू कि वह सब नयोंके विषयके अस्तित्व विधायक है, इसलिए श्रुतकी विधि संज्ञा उचित ही है। तत्त्व श्रुतज्ञान है। इस प्रकार तत्त्वका विचार किया गया है। स.सि./१/२/८/५ अर्यत इत्यर्थो निश्चीयत इति यावत् । तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थ' अथवा भावेन भाववतोऽभिधानम्, तदव्यतिरेकात् । तत्त्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः। -अर्थ शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - अर्यते निश्चीयते इत्यर्थः जो निश्चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्दोंके संयोगसे तत्त्वार्थ शब्द बना है जो 'तत्त्वेन अर्थः तत्त्वार्थ' ऐसा समास करनेपर प्राप्त होता है। अथवा भाव द्वारा भाववाले पदार्थका कथन किया जाता है, क्योंकि भाव भाववालेसे अलग नहीं पाया जाता है । ऐसी हालतमें इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थः तत्त्वार्थः।' रा.वा./९/२/६/१६/२३ अर्यते गम्यते ज्ञायते इत्यर्थः, तत्त्वेनार्थस्तत्त्वार्थः । येन भावेनार्थो व्यवस्थितस्तेन भावेनार्थस्य ग्रहणं (तत्त्वाथी)। अर्थ माने जो जाना जाये। तत्त्वार्थ माने जो पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उसका उसी रूपसे ग्रहण । ३. तत्त्वोंके ३,७ या ९ भेद त.सू./१/४ जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ७) जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। (न.च./१५०) नि.सा./ता.वृ./५/१२/१ तत्त्वानि बहिस्तत्त्वान्तस्तत्त्वपरमात्मतत्त्वभेदभिन्नानि अथवा जीवाजीवानवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षाणां भेदात्सप्तधा भवन्ति । -तत्त्व बहिस्तत्त्व और अन्तस्तत्त्व रूप परमात्म तत्व ऐसे (दो) भेदों वाले हैं। अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ऐसे भेदोके कारण सात प्रकारके हैं। (इन्हीमें पुण्य, पाप और मिला देनेपर तत्त्व नौ कहलाते हैं )। नौ तत्त्वोंका नाम निर्देश-दे० पदार्थ। * गरुड तत्त्व आदि ध्यान योग्य तत्त्व-दे० वह वह नाम । * परम तत्वके अपर नाम-दे० मोक्षमार्ग/२/11 २. सप्त तत्त्व व नव पदार्थ निर्देश १. तत्व वास्तव में एक है स.सि./१/४/१६/१ तत्त्वशब्दो भाववाचीत्युक्तः। स कथं जीवादिभि व्यवचने. समानाधिकरण्यं प्रतिपद्यते ! अव्यतिरेकात्तभावाध्यारोपाच्च समानाधिकरण्यं भवति । यथा उपयोग एवात्मा इति । यद्यपं तत्तल्लिङ्गसङ्घयानुव्यतिक्रमो न भवति। -प्रश्न-तत्त्व शब्द भाववाची है इसलिए उसका द्रव्यवाची जीवादि शब्दोंके साथ समानाधिकरण कैसे हो सकता है। उत्तर-एक तो भाव द्रव्यसे अलग नहीं पाया जाता, दूसरा भावमें द्रव्यका अध्यारोप कर लिया जाता है इसलिए समानाधिकरण बन जाता है । जैसे-'उपयोग ही आत्मा है' इस वचनमें गुणवाची उपयोगके साथ द्रव्यवाची आत्मा शब्दका समानाधिकरण है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। प्रश्न-यदि ऐसा है, तो विशेष्यका जो लिंग और संख्या है वही विशेषणको भी प्राप्त होते हैं। उत्तर-व्याकरणका ऐसा नियम है कि 'विशेषण विशेष्य सम्बन्धके रहते हुए भी शब्द शक्तिकी अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्या प्राप्त कर ली है उसका उल्लंघन नहीं होता' 'अतः यहाँ विशेष्य और विशेषणके लिगके पृथक्- पृथक रहनेपर भी कोई दोष नहीं है । (रा.वा./१/४/२६-३०/२७) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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