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________________ जैनाभासी संघ जैनाभासी संघ ०६९ जैनाभिषेक-३० जेनेन्द्र व्याकरण करण जैमिनी - मीमांसादर्शनके आद्यप्रवर्तक । समय ई० पू २०० ॥ दे० मीमांसादर्शन जोइंदु-दे० जोड़-Addition (ध. ५/प्र.२७) प्रक्रिया ३० गणित / II ३। जोणी पाहुड - आ. धरसेन (बी. नि. ६००) कृत मन्त्र विषयक ग्रन्थ (जै./२/१२२) । जोधराज गोदी - सांगानेर निवासी थे। आपने हिन्दी पथमें निम्न कृतियाँ रखी है- १. धर्म सरोवर २. सम्यस्व कौमुदी भाष्य (वि. १०२४) २. प्रीतंकर चारित्र (वि० १०२१) ४. कथाकोश ( वि० १७२२ ); ५. प्रबचनसार; ६, भावदीपिका वचनिका ( गद्य ); ७. ज्ञान समुद्र । समय - वि० १७००-१७६०। (ती./४/३०३) (हिन्दी जैन साहित्य / पृ० १२३ कामताप्रसादजी)। जोनशाह मुहम्मद लकका दूसरा नाम जोनशाह था। इन्होंने जोनपुर बसाया था और इसलिए पं० बनारसीदास इन्हें जोनाशाह ते हैं। शेष मुहम्मद ज्यामिति - १ ज्यामिति Geometry. २. ज्यामिति अब - धारणाएँ Geometrical Concepts ३. ज्यामिति विद्याए - Geometrical methods ( ज. प / प्र. १०६) । ज्येष्ठ"किन्नर जातीय व्यन्तरदेवका एक भेद-दे० किंनर । ज्येष्ठ जिनवर व्रत उत्तम २४ मध्यम १२ वर्ष तक वर्ष तक, और जघन्य एक वर्षतक प्रति वर्ष ज्येष्ठ कृ० व शु १ को उपवास करे और उस महीनेके शेष २८ दिनोंमें एकाशना करे। ऊँ ह्री ऋषभ - जिनाय नमः ' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । ( वर्द्धमान पुराण ); विधान संग्रह / पृ. ४३ ) । । - ज्येष्ठाज्योति -- ( ज्येष्ठ स्थिति कल्प भ.आ./वि./ ४२९/६९५ / ६ पञ्चमहाव्रतधारिण्याश्विरप्रवजिताया अभि ज्येष्ठो भवति अधुना प्रवजितः पुमान् । इत्येष सप्तमः स्थितिकल्प पुरुषज्येत्थं । पुरुषत्वं नाम उपकार, रक्षा च कर्तुं समर्थः । पुरुषप्रणीतश्च धर्मः इति तस्य ज्येष्ठता । ततः सर्वाभिः संयताभिः विनयः कर्त्तव्यो विरतस्य । येन च स्त्रियो लध्व्यः परप्रार्थनीया, पररक्षोपेक्षिण्यः न तथा पुर्मास इति च पुरुषस्य उपेच 'जेणिच्छी हु लघुसिंगा परप्पसज्मा य पच्छणिज्जा थ। भीरु पररक्खणज्जेति तेण पुरिसो भवदि जेट्ठो जिसने पाँच महाव्रत धारण किये हैं वह ज्येष्ठ है और बहुत वर्षकी दीक्षित आर्यिकासे भी आजका दीक्षित मुनि ज्येष्ठ है। पुरुष संग्रह, उपकार, और रक्षण करता है, पुरुषने ही धर्मकी स्थापना की है, इसलिए उसकी ज्येष्ठता मानी है। इसलिए सर्व आर्मिकाओंको मुनिका विनय करना चाहिए। स्त्री पुरुषसे कनिष्ठ मानी गयी है. क्योंकि वह अपना रक्षण स्वयं नहीं कर सकती, दूसरों द्वारा वह इच्छा को जातो है और ऐसे अवसरों पर वह उसका प्रतिकार भी नहीं कर सकती। उनमें स्वभावतः भय व कमजोरी रहती है । पुरुष ऐसा नहीं है, अतः वह ज्येष्ठ हैं । यही अभिप्राय उपरोक्त उद्धृत सूत्रका भी समझना । = -एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । - परम ज्योतिके अपर नाम दे० मोक्षमार्ग /२/५ । - भा० २-४४ Jain Education International ३४५ ज्योतिष देव ज्योतिर्ज्ञान विधि - आ. श्रीधर (ई. ७६१) कृत १० प्रकरणों में विभक्त ज्योतिष शास्त्र (ती./३/११३) । ज्योतिषकरण्ड - जिनभद्रगणी (बि. ६५०) से पूर्व बल्लभी वाचनालय के अनुयायी किसी श्वेताम्बर आचार्य द्वारा रचित ज्योतिर्लोक तथा काल गणना विषयक सूत्रबद्ध अर्धमागधी ग्रन्थ (जै./२/५६, ६०) । ज्योतिष चारण- दे.ऋद्धि / ४ । ज्योतिषदेव-ज्योतिष्माद होनेके कारण चन्द्र-सूर्यादयोतिषी कहे जाते हैं, जिनको जैन दर्शनकार देवोंकी एक जाति विशेष मानते है ये सब मिलकर असंख्यात है। । १. ज्योतिषीदेवका लक्षण स./स. ४/१२/२४४/५ ज्योतिस्वभावत्वादेषां पञ्चानामपि 'ज्योतिष्का इति सामान्यसंज्ञा अन्य सूर्यादयस्तद्विशेषसंज्ञा नामकर्मोदयप्रत्यया । ये सब पाँचों प्रकारके देव ज्योतिर्मय हैं, इसलिए इनकी ज्योतिषी यह सामान्य संज्ञा सार्थक है तथा सूर्य आदि विशेष संज्ञाएँ विशेष नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होती हैं। (ति.प. ७) ३८), (रा.वा/४/१२/१/२१८/८) २. ज्योतिषी देवोंके भेद उ.सू./४/१२ ज्योतिष्ठाः सूर्यचन्द्रमसी ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाक्षज्योतिषदेव पाँच प्रकारके होते हैं-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे (ति.१/७/०) (त्रि.सा. ३०३) २. ज्योतिषी देवों की शक्ति उत्सेध आदि ति. प. ७/६१६ - ६१८ आहारो उस्सासो उच्च्हो ओहिणाणससीओ। उप्पलीमरणाई एकसमयम्मि । ६१६ आधणभावं दंसणगहणस्स कारणं विविहं । गुणठाणादिपवण्णणभावणलोए व्व वत्तव्वं ६१०] आहार, उच्छ्वास उत्सेध अवधिज्ञान, शक्ति, एकसमयमें जीवोंकी उत्पत्ति व मरण, आयुके बन्धक भाव, सम्यग्दर्शन ग्रहणचे विविध कारण और गुणस्थानाविकका वर्णन भावनतोक समान कहना चाहिए १७ विशेष यह है कि ज्योतिषियोंकी ऊँचाई सात धनुष प्रमाण और अवधिज्ञानका विषय उनसे असंख्यात गुणा है । ६१८| त्रि. सा. / ३४१ चंदिण बारसहस्सा पादा सीयल खरा य सुक्के दु । अड्ढाइज्जसहस्सा तिब्बा सेसा हु मंदकरा | ३४१ | चन्द्रमा और सूर्य इनके भारह-बारह हजार किरणें हैं। तहां चन्द्रमाकी किरणे शीतल है और सूर्यकी किरण तीक्ष्ण है। शुक्रकी २५०० किरणें हैं। ते उज्ज्वल है अवशेष ज्योतिषी मन्दप्रकाश संयुक्त है (ति.प./७/२० (6.8°) नोट- (उपरोक्त अवगाहना आदिके लिए दे० अवगाहना/२/४ अनधिद्वान/१/३: जन्म/ बाय / ३. सम्यग्दर्शन / IIT / ३: स प्रषणा; भवन / १ ) । ४. ज्योतिषी देवोंके इन्त्रोंका निर्देश ति.प./७/६१ सयलिदाण पडिदा एक्केक्का होंति ते वि आइञ्चा उन सम इन्द्रों (चन्द्रों) के एक-एक प्रतीन्द्र होते हैं और वे प्रतीन्द्र, सूर्य हैं। दे. इन्द्र/५ ( ज्योतिषी देवोंमें दो इन्द्र होते हैं । चन्द्र व सूर्य । ) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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