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________________ कर्म १. समवदान आदि कर्म-निर्देश १. समवदान आदि कर्म-निर्देश १. कर्म सामान्यका लक्षण वैशे. द./१-१/१७/३१ एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति __ कर्मलक्षणम् ॥१७॥ वैशे. द./५-१/१/१५० आत्मसंयोगप्रयत्नाभ्या हस्ते कर्म -१. एक द्रव्यके थाश्रय रहनेवाला तथा अपनेमें अन्य गुण न रखनेवाला बिना किसी दूसरेकी अपेक्षाके संयोग और विभागमें कारण होनेवाला कर्म है । गुण व कर्ममें यह भेद है कि गुण तो संयोग विभागका कारण नहीं है और कर्म उनका कारण है ।१७। २. आत्माके संयोग और प्रयत्नसे हाथमें कर्म होता है ।। नोट-जैन वाड्मयमे यही लक्षण पर्याय व क्रियाके हैं -दे० वह वह नाम । अन्तर इतना ही है कि वैशेषिक जन परिणमनरूप भावास्मक पर्यायको कर्म न कहकर केवल परिस्पन्दन रूप क्रियात्मक पर्यायको ही कहता है, जबकि जैनदर्शन दोनों प्रकारको पर्यायों को। यथारा. वा./६/१/३/१०४/११ कर्मशब्दोऽनेकार्थ:-क्वचित्कर्तुरीप्सिततमे वर्तते-यथा घट करोतीति । क्वचित्पुण्यापुण्यवचन' - यथा "कुशलाकुशल कर्म" [ आप्त मी.८] इति। कचिच्च क्रियावचनः -यथा उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि [वैशे./१/१/७] इति । तत्रेह क्रियावाचिनो ग्रहणम् । =कर्म शब्दके अनेक अर्थ हैं-'घटं करोति' में कर्मकारक कर्मशब्दका अर्थ है । 'कुशल अकुशल कर्म' में पुण्य पाप अर्थ है । उत्क्षेपण अवक्षेपण आदिमें कर्मका क्रिया अर्थ विवक्षित है। यहाँ आम्रवके प्रकरणमें क्रिया अर्थ विवक्षित है अन्य नहीं ( क्योंकि वही जड़ कोक प्रवेशका द्वार है)। २. कर्मके समवदान भादि अनेक भेद (ष.वं. १३/५,४/सू.४.२८/३८-८८), प्रमाण = सूत्र/पृष्ठ संजम-जोग-कसाएहि अट्ठकम्मसरूवेण सत्तकम्मसरूवेण छकम्मसरूपेण वा भेदो समुदाणद त्ति बुत्तं होदि । -[समवदान शब्दमें 'सम्' और 'अब' उपसर्ग पूर्वक 'दाप् लबने' धातु है। जिसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-] जो यथाविधि विभाजित किया जाता है वह समवदान कहलाता है। और समवदान ही समवदानता कहलाती है। कार्मण पुदगलोका मिथ्यात्व, असंयम, योग और कषायके निमित्तसे आठ कर्मरूप, सात कर्मरूप और छह कर्मरूप भेद करना समवदानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ४. प्रयोग कर्मका लक्षण प.सं. १३/५,४/सू. १६-१७/४४ ते तिविहं-मणपयोअकम्मं वचिपओ अकम्म कायपओअकम्म।१६। तं संसारावस्थाण वा जीवाणं सजोगिकेवलीणं वा ।१७) -वह तीन प्रकारका है--मनःप्रयोगकर्म, वचनप्रयोगर्म और कायप्रयोगकर्म ।१६। वह संसार अवस्थामें स्थित जीवोंके और सयोगकेवलियोंके होता है ।१७ (अन्यत्र इस प्रयोग कर्मको ही 'योग' कहा गया है।) ५. चितिकर्म आदि कमौका निर्देश व लक्षण मू.आ./४२८/५७६ अप्पासुएण मिस्सं पासुगदव्वं तु पूदिकम तं । चुल्ली उक्खलि दव्वी भायणगंधत्ति पंचविहं ।४२८। किदियकम्मं चिदियकम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । कादव्वं केण कस्स व कथं व कहिं व कदिखुत्तो ।५७६। = प्रासुक आहारादि वस्तु सचित्तादि वस्तुसे मिश्रित हों वह पूति दोष है-दे० आहार/II/४ ! प्रामुक द्रव्य भी पूतिकर्म से मिला पूतिकर्म कहलाता है। उसके पाँच भेद हैं-चूली, ओखली, कड़छी, पकानेके बासन, गन्धयुक्त द्रव्य । इन पाँचोंमें संकल्प करना कि चूलि आदिमें पका हुआ भोजन जब तक साधुको न दे दें तबतक किसीको नहीं देंगे। ये ही पाँच आरम्भ दोष है।४२८१ जिससे आठ प्रकारके कर्मोंका छेद हो वह कृतिकर्म है, जिससे पुण्य कर्मका संचय हो वह चित्कर्म है, जिससे पूजा की जाती है वह माला चन्दन आदि पूजा कर्म है, शुश्रूषाका करना विनयकर्म है। ६. जीवको ही प्रयोगकर्म कैसे कहते हो ध. १३/५,४,१७/४/२ कधं जीवाणं पोअकम्मववएसो। ण, पओअं करेदि त्ति पओअकम्मसद्दणिप्पत्तीए कत्तारकारए कीरमाणाए जीवाणं पि पओअकम्मत्तसिद्धीदो। -प्रश्न-जीवोंको प्रयोग संज्ञा कैसे प्राप्त होती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रयोगको करता है' इस व्युत्पत्तिके आधारसे प्रयोगकर्म शब्दकी सिद्धि कर्ता कारकमें करनेपर जीवोंके भी प्रयोगकर्म संज्ञा बन जाती है। ७. समवदान आदि कर्मों में स्थित जीवों में द्रव्यार्थता व प्रदेशार्थताका निर्देश ध. १३/५,४,३१/१३/१दव्वपमाणाणुगमे भण्णमाणे ताव दव्यद्वद-पदेसट्टदाणं अत्यपरूवणं कस्सामो । त जहा-पओअकम्म-तवोकम्मकिरियाकम्मेसु जीवाणं दव्बद्वदा त्ति सण्णा । जीवपदेसाणं पदेसद्वदा त्ति ववएसो। समोदाणकम्म-इरियावथकम्मेसु जीवाणं दबट्ठदा त्ति ववएसो। तेसु चेव जीवेसु हिदकम्मपरमाणूण...पदेसठ्ठदा त्ति सण्णा । आधाकम्मम्मि.. ओरालियसरीरणोकम्मक्रवंधाणं दव्यट्ठदा ति सण्णा । तेसु चेव ओरालियसरीरणोकम्मरबंधेस हिदपरमाणूणं...पदेसट्ठदा त्ति सण्णा । द्रव्य प्रमाणानुगमकका कथन करते समय सर्व प्रथम द्रव्यार्थताके अर्थका कथन करते हैं। यथा-- प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म में जीवोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है, और जीवप्रदेशोंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है। समवधान और ईर्यापथ कर्म एक नाम स्थापना द्रव्य प्रयोग संमत-अंध ईया-तप किया भात दान ।। पथा L 180 नोआगमक r.diheel 327 Hirite नाना 2017 उपद्रावण-आत्माधीनता नानाअ- अक्ष वराटक इत्यादि प्रदक्षिणक्य एकजी विद्रावणएक " कृतित्रय एकजीनानाअ. परितापन- अवनतित्रय मानाजी एक शिरीनतिचतुः नानाजी. आरम्भ -आवर्तद्वादश नानाअ.192/89 चित्र भिति भेड इत्यादि इत्यादि ३. समवदान कमका लक्षण ष.वं.१३/५,४/सू.२०/४५ त' अट्ठविहस्स वा सत्तविहस्स पा छब्विहस्स वा कम्मस्स समुदाणदाए गहणं पयत्तदि ते सव्वं समुदाणकम्म णाम ।२०। -यतसात प्रकारके, आठ प्रकारके और छह प्रकारके कर्मका भेदरूपसे ग्रहण होता है अत. वह सब समवदान कर्म है। ध. १३/५,४,२०/४५/६ समयाविरोधेन समवदीयते खण्ड्यत इति समवदानम्, समवदानमेव समवदानता। कम्मइयपोग्गलणं मिच्छत्ता जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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