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________________ कर्नाटक कर्म द्रव्य भाव या अजीव जीव कर्मों के लक्षण । नोकर्मका लक्षण। गुणिक्षपित कर्माशिक -दे०क्षपित। कर्मफलका अर्थ -विशेष दे० उदय। ३ द्रव्यमाव कर्म निर्देश कर्नाटक-आन्ध्र देशमें अर्थात् गोदावरी व कृष्णा नदीके मध्यवर्ती क्षेत्रके दक्षिण-पश्चिमका 'वनवास' नामका वह भाग जिसके अन्तर्गत मैसुर भी आ जाता है। इसको राजधानियाँ मैसूर व रंगपत्तन थीं। (म. पु./प्र०/५० पं० पन्नालाल), (ध/३/प्र.४/H.L Jain)। जहाँ-जहाँ कनडी भाषा बोली जाती है वह सब कर्नाटक देश है अर्थात् मैसूरसे लेकर द्वारसमुद्र तक (द्र.सं./प्र.५/पं. जवाहर लाल)। कबूक-भरत क्षेत्र पश्चिम आर्य खण्डका एक देश-दे०मनुष्य/४ । कर्म-'कर्म' शब्दके अनेक अर्थ हैं यथा-कर्म कारक, क्रिया तथा जीबके साथ बन्धनेवाले विशेष जातिके पुदगल स्कन्ध । कर्म कारक जगत् प्रसिद्ध है, क्रियाएँ समवदान व अध'कर्म आदिके भेदसे अनेक प्रकार हैं जिनका कथन इस अधिकार में किया जायेगा। परन्तु तीसरे प्रकारका कर्म अप्रसिद्ध है। केवल जैनसिद्धान्त ही उसका विशेष प्रकारसे निरूपण करता है। वास्तवमें कर्मका मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है। जीव-मन-वचन कायके द्वारा कुछ न कुछ करता है, वह सब उसकी क्रिया या कर्म है और मन, वचन व काय ये तीन उसके द्वार हैं। इसे जोव कर्म या भाव कर्म कहते हैं। यहाँ तक तो सबको स्वीकार है। परन्तु इस भाव कर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गल स्कन्ध जोबके प्रदेशोमे प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बंधते हैं यह बात केवल जैनागम ही बताता है। ये सूक्ष्म स्कन्ध अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते हैं और रूप रसादि धारक मूर्तीक होते हैं। जैसेजैसे कर्म जीव करता है वैसे ही स्वभावको लेकर ये द्रव्य कर्म उसके साथ बँधते है और कुछ काल पश्चात परिपक्व दशाको प्राप्त होकर उदयमें आते हैं। उस समय इनके प्रभावसे जीवके ज्ञानादि गुण तिरोभूत हो जाते हैं। यही उनका फलदान कहा जाता है। सूक्ष्मताके कारण वे दृष्ट नहीं हैं। समवदान आदि कर्म निर्देश कर्म सामान्यका लक्षण। कमके समवदान आदि अनेक भेद। समवदान कर्मका लक्षण । अधःकर्म, ईर्यापथ कर्म, कृतिकर्म, तपःकर्म और सावधकर्म -दे० वह वह नाम । आजीविका सम्बन्धी असि मसि आदि कर्म प्रयोगकर्मका लक्षण । -दे० सावय। ५ | चितिकर्म आदि कोका निर्देश व लक्षण । जीवको ही प्रयोग कर्म कैसे कहते हो। समवदान आदि कमों में स्थित जीवों में द्रव्यार्थता व प्रदेशार्थता का निर्देश कर्म व नोकर्म पागम द्रव्य निक्षेप -दे० निक्षेप/५ । समवदान आदि कर्मों की सत्संख्या आदि आठ प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम । द्रव्य भावकम व नोकर्मरूप भेद व लक्षणकर्म सामान्यका लक्षण। कर्मके भेद-प्रमेद (द्रव्यभाव व नोकर्म )। कर्मों के शाना बरणादि भेदव उनका कार्य -दे० प्रकृतिबन्ध/१। कम जगत्का स्रष्टा है। कर्म सामान्यके अस्तित्वकी सिद्धि । कर्म व नोकर्ममें अन्तर। कर्म नोकर्म द्रव्य निक्षेप व संसार -दे०निक्षेप/५व संसार/२/२ छहों ही द्रव्योंमें कथंचित् द्रव्यकर्मपना देखा बा सकता है। जीव व पुद्गल दोनोंमें कथंचित् भाव कमपना देखा जा सकता है। शप्ति परिवर्तनरूप कर्म भी संसारका कारण है। शरीरको उत्पत्ति कर्माधोन है। कर्मोंका मूर्तत्व व रसत्व आदि उसमें हेतु -दे० मूर्त । अमूर्त जीवसे मूर्तकर्म कैसे बँधे -दे० बन्ध/२ । द्रव्यकर्मको नोजाव भी कहते हैं -दे० जीव/१ । कर्म सूक्ष्म स्कन्ध हैं स्थूल नही -दे० स्कन्ध/ द्रव्यकर्मको अवधि मनःपर्यय ज्ञान प्रत्यक्ष जानते हैं -दे०बन्ध/२ व स्वाध्याय/१। द्रव्यकर्मको या जीवको ही क्रोध आदि संशा कैसे प्राप्त होती है -दे० कषाय/२। कर्म सिद्धान्तको जाननेका प्रयोजन । | अन्य सम्बन्धित विषय *कर्मों के बन्ध उदय सत्त्वको प्ररूपणाएँ -दे० वह वह नाम । कर्म प्रकृतियोंमें १० करणोंका अधिकार -दे०करण/२। कमोंके क्षय उपशम श्रादि व शुद्धाभिमुख परिणाममें केवल भाषाका भेद है -दे० पद्धति । जोव कर्म निमित्त नैमित्तिक भाव -दे० कारण/III/३,५॥ | भाव कमका सहेतुक अहेतुकपना-दे० विभाव/३-५ । अकृत्रिम कर्मोंका नाश कैसे हो -दे० मोक्ष/६ । उदीर्ण कर्म -दे० उदीरणा/१। आठ कर्मों के पाठ उदाहरण -दे० प्रकृतिबन्ध/३॥ जीव प्रदेशोंके साथ कम स्कन्ध भी चलते हैं -दे०जीव/४। किर्या के अर्थ में कर्म -दे० योग। कर्म कथंचित चेतन है और कथंचित अचेतन -२० मन.१२ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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