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________________ जन्म ३१४ ४. सासादनमे जीवोंके जन्मसम्बन्धी मतभेद ३. परन्तु बद्धायुष्क उन-उन गतियोंके उत्तम स्थानों में ही उत्पन्न होते हैं नीच!में नही *.सं. प्रा./१/१६३ छसु हेट्टिमासु पुढवीसु जोइसवणभवणसव्व इत्थीसु । बारस मिच्छावादे सम्माइट्ठीसु णस्थि उववादो। प्रथम पृथिवियोंके बिना अधस्थ छहों पृथिवियों में, ज्योतिषी व्यन्तर भवन-वासी देवों में सर्व प्रकारकी स्त्रियों में अर्थात् तिर्यचिनी मनुष्यणी और देवियों में तथा बारह मिथ्यावादोंमें अर्थात् जिनमें केवल मिथ्यात्व गुणस्थान ही सम्भव है ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञीपंचेन्द्रिय तियचोके बारह जीवसमासोंमें, सम्यग्दृष्टि जीवका उत्पाद नहीं है, अर्थात् सम्यक्त्व सहित ही मरकर इनमे उत्पन्न नहीं होता है। (ध. १/१,१.२६/गा. १३३/२०६); (गो.जी./मू./१२६/३३६) । द्र.सं./टी./४१/१७६/२ इदानीं सम्यक्त्वग्रहणात्पूर्व देवायुष्कं विहाय ये बतायुष्कास्तान् प्रति सम्यक्त्वमाहात्म्यं कथयति । हेछिमछप्पुढवीणं जोइसवणभवणसव्वइच्छीणं । पुण्णिदरे ण हि समणो णारयापुण्णे । (गो. जी./मू./१३८/३३६) । तमेवार्थ प्रकारान्तरेण कथयतिज्योतिर्भावनभौमेषु षट्स्वधः श्वभ्रभूमिषु । तिर्यक्षु नृसुरस्त्रीषु सद्दृष्टिनेव जायते। अब जिन्होंने सम्यवत्व ग्रहण करनेके पहले ही देवायुको छोडकर अन्य किसी आयुका बन्ध कर लिया है उनके प्रति सम्यक्त्वका माहात्म्य कहते हैं। ( यहाँ दो गाथाएँ उद्धृत की हैं)। (गो. जी./मू /१२८/३३६ से)-प्रथम नरकको छोडकर अन्य छह नरकों में ज्योतिषी, व्यन्तर व भवनवासी देवोंमें, सब स्त्री लिंगों में और तिर्यचोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। (गो. जी./ मू./१२८) । इसी आशयको अन्य प्रकारसे कहते हैं-ज्योतिषी, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें, नीचेके ६ नरकोंकी पृथिवियोंमें, तिथंचोंमें और मनुष्यणियों व देवियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। ५. कृतकृत्य वेदक सहित जीवोंके उत्पत्ति क्रम सम्बन्धी नियम क. पा/२/२-/६२४२/२१५/७ पढमसमयकदकरणिज्जो जदि मरदि णियमो देवेसु उध्वज दि । जदि णेरइएसु तिरिक्वेसु मणुस्सेसु वा उववज्जदि तो णियमा अंतोमुत्तकदकरणिज्जो त्ति जइवसहाइरियपरूविद चुष्णिमुत्तादो।- कृतकृत्यवेदक जीव यदि कृतकृत्य होनेके प्रथम समयमें मरण करता है तो नियमसे देवों मे उत्पन्न होता है। किन्तु जो कृतकृत्यवेदक जीव नारकी तियंचों और मनुष्योंमे उत्पन्न होता है वह नियमसे अन्तर्मुहूर्त काल तक कृतकृत्यवेदक रहकर ही मरता है। इस प्रकार यतिवृषभाचार्य के द्वारा कहे चूर्ण सूत्रसे जाना जाता है। ध.२/१,१/४८१/४ तत्थ उप्पज्जमाण कदरणिज्ज पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि । - उन्हीं भोग भूमिके तिर्यचोंमें उत्पन्न होनेवाले (बद्धायुष्क -देखो अगला शीर्षक ) जीवोके कृतकृत्य वेदकको अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है। गो. क./म./५६२/७६४ देवेसु देवमणुवे सुरणरतिरिये चउगईसुंपि । कदकरणिज्जुष्पत्ती कमसो अंतोमुहुत्तेण ।५६२कृतकृत्य वेदकका काल अन्तर्मुहूर्त है। ताका चार भाग कीजिए। तहाँ क्रमतें प्रथमभागका अन्तर्मुहूर्त करि मरया हुआ देवविधै उपजे है, दूसरे भागका मरा हुआ देववियु व मनुष्यविषै, तीसरे भागका देव मनुष्य व तियंचविषै, चौथे भागका देव, मनुष्य, तिर्यंच व नारक (इन चारोंमें से) किसी एक विषै उपजै है। (ल, सा./५/१४६/२००)। ६. सम्यग्दृष्टि मरनेपर पुरुषवेदी ही होता है ४. बद्घायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों ही गतियोंके उत्तम स्थानों में उत्पन्न होता है ध.२/१,१/५१०/१० देव णेरइय मणुस्स-असजदसम्माइद्विणो जदि मणुस्सेस उप्पज्जति तो णियमा पुरिसवेदेसु चेव उप्पंज्जति ण अण्णवेदेसु तेण पुरिसवेदो चेव भणिदो। देव नारकी और मनुष्य असंयत सम्यरदृष्टि जीव मरकर यदि मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, तो नियमसे पुरुषवेदी मनुष्योंमे ही उत्पन्न होते है; अन्य बेदवाले मनुष्योंमें नहीं। इससे असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तके एक पुरुषवेद ही कहा है (विशेष दे० पर्याप्ति)। घ १/१,१,६३/३३२/१० हुण्डावसर्पिण्या स्त्रीषु सम्यग्दृष्टय' किन्नोत्पद्यन्ते इति चेन्न, उत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते । अस्मादेवालि । -प्रश्नहुण्डा सर्पिणीकाल सम्बन्धी स्त्रियों में सम्यगदृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं । प्रश्न-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है। उत्तर-इसी (ष.खं.) आगमप्रमाणसे जाना जाता है। क. पा./२/२/१२४०/२१३/३ खीणदंसणमोहणीयं चउग्गईम उप्पजमाण पेक्विदूण। जिनके दर्शनमोहनीयका क्षय हो गया है ऐसे जीव चारों गतियों में उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। ध. २/१,१/४८१/१ मणुस्सा पुबबद्ध-तिरिक्खयुगापच्छा सम्मत्तं घेत्तूण दसणमोहणीय खविय खइय सम्माइट्ठी होदूण असंखेज-वस्सायुगे तिरिक्खेसु उप्पज्जंति ण अणस्थ। = जिन मनुष्योंने सम्यग्दर्शन होनेसे पहले तिर्यचायुको बाँध लिया के पीछे सम्यक्त्वको ग्रहण कर और दर्शनमोहनीयका क्षपण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात बर्षकी आयुवाले भोगभूमिके तिर्यंचोंमे ही उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। (विशेष दे० तिर्यच/२)। ध. १/१,१,२५/२०१८ सम्यग्दृष्टीना बद्घायुषां तत्रोत्पत्तिरस्तीति तत्रासंयतसम्यग्दृष्टयः सन्ति । - बद्धायुक (क्षायिक) सम्यग्दृष्टियोंकी नरकमें उत्पत्ति होती है, इसलिए नरकमें असंयत सम्यग्दृष्टि पाये जाते हैं। ध. १/१,१,२५/२०७/१ प्रथमपृथिव्युत्पत्ति प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्न्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात् ।- सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम पृथिवीमें उत्पन्न होते हैं. इसका आगममे निषेध नहीं है। प्रश्न--प्रथम पृथिवी की भौति द्वितीयादि पृथिवियों में भी वे क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं। उत्तर-नहीं, क्यो कि, द्वितीयादि पृथि - वियोंकी अपर्याप्त अवस्थाके साथ सम्यग्दर्शनका विरोध है । ( विशेष -दे० नरक/४ । ४. सासादन गुणस्थानमें जीवोंके जन्म सम्बन्धी मतभेद १. नरकमें जन्मनेका सर्वथा निषेध है ध.६/१,६-६/४७/४३८/८ सासणसम्माइट्ठीणं च णिरयगदिम्हि पवेसो त्थिा एत्थ पवेसापदुप्पायण अण्णहाणुववत्तीदो।-सासादन सम्यग्दृष्टियोंका नरकगतिमें प्रवेश ही नहीं है, क्योंकि यहाँ प्रवेशके प्रतिपादन न करनेकी अन्यथा उपपत्ति नहीं बनती। (सूत्र नं.४६ मे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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