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________________ ३१३ ३. सम्यग्दर्शनमें जीवके जन्म सम्बन्धी नियम ४. उपपादज जन्मकी विशेषताएँ ति प./२/३१३-३१४ पावेणं गिरयबिले जादूर्ण ता मुहुत्तगंमेत्ते । छप्पज्जत्ती पात्रिय आकस्सियभयजुदो होदि ।३१३॥ भीदीए कंपमाणो चलिदं दुक्खेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाऊहमज्झे पडिदूर्ण तत्थ उप्पलइ ॥३१॥ -- नारकी जीव पापसे नरकबिलमें उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र कालमे छह पर्याप्तियोंको प्राप्त कर आकस्मिक भयसे युक्त होता है ।३१३। पश्चात् वह नारकी जीव भयसे काँपता हुआ बड़े कष्टसे चलनेके लिए प्रस्तुत होकर और छत्तीस आयुधोके मध्य में गिरकर वहाँसे उछलता है ( उछलनेका प्रमाण-दे० नरक/२)। ति प /८/९६७ जायते सुरलोए उबबाद पुरे महारिहे सयणे । जादा य मुहत्तेण एप्पज्जत्तीओ पार्वति ५६७।- देव सुरलोकके भीतर उपपादपुर में महाध शय्यापर उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होने पर एक मुहूर्त मे ही छह पर्याप्तियोको भी प्राप्त कर लेते हैं १५६७५ प्रवेश होनेपर वीर्यका कलल बनता है, जो दस दिन तक काला रहता है और अगले १० दिनतक स्थिर रहता है ।१००७१ दूसरे मास वह बुदबुदरूप हो जाता है, तीसरे मासमें उसका घट्ट बनता है और चौथे मासमें मांसपेशीका रूप धर लेता है ।१००८) पाँचवें मास उसमें पाँच 'लव ( अंकुर ) उत्पन्न होते हैं। नीचेके अंकुरोंसे दो पैर, ऊपर के अंकुरसे मस्तक और बीचके अंकुरोंसे दो हाथ उत्पन्न होते हैं। छठे मास उक्त पाँच अंगोंकी और आँख, कान आदि उपांगोंकी रचना होती है ।१००६। सातवें मास उन अवयवोंपर चर्म व रोम उत्पन्न होते हैं और आठवें मास वह गर्भमें ही हिलने-डुलने लगता है। नवमें या दसवें मास बह गर्भसे बाहर आता है ।१०१०। आमाशय और पक्वाशयके मध्य बह जेरसे लिपटा हुआ नौ मास तक रहता है ।१०१२। दाँतसे चबाया गया कफसे गीला होकर मिश्रित हुआ ऐसा. माता द्वारा भुक्त अन्न माताके उदरमें पित्तसे मिलकर कडया हो जाता है । १८१५॥ वह कड्डा अन्न एक-एक बिन्दु करके गर्भस्थ बालकपर गिरता है और वह उसे सर्वांगसे ग्रहण करता रहता है ११०१६। सातवें महीनेमें जब कमलके डंठलके समान दीर्घ नाल पैदा हो जाता है तब उसके द्वारा उपरोक्त आहारको ग्रहण करने लगता है। इस आहारसे उसका शरीर पुष्ट होता है ।१०११ ५. वीर्यप्रवेशके सात दिन पश्चात तक जीव गम में आ सकता है यशोघर चरित्र/ पृ० १०६ वीर्य तथा रज मिलनेके पश्चात् ७ दिन तक जीव उसमें प्रवेश कर सकता है, तत्पश्चात वह स्त्रवण कर जाता है। ३. सम्यग्दर्शन में जीवके जन्म सम्बन्धी नियम ३. इसलिए कदाचित् अपने वीर्यसे स्वयं भी अपना पुत्र होना सम्मव है यशोधर चरित्र | पृ० १०६. अपने वीर्य द्वारा बकरी के गर्भ में स्वयं मरकर उत्पन्न हुआ। ७. गर्भवासका काल प्रमाण ध १०/४,२,४,५८/२७८/८ गभम्मिपदिदपढमसमयप्पहाडि के वि सत्तमासे गन्भे अच्छिदूण गम्भादो हिस्सरं ति, केवि अट्ठमासे, केवि णवमासे, के वि दसमासे, अच्छिदूण गन्भादो णिप्फिडं ति ।-गर्भ में आनेके प्रथम समयसे लेकर कोई सात मास गर्भ में रहकर उससे निकलते है, कोई आठ मास, कई नौ मास और कोई दस मास रहकर गर्भसे निकलते हैं। १. अबद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि उच्च कुल व गतियों आदिमें ही जन्मता है नीच में नहीं र. क.श्रा/३५-३६ सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यड्नसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रता च ब्रजन्ति नाप्यवतिकाः।३। ओजस्तेजो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः। महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता. १३६-जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हैं वे बतरहित होनेपर भी नरक, तियच, नपंसक व स्त्रीपनेको तथा नीचकुल, विक्लांग, अल्पायु और दरिद्रपनेको प्राप्त नहीं होते हैं ।३५॥ शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यशकी वृद्धि, विजय विभवके स्वामी उच्चकुली धर्म, अर्थ, काम, मोक्षके साधक मनुष्योंमें शिरोमणि होते हैं ।३६। (द्र. सं./टी./४१/१७८/८ पर उदधृत)। द्र. सं./टी./४१/१७८/७ इदानीं येषां जीवानां सम्यग्दर्शनग्रहणात्पूर्वमायुर्वन्धो नास्ति तेषां व्रताभावेऽपि नरनारकादिकुत्सितस्थानेषु जन्म ने भवतीति कथयति ।- अब जिन जोवोंके सम्यग्दर्शन ग्रहण होनेसे पहले आयुका बन्ध नहीं हुआ है, वे बत न होनेपर भी निन्दनीय नर नारक आदि स्थानों में जन्म नहीं लेते, ऐसा कथन करते हैं। ( आगे उपरोक्त श्लोक उद्धृत किये हैं। अर्थात् उपरोक्त नियम अबद्धायुष्कके लिए जानना बद्धायुष्कके लिए नहीं)। का. अ./मू /३२७ सम्माइट्ठी जोवो दुग्गदि हेर्दू ण बंधदे कम्म । बहु भवेस बददुसम्म तं पि णासेदि ।३२७१ =सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे कर्मोका बन्ध नहीं करता जो दुर्गतिके कारण हैं बल्कि पहले अनेक भवोमें जो अशुभ कर्म बाँधे हैं उनका भी नाश कर देता है। ८. रज व वीर्यसे शरीर निर्माणका क्रम भ.आ /भू./१००७-१०१७ कललगद दसरतं अच्छदि कलुसकिद च दसरतं । थिरभूदं दसरतं अच्छवि गभम्मि तंबीयं ।१००७) तत्तो मासं बुढचुदभूदं अच्छदि पुणो बिघणभूदं। जायदि मासेण तदो मंसपेसी य मासेण ।१००८। मासेण पंचपुलगा तत्तो हुति हु पुणो वि मासेण । अंगाणि उबंगाणि य णरस्स जायं ति गम्भम्मि ।१००४॥ मासम्मि सत्तमे तस्स होदि चम्मणहरोमणिप्पत्ती। फंदणमट्ठममासे णवमे इसमे य णिग्गमणं ।१०१०। आमासयम्मि पक्कासयस्स उवरि अमेझमज्झभिम । वस्थिपडलपच्छण्णो अच्छइ गम्भे हु णवमासं ११०१२॥ दन्तेहिं चविदं बोलणं च सिभेण मेलिदं संत। मायाहारिपमण्णं जुत्तं पिरोण कडुएण ११०११ बमिगं अमेझसरिसं बादविओजिदरस खलं गन्भे। आहारेदि समंता उबरि थिप्पंतग णिच्च ११०१६ तो सत्तमम्मि मासे उप्पलणालमरिसी हवह णाही। तत्तो पाए बमिय तं आहारेदि णाहीए ११०१७१ -माताके उदरमें वीर्यका २. बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टिकी चारों गतियों में उत्पत्ति संभव है गो. जी./जी. प्र./१२७/२३८/१५ मिथ्यादृष्टयसंयतगुणस्थानमृताश्चतुनतिषु...चोत्पद्यन्ते । -मिथ्यादृष्टि और असंयत गुणस्थानवर्ती चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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