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________________ चैत्य चैत्यालय ३०२ २. चैत्यालय निर्देश रुणपाणिचरणाओ १८७३। अट्ठम्भहियसहस्सप्पमाणबंजणसमूहसहिदाओ। बत्तीसलक्खणेहि जुत्ताओ जिणेसपडिमाओ ।१८७४। == ( पाण्डुक वनमें स्थित) ये जिनेन्द्र प्रतिमाएँ भिन्नइन्द्रनीलमणि ब मरकतमणिमय कुंतल तथा भृकुटियोंके अग्रभागसे शोभाको प्रदान करनेवाली, स्फटिक व इन्द्रनोलमणिसे निर्मित धवल व कृष्ण नेत्र युगलसे सहित, बज्रमय दन्तपंक्तिकी प्रभासे संयुक्त, पल्लवके सदृश अधरोष्ठसे सुशोभित, हीरेसे निमित उत्तम नखोसे विभूषित, कमलके समान लाल हाथ पैरोसे विशिष्ट, एक हजार आठ व्यंजनसमूहोंसे सहित और बत्तीस लक्षणोंसे युक्त है। (त्रि. सा./६८५) रा वा/३/१०/१३/१७८/३४ कनकमयदेहास्तपनीयहस्तपादतलतालुजिह्वालोहिताक्षमणिपरिक्षिप्ता कस्फटिकमणिनयना अरिष्टमणिमयनयनतारकारजतमयदन्तपड्क्तयः विद्रुमच्छायाधरपुटा अब्जनमूलमणिमयाक्षपक्ष्मभूलता नीलमणिविरचितासिताञ्चिकेशाः भव्यजनस्तवनवन्दनपूजनाचीं अर्हत्प्रतिमा अनाद्यनिधना---(सुमेरु पर्वतके भद्रशाल बनमें स्थित चार चैत्यालयोमें स्थित जिनप्रतिमाओं) की देह कनकमयी है; हाथ-पाँवके तलवे-तालु व जिहा तपे हुए सोनेके समान लाल हैं; लोहिताक्ष मणि हुकमणि व स्फटिकमणिमयी आँखें है; अरिष्टमणिमयी आँखोंके तारे हैं; रजतमयी दन्तपंक्ति हैं: विद्रुममणिमयी होंठ है; अंजनमूल मणिमयी आँखोकी पलकें व भूलता है; नीलमणि रचित सरके केश हैं। ऐसी अनादिनिधन तथा भव्यजनोंके स्तवन, वन्दन, पूजनादिके योग्य अईत्प्रतिमा है। १०. सिंहासन व यक्षों आदि सहित प्रतिमाओंका निर्देश ति.प./३/५२ सिहासणादिसहिदा चामरकरणागजक्वमिहुणजुदा। णाणाविहरयणमया जिणपडिमा तेसु भवणेसं २ -उन (भवनवासी देवोंके ) भवनोमें सिंहासनादिकसे सहित, हाथमें चमर लिये हुए नागयक्षयुगलसे युक्त और नाना प्रकारके रत्नों से निर्मित, ऐसी जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं । (रा.वा/३/१०/१३/१७६/२); (ह.पु // ३६३), (त्रि.सा./१८६-९८७) ११. प्रतिमाओंके पासमें अष्ट मंगल द्रव्य तथा १०० उपकरण रहनेका निर्देश ति. प/१/१८७६-१८८० ते सव्वे उवयरणा घंटापहूदीओ तह य दिव्वाणि । मंगलदव्याणि पुढं जिणिदपासेसु रेहति । १८१६३ भिंगारकलसदप्पणचामरधयवियणछत्तमुपयट्ठा । अठुत्तरसयसखा पत्तेक मंगला तेसुं १८८० -घंटा प्रभृति वे सब उपकरण तथा दिव्य मंगल द्रव्य पृथक्-पृथक् जिनेन्द्रप्रतिमाओके पासमें सुशोभित होते हैं ।१८७१। भृगार, कलश, दर्पण, चवर, ध्वजा, बीजना, छत्र और मुप्रतिष्ठ-ये आठ मंगल द्रव्य हैं, इनमेंसे प्रत्येक वहाँ १०८ होते हैं १८८०। ( ज.प./१३/११२-अहं तके प्रकरणमें अष्ट मंगलद्रव्य ); (त्रि.सा./६८६); (द.पा./टी./३५/२६/३) अहतके प्रकरण में अष्टद्रव्य। ह.पु./५/३६४-३६५ भृगारकलशादर्शपात्रीशङ्का समुद्गकाः। पालिकाधूपनीदीपकूर्चा पाटलिकादयः ।३६४। अष्टोत्तरशतं ते पि कंसतालनकादयः। परिवारोऽत्र विज्ञेयः प्रतिमानों यथायथम् ।६३५॥ -- झारी कलश, दर्पण, पात्री, शंख, सुप्रतिष्ठक, ध्वजा, धूपनी, दीप, कूर्च, पाटलिका आदि तथा झांझ, मजीरा आदि १०८ उपकरण प्रतिमाओके परिवारस्वरूप जानना चाहिए, अर्थात ये सब उनके समीप यथा योग्य विद्यमान रहते हैं। १२. प्रतिमाओंके लक्षणोंकी सार्थकता ध.६/१,१.४४/१०७/४ कधमेदम्हादो सरीरादो गंथस्स पमाणत्तमव- गम्मदे । उच्चदे-णिराउहत्तादो जाणाविदकोह-माण-माया-लोह जाइ-जरा-मरण-भय-हिंसाभावं, णिफंदक्खेवरवणादो जाणाविदतिवेदोदयाभाव । णिराहरणत्तादो जाणाविदरागाभा, भिउडिविरहादी जाणाविदकोहाभावं । बग्मण-णचण-हसण-फोडणवरखमुत्त-जडामउड-णरसिरमालाधरण विरहादो मोहाभाव लिगं । णिरं बरत्तादो लोहाभावलिगं । .. अग्गि-विसासणि-वज्जाउहादीहि बाहाभावादो घाइकम्माभावलिगं। ...बलियावलोयणाभावादो सगासेसजीवपदेसट्ठियणाण-दसणावरणाणं णिस्सेसाभावलिगं । ""आगासगमणेण पहापरिवेढेण तिहुवणभवणबिसारिणा ससुरहिसांधेण च जाणाविदअमाणुसभावं। ...तदो एदं सरीरं राग-दोस-मोहाभावं जाणावेदि। - प्रश्न-इस (भगवान महावीरके) शरीरसे ग्रन्थकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है। उत्तर-(१) निरायुध होनेसे क्रोध मान माया लोभ, जन्म, जरा, मरण, भय और हिसाके अभावका सूचक है। (२) स्पन्दरहित नेत्र दृष्टि होनेसे तीनो वेदोंके उदयके अभावका ज्ञापक है। (३) निराभरण होनेसे रागका अभाव । (४) भृकुटिरहित होनेसे क्रोधका अभाव। (५) गमन, नृत्य, हास्य, विदारण, अक्षसूत्र, जटा मुकुट और नरमुण्डमालाको न धारणा करनेसे मोहका अभाव । (६) वस्त्ररहित होनेसे लोभका अभाव । (७) अग्नि, विष, अशनि और बज्रायुधादिकोसे बाधा न होनेके कारण घातिया कोंका अभाव । (८) कुटिल अवलोकनके अभावसे ज्ञानावरण व दर्शनावरणका पूर्ण अभाव। (१) गमन, प्रभामण्डल, त्रिलोकव्यापी सुरभिसे अमानुषता। इस कारण यह शरीर राग-द्वेष एवं मोहके अभावका ज्ञापक है। (इस वीतरागतासे ही उनकी सत्य भाषा व प्रामाणिकता सिद्ध होती है)। १३. अन्य सम्बन्धी विषय १. प्रतिमामें देवत्व-दे० देव/I/१/३ २. देव प्रतिमामें नहीं हृदयमें है-दे० पूजा/३ ३. प्रतिमाको पूजाका निर्देश-दे० पूजा/३ ४. जटा सहित प्रतिमाका निर्देश-दे० केश लौच/४ २. चैत्यालय निर्देश १. निश्चय व्यवहार चैत्यालय निर्देश मो.पा./मू./८/९ बुद्ध चं बोहंतो अप्पाणं चेतयाई अण्णं च । पंचमहब्बयसुद्धणाणमयं जाण चेइहर/८/ चेइहर जिणमग्गे छक्कायहियंकर भणियं ।। बो.पा./टी./८/७६/१३ कर्मतापन्नानि भव्यजीववृन्दानि बोधयन्तमात्मान चैत्यगृहं निश्चयचैत्यालय हे जीव ! त्वं जानीहि निश्चयं कुरु ।... व्यवहारनयेन निश्चयचैत्यालयप्राप्तिकारणभूतेनान्यच्च दृषदिष्टकाकाष्टादिरचिते श्रीमद्भगवत्सर्वज्ञवीतरागप्रतिमाधिष्ठितं चैत्यगृहं । -स्व ब परकी आत्मा को जाननेवाला ज्ञानी आत्मा जिसमें वसता हो ऐसा पंचमहावत संयुक्त मुनि चैत्यगृह है। जिनमार्गमें चैत्यगृह षट्काय जीवोंका हित करनेवाला कहा गया है ।। कर्मबद्ध भव्यजीवोंके समूहको जाननेवाला आत्मा निश्चयसे चैत्यगृह या चैत्यालय है तथा व्यवहार नयसे निश्चय चैत्यालयके प्राप्तिका कारणभूत अन्य जो इट, पत्थर व काष्टादि से बनाये जाते हैं तथा जिनमें भगवत् सर्वज्ञ बीतराग की प्रतिमा रहती है वह चैत्यगृह है। * चैत्यालयमें देवत्व-दे० देव/I/१/३ २. मवनवासी देवोंके चैत्यालयोंका स्वरूप ति.प./३/गा.नं./भावार्थ-सर्व जिनालयों में चार चार गोपुरोंसे युक्त तीन कोट, प्रत्येक बीथी ( मार्ग ) में एकमें एक मानस्तम्भ व नौ स्तूप तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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