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________________ चैत्य चैत्यालय ३०१ १. चैत्य या प्रतिमा निर्देश केवल पिच्छी कमण्डलु सहित साधुकी प्रतिमा होती है। शेष कोई भेद नहीं है)। अन्य भी नौ प्रकारका माप जानना चाहिए। (३) मुद्रा-लक्षणोंसे संयुक्त भी प्रतिमा यदि नेत्ररहित हो या मुन्दी हुई ऑखवाली हो तो शोभा नहीं देती, इसलिए उसे उसकी आँख खुली रखनी चाहिए ७२। अर्थात् न तो अत्यन्य मुन्दी हुई होनी चाहिए और न अत्यन्त फटी हुई। ऊपर नीचे अथवा दाये-बायें दृष्टि नहीं होनी चाहिए ७३। बल्कि शान्त नासाग्र प्रसन्न व निर्विकार होनी चाहिए। और इसी प्रकार मध्य व अधोभाग भी वीतराग प्रदर्शक होने चाहिए।७४। ७. शरीर रहित सिद्धोंकी प्रतिमा-कैसे सम्मव है भ, आ./वि./४६/१५३/१६ ननु सशरीरस्थात्मनः प्रतिबिम्ब युज्यते, अशरीराणां तु शुद्धात्मनां सिद्धाना कथं प्रतिबिम्बसभव । पूर्वभावप्रज्ञापन नयापेक्षया...शरीरसंस्थानवच्चिदात्मापि संस्थानवानेव संस्थानवतोऽव्यतिरिक्तत्वाच्छरीरस्थात्मवत् । स एव चायं प्रतिपत्रसम्यक्त्वाद्यगुण इति स्थापनासंभवः । =प्रश्न-शरीरसहित आत्माका प्रतिविम्ब मानना तो योग्य है, परन्तु शरीर रहित शुद्धात्मस्वरूप सिद्धोंकी प्रतिमा मानना कैसे सम्भव है। उत्तर-पूर्वभावप्रज्ञापन नयको अपेक्षासे सिद्धोंकी प्रतिमाएँ स्थापना कर सकते हैं, क्योकि जो अब सिद्ध हैं वही पहले सयोगी अवस्थामें शरीर सहित थे। दूसरी बात यह है कि जैसी शरीरकी आकृति रहती है वैसी ही चिदात्मा सिद्धकी भी आकृति रहती है। इसलिए शरीरके समान सिद्ध भी संस्थानवान है। अत. सम्यक्त्वादि अष्टगुणोसे विराजमान सिद्धोकी स्थापना सम्भव है। ८. दिगम्बर हो प्रतिमा पूज्य है ४. सदोष प्रतिमासे हानि वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/परि. ४/श्लो. नं. अर्थनाशं विरोध च तिर्यग्दृष्टि भयं तथा । अधस्तात्सृतनाशं च भार्यामरणमूर्ध्वगा ।७५। शोकमुद्वेगसतापं स्तब्धा कुर्याद्धनक्षयम् . शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थाशाभिवृद्धिप्रदा भवेत् ७६। सदोषार्चा न कर्तव्या यतः स्यादशुभावहा । कुर्याद्रौद्रा प्रभोनशिं कृशाङ्गी द्रव्यसंक्षयम् ।७७) संक्षिप्ताङ्गी क्षयं कुर्याच्चिपिटा दुखदायिनी। विनेत्रा नेत्रविध्वंसं हीनवक्त्रा स्वशोभनी ७८। व्याधि महोदरी कुर्याद हृद्रोगं हृदये कृशा। अंसहीनानुजं हन्याच्छ्ष्क जधा नरेन्द्रही ७४ा पादहीना' जनं हन्यात्कटिहोना च वाहनम् । ज्ञात्वैवं कारयेज्जैनी प्रतिमा दोषवर्जिताम् ।८० =दायीं-बायीं दृष्टिसे अर्थका नाश, अधो दृष्टिसे भय तथा ऊर्ध्व दृष्टिसे पुत्र व भार्याका मरण होता है।७। स्तब्ध दृष्टि से शोक, उद्वेग, संताप तथा धनका क्षय होता है । और शान्त दृष्टि सौभाग्य, तथा पुत्र व अर्थकी आशामे वृद्धि करनेवाली है ७६। सदोष प्रतिमाकी पूजा करना अशुभदायी है, क्योंकि उससे पूजा करनेवालेका अथवा प्रतिमाके स्वामीका नाश, अंगोंका कृश हो जाना अथवा धनका क्षय आदि फल प्राप्त होते हैं । ७७१ अंगहीन प्रतिमा क्षय व दुखको देनेवाली है। नेत्रहीन प्रतिमा नेत्रविध्वंस करनेवाली तथा मुग्वहीन प्रतिमा अशुभकी करनेवाली है ।७८। हृदयसे कृश प्रतिमा महोदर रोग या हृदयरोग करती है। अंस या अंगहीन प्रतिमा पुत्रको तथा शुष्क जंघावाली प्रतिमा राजाको मारती है ।७१। पाद रहित प्रतिमा प्रजाका तथा कटिहीन प्रतिमा वाहनका नाश करती है। ऐसा जानकर जिनेन्द्र भगवान्की प्ततिमा दोषहीन बनानी चाहिए ।८० ५. पाँचों परमेष्ठियोंकी प्रतिमा बनाने का निर्देश भ आ./वि./४६/१५४/४ कस्य । प्रत्यासत्ते श्रुतयोरेवाह सिद्धयोः प्रतिबिम्बग्रहणं । अथवा मध्यप्रक्षेप' पूर्वोत्तरगोचरस्थापनापरिग्रहार्थस्तेन साध्वादिस्थापनापि गृह्यते । = प्रश्न-प्रतिबिम्ब किसका होता है। उत्तर-प्रस्तुत प्रसंगमें अहंत् और सिद्धोंके प्रतिमाओका ग्रहण समझना चाहिए। अथवा यह मध्य प्रक्षेप है, इसलिए पूर्व विषयक और उत्तर विषयक स्थापनाका यहाँ ग्रहण होता है। अर्थात् पूर्व विषय तो अहंत और सिद्ध है ही और उत्तर विषय ( इस प्रकरणमें आगे कहे जानेवाले विषय ) श्रुत, शास्त्र, धर्म, साधु, परमेष्ठी, आचार्य, उपाध्याय बगैरह है। इनका भी यहाँ संग्रह होनेसे, इनकी भी प्रतिमाएँ स्थापना होती है। चैत्यभक्ति/३२ निराभरणभासुर विगतरागवेगोदयान्निरम्बरमनोहर प्रकृतिरूपनिर्दोषतः । निरायुध निर्भयं विगत हिस्यहिसाक्रमानिरामिषसुतृप्ति द्विविधवेदनाना क्षयात् ॥३२॥ --हे जिनेन्द्र भगवान् । आपका रूप रागके आवेगके उदयके नष्ट हो जानेसे आभरण रहित होनेपर भी भासुर रूप है; आपका स्वाभाविक रूप निर्दोष है इसलिए वस्त्ररहित नग्न होनेपर भी मनोहर है; आपका यह रूप न औरोंके द्वारा हिस्य है और न औरोंका हिसक है, इसलिए आयुध रहित होने पर भी अत्यन्त निर्भय स्वरूप है; तथा नाना प्रकार की क्षुत्पिपासादि वेदनाओके विनाश हो जानेसे आहार न करते हुए भी तृप्तिमान है। बो, पा./टी./१०/७८/१८ स्वकीयशासनस्य या प्रतिमा सा उपादेया ज्ञातव्या । या परकीया प्रतिमा सा हेया न वन्दनीया। अथवा सपरा-स्वकीयशासनेऽपि या प्रतिमा परा उत्कृष्टा भवति सा वन्दनीया न तु अनुत्कृष्टा । का उत्कृष्टा का वानुत्कृष्टा इति चेदुच्यन्ते या पञ्चजैनाभासैरञ्जलिकारहितापि नग्नमूर्तिरपि प्रतिष्ठिता भवति सा न वन्दनीया न चर्चनीया च । या तु जैनाभासरहितः साक्षादाईसंधैः प्रतिष्ठिता चक्षुःस्तनादिषु विकाररहिता समुपन्यस्ता सा वन्दनीया। तथा चोक्तम् इन्द्रनन्दिना भट्टारकेण-चतुःसंघसंहिताया जैनं बिंबं प्रतिष्ठितं । नमेन्नापरसंघाया यतो न्यासविपर्ययः ।। -स्वकीय शासनकी प्रतिमा ही उपादेय है और परकीय प्रतिमा हेय है, बन्दनीय नहीं है । अथवा स्वकीय शासनमे भी उत्कृष्ट प्रतिमा वन्दनीय है अनुत्कृष्ट नहीं। प्रश्न-उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रतिमा क्या उत्तर-पच जैनाभासोंके द्वारा प्रतिष्ठित अंजलिका रहित तथा नग्न भी मूर्ति बन्दनीय नही है। जैनाभासोंसे रहित साक्षात् आईत सघोंके द्वारा प्रतिष्ठित तथा चक्षु व स्तन आदि विकारोंसे रहित प्रतिमा ही बन्दनीय है। इन्द्रनन्दि भट्टारक ने भी कहा हैनन्दिसंघ, सेनसघ, देवसंघ और सिंहसघ इन चार संघोंके द्वारा प्रतिष्ठित जिनबिन ही नमस्कार की जाने योग्य है, दूसरे संघोंके द्वारा प्रतिष्ठित नहीं, क्योंकि वे न्याय व नियमसे विरुद्ध है। ९. रंगीन अगोपांगों सहित प्रतिमाओंका निर्देश ति. प /१/१८७२-१८७४ भिण्णिदणीलमरगयकुंतलभूवग्गदिण्णसोहाओ। फलिहिदणीलणिम्मिदधवलासिदणेत्तजुयलाओ ।१८७२। वज्जमयदंतपंतीपहाओ पल्लवसरिच्छअधराओ। हीरमयबरणहाओ पउमा ६. पाँचों परमेष्ठियोंकी प्रतिमाओंमें अन्तर वसुनन्दि प्रतिष्ठापाठ/परि. ४/६९-७० प्रातिहार्याष्टकोपेत संपूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानुविद्धाड्गं कारयेद्विम्बमहत ६६। प्रातिहार्येविना शुद्ध' सिद्ध बिम्बमपीदृशम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां च यथागमम् । =आठ प्रातिहार्योसे युक्त तथा सम्पूर्ण शुभ अवयवोंवाली, वीतरागताके भावसे पूर्ण अर्हन्तको प्रतिबिम्ब करनी चाहिए।६। प्रातिहार्योसे रहित सिद्धोंकी शुभ प्रतिमा होती है। आचार्यों, उपाध्यायों व साधुओंकी प्रतिमाएं भी आगमके अनुसार बनानी चाहिए 1७०। (वरहस्त सहित आचार्यकी. शास्त्रसहित उपाध्यायकी तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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