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________________ चेतना च । - स. सा./आव, ता. वृ/३८७ ज्ञानाज्ञानभेदेन चेतना तावद्विविधा भवति (ता. वृ.) । अज्ञानचेतना । सा द्विधा कर्म चेतना कर्मफलचेतना - ज्ञान और अज्ञानके भेदसे चेतना दो प्रकार की है। तहाँ अज्ञान चेतना दो प्रकार की है-कर्मचेलना और कर्मफलचेतना । प्र. सा./ता.वृ./१५४ अथ ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण त्रिया चेन विशेषेण विचारयति । ज्ञान मत्यादिभेदेनाष्टविकल्पं भवति ।... ..कर्म शुभाशुभशुद्धोपयोगभेदेनानेकविधं त्रिविधं भणितम् । ज्ञान, कर्म व कर्मफल ऐसी जो तीन प्रकार चेतना उसका विशेष विचार करते हैं । ज्ञान मतिज्ञान आदि रूप आठ प्रकारका है। कर्म शुभ अशुभ व शुद्धोपयोग आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है अथवा इन्हीं तीन भेदरूप है। पंध. / उ / ११२-१६५ स्वरूपं चेतना जन्तोः सा सामान्यात्सदेकधा । द्विशेषादपि द्वेधा क्रमात्सा नाक्रमादिह । ११२ । एकधा चेतना शुद्धाशुद्धस्यैकविधरमत शुद्धाशुद्धोपसयाज्ञानचेतना ॥१६४॥ अशुद्धा चेतना द्वेधा तद्यथा कर्मचेतना । चेतनत्वात्फलस्यास्य स्यात्कर्म फल चेतना ॥ ११३॥ जीवके स्वरूपको चेतना कहते हैं, और वह सामान्यरूपसे अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे सदा एक प्रकारकी होती है । परन्तु विशेषरूपसे अर्थात् पर्याय दृष्टितेबह ही दो प्रकार होती हैशुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना । १६२॥ शुद्धात्माको विषय करनेवाला शुद्धज्ञान एक ही प्रकारका होनेसे शुद्ध चेतना एक ही प्रकारकी है। १६४ | अशुद्धचेतना दो प्रकारकी है-कर्मचेतना व कर्मफल चेतना ॥१६५॥ चेतना के लक्षण ४. ज्ञान व अज्ञान स. सा /आ /गा. नं. ज्ञानी हि... ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वास्कर्मबन्धं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति । ३१६ | चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः । ३८६ । ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना । ३८७ = ज्ञानी तो ज्ञानचेतनामय होनेके कारण केवल ज्ञाता ही है, इसलिए वह शुभ तथा अशुभ कर्मबन्धको तथा कर्मफलको मात्र जानता ही है | २११ चारित्रस्वरूप होता हुआ वह आत्मा) अपनेको अर्थात् ज्ञानमात्रको चेतता है इसलिए स्वयं ही ज्ञानचेतना है हानसे अन्य ( भावों में ) 'यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करना सो अज्ञानचेतना है। पंध /उ. / १६६-१६७ अत्रात्मा ज्ञानशब्देन वाच्यस्तन्मात्रत स्वयं । स चेत्यते अनया शुद्ध. शुद्धा सा ज्ञानचेतना | १६६ | अर्थाज्ज्ञानं गुणः सम्यक् प्राप्तावस्थान्तरं यदा दारमोपलब्धिरूपं स्यादुच्यते ज्ञानचेतना | १६७१ - इस ज्ञानचेतना शब्दमें ज्ञानशब्द से आत्मा वाच्य है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है और वह शुद्धात्मा इस चेतनाके द्वारा अनुभव होता है, इसलिए वह ज्ञान चेतना शुद्ध कहलाती है । १६६। अर्थात् मिथ्यात्वोदय के अभाव में सम्यक्त्व युक्त ज्ञान ज्ञानचेतना है ५. शुद्ध व अशुद्ध चेतनाका लक्षण । पं.का./प्र./ १६ हानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना ज्ञानानुभूतिस्वरूप शुद्ध चेतना है और कार्यानुभूतिस्वरूप तथा कर्मफलानुभूति स्वरूप अशुद्धचेतना है। . सं/टी./१५/२०/८ केवलज्ञानरूपा शुद्धचेतना केवलज्ञानरूप शुद्ध चेतना है । B पं. घ. /उ. / ११३ एका स्याच्चेतना शुद्धा स्यादशुद्धा परा ततः । शुद्धा स्यादात्मनस्तव मस्त्य शुद्धात्मकर्मजा । १६३॥ एक शुद्ध चेतना है और उससे विपरीत दूसरो अशुद्ध चेतना है उनमें से शुद्ध चेतना आत्माका स्वरूप है और अशुद्ध चेतना आत्मा और कर्मके संयोग से उत्पन्न होनेवाली है । भा० २-३८ २९७ - Jain Education International २. ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश पं. ध. /उ. / ११६,२१३ शुद्धा सा ज्ञानचेतना | १६६। अस्त्यशुद्धोपलब्धि. सा ज्ञानाभासादिन्यात् न ज्ञानचेतना किन्तु कर्म तत्फल चेतना २१३नचेतना कहलाती है ।११६। अशुद्धात्माआभासरूप होती है । चिदन्यसे अशुद्धात्माके प्रतिभासरूप होनेसे ज्ञानचेतनारूप नहीं कही जा सकती है, किन्तु कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना स्वरूप कही जाती है । २१३ | ६. कर्मचेतना व कर्मफल चेतना के लक्षण स. सा.आ./३०० ज्ञानादम्यत्रेदमहं करोमोसि चेतनं कर्म चेतना । ज्ञानादयेदमिति चेतन कर्मफलचेतना छानसे अन्य ( भावों में ) ऐसा अनुभव करना कि 'इसे मैं करता हूँ' सो कर्म चेतना है, और ज्ञानसे अन्य ( भावों में ) ऐसा अनुभव करना कि 'इसे मैं भोगता हूँ सो कर्म पेना है। प्र. सा .. १२३-१९४ कर्मपरिणति कर्म चेतना, कर्मफलपरिसि कर्मफलचेतना | १२३ | क्रियमाणमात्मना वर्म ।" तस्य कर्मणो त्रिज्या सुखदुख सत्कर्मफलम् ॥ १२४॥ कर्म परिणति कर्मचेतना और कर्मफलपरिणतिक चेतना है ।१२३॥ आत्मा द्वारा किया जाता है वह कर्म है और उस कर्मसे उत्पन्न किया जानेवाला सुखकर्मफल है | १२४ | द्र. सं./टी./१५/५०/६ अव्यक्तसुखदुखानुभवनरूपा कर्मफल चेतना । .. स्वेहापूर्वेष्टानिष्टविकल्प रूपेण विशेषरागद्वेषपरिणमन कर्मचेतना | = अव्यक्तसुखदुखानुभव स्वरूप कर्मफल चेतना है, तथा निजचेष्टापूर्वक अर्थात बुद्धिपूर्वक हट अनि विपरूपसे विशेष रागद्वेषरूप जो परिणाम है वह कर्मचेतना है। २. ज्ञान अज्ञान चेतना निर्देश १. सम्यग्दृष्टिको ज्ञानचेतना ही इष्ट पं. ध. /उ. / ८२२ प्रकृतं तद्यथास्ति स्वं स्वरूपं चेतनात्मनः । सा त्रिधात्राप्युपादेया सरनचेतना चेतना निजस्वरूप है और वह तीन प्रकारकी है। तो भी सम्यग्दर्शनका लक्षण करते समय सम्यग्दृष्टिको एक ज्ञानचेतना ही उपादेय होती है । ( स. सा. / आ / ३८७) २. ज्ञानचेतना सम्यग्टष्टिको ही होती है पं. ध. /उ. / १६८ सा ज्ञानचेतना नूनमस्ति सम्यग्यगात्मनः । न स्यान्मिथ्यादृशः क्वापि तदात्वे तदसंभवात् । निश्चयसे वह ज्ञानचेतना सम्यग्दृष्टि जीव के होती है, क्योंकि, मिध्यात्वका उदय होनेपर उस आत्मोधका होना असम्भव है, इसलिए वह ज्ञानचेतना मिथ्यादृष्टि जीव के किसी भी अवस्थामें नहीं होती । ३. निजात्म तत्त्वको छोड़कर ज्ञानचेतना अन्य अर्थों में नहीं प्रवर्तती पं. ध.५० सयं हेतोर्विषये वृतिवापभिचारिता यतोऽत्रन्यात्मनोऽन्यत्र स्वात्मनि ज्ञानचेतना । ठीक है - हेतुके विपक्षमें वृत्ति होनेसे उसमे व्यभिचारीपना आता है क्योंकि परस्वरूप परपदार्थ से भिन्न अपने इस स्वात्मामें ज्ञानचेतना होती है। ४. मिथ्यादृष्टिको कर्म व कर्मफल चेतना ही होती है पं. ध. /उ. / २२३ यद्वा विशेषरूपेण स्वदते तत्कुदृष्टिनाम् । अर्थाद सा चेतना नूनं कर्मकार्येse कर्मणि ॥ २१३ - अथवा मिध्यादृहियोको ॥ ॥ विशेषरूप से अर्थात् पर्यायरूपसे उस सत्का स्वाद आता है, इसलिए वास्तव में उनकी वह चेतना कर्मफलमें और कर्म में ही होती है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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