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________________ चित्रगुप्त २९६ चेतना विद्याधर । ३. वर्तमानका 'चित्तौड़गढ़ नगर' (पं.सं./प्र. ४१/A.N. Up. तथा H. L.Jain. चित्रगुप्त-भावी १७वे तीर्थकर-दे. तीर्थकर/५। चित्रगुप्ता-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवो-दे० लोक/२/१३ । चित्रभवनसमेरु पर्वतके नन्दन आदि बनों में स्थित कुबेरका भवन व गुफा-दे० लोक/३/६४। चित्रवती-पूर्व आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । चित्रांगद-(पा. पु /१७/श्लोक नं.) अर्जुनका प्रधान शिष्य था (६५); वनवासके समय सहाय वनमें नारद द्वारा, पाण्डवोंपर दुर्योधनकी चढाईका समाचार जानकर (८६) उसे वहाँ जाकर बाँध लिया। चित्रा-१. एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र २. रुचक पर्वतके विमल कूटपर बसनेवाली एक विद्य त्कुमारी देवी-दे० लोक ५/१३ ३.रुचक पर्यत निवासिनी एक दिक्कुमारी-दे० लोक५/१३ ४.अनेक प्रकारके वर्षों से युक्त धातुएँ), वप्रक (मरकत), बकमणि (पुष्पराग), मोचमणि ( कदलीवर्णाकार नीलमणि) और मसारगल्ल ( विद्रुमवर्ण मसृणपाषाण मणि) धातुएँ हैं, इसलिए इस पृथिवोका 'चित्रा' इस नामसे वर्णन किया गया है। ( अर्थात् मध्य लोक की १००० योजन मोटी पृथिवो चित्रा कहलाती है।)-दे० रत्नप्रभा। चिद्विलास-पं.दीपचन्दजी शाह (ई० १७२२) द्वारा रचित हिन्दी भाषा बद्ध आध्यात्मिक ग्रन्थ । इसपर कवि देवदास ( ई० १७ १५-१७६७) ने भाषा वचनिका लिखी है । (तो./४/२६३) चिन्ह--१. Trace-(ध./पु.५/प्र. २७)। २. चिन्हसे चिन्हीका ज्ञान-दे० अनुमान । ३. चिन्ह नामक निमित्त ज्ञान-दे० निमित्त/ २: ४. अबधिज्ञानकी उत्पत्तिके स्थानभूत करण चिन्ह-दे० अवधि स. सा./ता. वृ. ३२१ विशेषव्याख्यानं उक्तानुक्तव्याख्यानं, उक्तानुक्त संकीर्णव्यारव्यानं चेति त्रिधा चूलिकाशब्दस्यार्थो ज्ञातव्य' विशेष व्याख्यान, उक्त या अनुक्त व्यारव्या अथवा उक्तानुक्त अर्थका संक्षिप्त व्याख्यान (Summary), ऐसे तीन प्रकार चूलिका शब्द का अर्थ जानना चाहिए। (गो. क./जी, प्र.३६८/५६३/७); (द्र.सं./टी /अधि कार २ की चूलिका पृ. ८०/३) । चेटक-म प./७/श्लोक नं.) प्रर्य भव नं. २मे विद्याधर (११६), पूर्वभव नं. १ में देव ( १३१-१३५) वर्तमान भवमें वैशाली नगरीका राजा चन्दनाका पिता (३-८,१६८ ) । चेटिका-दे० स्त्री। चेतन-द्रव्यमे चेतन अचेतनकी अपेक्षा भेद-दे० द्रव्य/३ । चेतना स्वसंवेदनगम्य अन्तरंग प्रकाशस्वरूप भाव विशेषको चेतना कहते है। वह दो प्रकारकी है-शुद्ध व अशुद्ध। ज्ञानी व वीतरागी जीवोंका केवल जानने रूप भाव शुद्धचेतना है। इसे ही ज्ञान चेतना भी कहते है। इसमे ज्ञानकी केवल ज्ञप्ति रूप क्रिया होती है। ज्ञाता द्रष्टा भावसे पदार्थोंको मात्र जानना, उनमें इष्टानिष्ट बुद्धि न करना यह इसका अर्थ है । अशुद्ध चेतना दो प्रकारकी है-कर्म चेतना व कर्मफल चेतना । इष्टानिष्ट बुद्धि सहित परपदार्थोमे करने-धरनेके अहंकार सहित जानना सो कर्म चेतना है और इन्द्रियजन्य सुरख-दुःखमे तन्मय होकर 'सुखी दुखी' ऐसा अनुभव करना कर्मफल चेतना है। सर्व संसारी जीवोंमें यह दोनों कर्म व कर्मफल चेतना ही मुख्यतः पायी जाती है। तहाँ भी बुद्धिहीन असंज्ञी जीवोंमें केवल कर्म फल चेतना है, क्योकि वहाँ केवल सुख-दुखका भोगना मात्र है, बुद्धि पूर्वक कुछ करनेका उन्हें अवकाश नहीं। चिलात-उत्तर भरतक्षेत्रके मध्यम्लेक्षखण्डका एक देश-दे० । मनुष्य/४। चिलात पुत्र-भगवान् वीरके तीर्थ के एक अनुत्तरोपपादक साधु दे० अनुत्तरोपपादक। चुलुलित-कायोत्सर्गका एक अतिचार- दे० व्युत्सर्ग/१ । चूड़ामणि- दे० परिशिष्ट १। चूर्ण--१. द्रव्य निक्षेपका एक भेद-दे० निक्षेप//६ । २. आहारका । एक दोष-दे० आहार/II/४,३. वस्तिकाका एक दोष-दे० वस्तिका । चूर्णी-दे० परिशिष्ट १। चूर्णोपजीवन-वस्तिकाका एक दोष-दे० वस्तिका। चूलिका-१. पर्वतके ऊपर क्षुद्र पर्वत सरीखी चोटी; Top (ज. प./ प्र. १०६): २. दृष्टिप्रवाद अंगका वा भेद-दे० श्रुतज्ञान/III | ३.. घ.७/२,११,१/५७५/७ ण च एसो णियमो सव्वाणिोगद्दारसूइदत्थाणं विसेसपरूविणा चूलिया णाम, किंतु एक्केण दोहि सब्बेहि वा अणि ओगहारेहिं सुइदत्थाणं विसेसपरूविणा चूलिया णाम सर्व अनुयोगद्वारोंसे सुचित अर्थों को विशेष प्ररूपणा करनेवाली ही चूलिका हो, यह कोई नियम नहीं है, किन्तु एक, दो अथवा सब अनुयोगद्वारोंसे सुचित अर्थोंकी विशेष प्ररूपणा करना चूलिका है (ध. ११/४,२,६,३६/ १४०/११)। १. भेद व लक्षण १.चेतना सामान्यका लक्षण रा, वा./१/४/१४/२६/११ जीवस्वभावश्चेतना।" यासंनिधानादात्मा ज्ञाता द्रष्टा कर्ता भोक्ता च भवति तल्लक्षणो जीवः । जिस शक्तिके सान्निध्यसे आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा अथवा कर्ता-भोक्ता होता है वह चेतना है और वही जीवका स्वभाव होनेसे उसका लक्षण है। न. च. वृ./६४ अणुहवभावो चेयणम् । = अनुभवरूप भावका नाम चेतन है। ( आ. प/६ ) (नय चक्र श्रुत/५७) । स. सा/आ./२६८-२६६ चेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु तेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात् द्वै रूप्यं नातिकामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने ।- चेतना प्रतिभास रूप होती है। वह चेतना द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती, क्योकि समस्त वस्तुएँ सामान्य विशेषात्मक है। उसके जो दो रूप है वे दर्शन और ज्ञान है। पं. का./त. प्र./३६ चेतनानुभूत्युपलब्धिवेदनानामेकार्थत्वात् । चेतना, अनुभूति, उपलब्धि, वेदना इन सबका एक अर्थ है। २. चेतनाके भेद दर्शन व ज्ञान स. सा/आ /२६८-२६६ ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने।उस चेतनाके जो दो रूप हैं वे दर्शन और ज्ञान हैं। * उपयोग व लब्धि रूप चेतना-दे० उपयोग/I । ३.चेतनाके भेद शुद्ध व अशुद्ध आदि प्र. सा./मू./१२३ परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फल म्मि वा कम्मणो भणिदा। -आत्मा चेतना रूपसे परिणमित होता है। और चेतना तीन प्रकारसे मानी गयी हैज्ञानसम्बन्धी, कर्मसम्बन्धी अथवा कर्मफलसम्बन्धी। (पं. का/ मू./२८) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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