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________________ चक्रायुध २७७ चतुष्टय चक्रायुध १-(म पु/सर्ग/श्लोक न.)। पूर्वभव नं १३ मे मगध देशके राजा श्रीपेणकी स्त्री आनन्दिता थी। (६२/४० )। पूर्वभव नं १२ मे भोमिज आर्य था। (६२/३५७-३५८ ) । पूर्वभव नं. ११ मे सोधर्म स्वर्गमे विमलप्रभ देव हुआ। (६२/३७६ ) । पूर्व भव नं. १० मे त्रिपृष्ठ नारायणका पुत्र श्रीविजय हुआ। (६२/१५३)। पूर्व भव न. हमे तेरहवें स्वर्ग मे मणिचूलदेव हुआ। (६२/४११) पूर्वभवं नं. ८ में वत्सकावतो देशको प्रभाकरी नगरीके राजा स्तिमितसागरका पुत्र नारायण 'अनन्तवीर्य' हुआ । (६२/४१४)। पूर्वभव न 0 में रत्नप्रभा नरकमे नारकी हुआ। (६/२५)। पूर्वभत्र नं. ६ मे विजयार्धपर गगनवल्लभनगरके राजा मेघाहनका पुत्र मेबनाद हुआ। (६३/ २८-२६) । पूर्व भव नं. ५ मे अच्छत स्वगमे प्रतीन्द्र हुआ (६३/३६) । पूर्वभव न. ४ मे बज्रायुधका पुत्र सहस्रायुध हुआ।। ६३/१५) पूर्वभव नं.३ में अधोग्रे वेयकमे अहमिन्द्र हुआ। (६३/१३८ १४१)। पूर्वभव नं.२ मे पुष्कलावती देशमे पुण्डरीकनी नगरी के राजा धनरथका पुत्र दृढरथ हुआ। (६३/१४२-१४४ ) । पूर्व भव नं १ में सर्वार्थ सिद्रिमे अहमिन्द्र हुआ। (६३/३३६-३७)। वर्तमान भवमे राजा विश्वसेनका पुत्र शान्तिनाथ भगवान्का सौतेला भाई (६३/४१४) हुआ। शान्तिनाथ भगवान के साथ दीक्षा धारण की (६३/४७६)। शान्तिनाथ भगवान के प्रथम प्रधान गणधर बने । (६३/४८६) । अन्तमें मोक्ष प्राप्त किया ( ६३/५०१)। (म. पु./६३/५०५-५०७ ) मे इनके उपरोक्त सर्व भवोंका युगपत् वर्णन किया है। चक्रायुधर-(म पु/५/श्लोक न)-प्रवभव नं ३. मे भद्र मित्र सेठ: पूर्वभव नं. २ मे सिंहचन्द्र, पूर्व भव नं १ मे प्रीतिकर देव था। ( ३१६ ) । वर्तमान भवमें जम्बूद्वीपके चक्रपुर नगरका राजा अपराजितका पुत्र हुआ।२६६। राज्यकी प्राप्ति कर 1२४४। कुछ समय पश्चात् अपने पुत्र रत्नायुधको राज्य दे दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त की ।२४५॥ चक्रायुध ३-स्व. चिन्तामणिके अनुसार यह इन्द्रायुधका पुत्र था. वत्सराजके पुत्र नागभट्ट द्वि.ने इसको युद्धमे जीतकर इससे कन्नौजका राज्य छीन लिया था। नागभट्ट व इन्द्रायुधके समयके अनुसार इसका समय वि ८४०-८५७ (ई. ७८३-८००) आता है। ( ह. पु/प्र ५/पं पन्नालाल ।। चक्रेश्वरो-भगवान् ऋषभदेवकी शासक यक्षिणी-दे० तीर्थकर १३ चक्षु-१. चक्षु इन्द्रिय-दे० इन्द्रियः २. चक्षुदर्शन-दे० दर्शना ५ । ३. चश्नु दर्शनावरण-दे० दर्शनाबरण । चक्षुष्मान्-१. दक्षिण मानुषोत्तर पर्वतका रक्षक व्यन्तर देव-दे० का 14 व्यन्तर देव-दे. व्यन्तर ।४।२ अपर पुष्कराधका रक्षक व्यन्तर देव-दे० व्यन्तर ४) ३ आठवें कुलकर-दे० शलाका पुरुष ।।। चतुरक-ध. १२/8,२,७,२१४/१७०/६ एत्य अस खेज्जभागवड्ढीएचत्तारि अंको । असंख्यातभाग वृद्धिकी चतुरंक संज्ञा है। (गो. जी./मू./३२५/६८४)। चरिद्रिय-१ चतुरिन्द्रिय जीव-दे. इन्द्रिय ।४।२.चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म-दे० जाति १। चतुर्थच्छे द-Number of times that a number can be _devided by 4 (ध / ५/प्र.२७ ) विशेष-- दे० गणित/II/२/१। चतुर्थभक्त-एक उपवास-दे० प्रोषधोपवास ।। चतुर्दश-१. चतुर्दश गुणस्थान-दे० गुणस्थानः २. चतुर्द श जीब समास-दे० समास; ३. चतुर्दश पूर्व-दे० श्रुतज्ञान /III/ ४. चतुर्दश पूवित्व ऋद्धि-दे० ऋद्धि ।। ५. चतुर्दश पूर्वी-दे० श्रुतकेवली; ६. चतुर्दश मार्गणा-दे० मार्गणा । त-१४ वर्ष पर्यन्त प्रतिमासकी दोनों चतुर्दशियोंको १६ पहरका उपवास करे। लोदके मासों सहित कुल ३४४ उपवास होते है । ॐ ह्रीं अनन्तनाथाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । (चतुर्दशी व्रत कथा ), (बत विधान संग्रह/पृ. १२४ ) । चोप-भारतके सीमान्तपर तीन और देश माने जाते हैसोदिया, बैक्ट्रिया, सरियाना। भारत सहित यह चारो मिलकर चतुर्कीप कहलाते है। तहाँ सोदिया तो 'भद्राश्व' द्वीप है, और बैक्ट्रिया, एरियान व उत्तरकुरुमे 'केतुभाल' द्वीप है। (ज. प./प्र. १३८/A N. Up व. H. L. Jain). चतुर्भुज-यह जयपुर निवासी थे। बैरागीके नामसे प्रसिद्ध थे। प्रायः लाहौर जाते थे, तब वहाँ कवि खरगसेनसे मिला करते थे। समय-वि. १६८५ (ई १६२८ ) मे लाहौर गये थे। (हि. जैन, साहित्य इतिहास/पृ. १५५/ कामता प्रसाद )। चतभेज समलम्ब-Trapezium. (ज. प./प्र.१०६ )। १. साधुओके लिए चतुर्मास करनेकी आशा-दे० पाद्य स्थिति कल्प; २. चतुम सधारण विधि-दे० कृतिकर्म/४ । चतुमुखभा. पा./टी./१४६/२६३/१२ चतुर्दिक्षु सर्वसभ्यानां सन्मुखस्य दृश्यमानत्वात् सिद्धावस्थायां तु सर्वत्राबलोकनशीलत्वात चतुर्मुख' । अर्हन्त अवस्थामे तो समवशरण मे सर्व सभाजनौको चारों ही दिशाओमें उनका मुख दिखाई देता है इसलिए तथा सिद्धावस्थामे सर्वत्र सर्व दिशाओमे देखनेके स्वभाववाले होनेके कारण भगवान् का नाम चतुर्मुख है। चतुमुंख-मगधकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह राजा शिशुपाल का पुत्र था। वी. नि. १००३ में इसका जन्म हुआ था। ७० वर्षकी कुल आयु थी। ४० वर्ष राज्य किया। अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण करकी कहलाता था। हूणवंशी मिहिर कुल ही चतुर्मुख था। समय-वी. नि. १०३३-१०७३ (ई. ५०६-५४६) 1-दे० इतिहास/३/२, व-पदुपचासी और हरिवंश पुर।णके कर्ता एक अपभ्रश कवि । समय- कवि स्वयम्भू (ई ७३४) से पूर्ववर्ती (ती./४/१४)1 चतुर्मुख पूजा-दे० पूजा/१ । -विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । चविंशति-१. चतुर्विशति तीर्थकर (दे० तीर्थ कर ।। २. चत्विशति पूजा-दे० पूजा ); ३. चतुर्विशति स्तव द्रव्यश्रुतज्ञानका दूसरा अंग बाह्य--दे० श्रुतज्ञान/III/१/३।४ चतुविशतिस्तक विधि -दे० भक्ति /३। चतःशिर-शिरोनतिके अर्थ में प्रयुक्त होता है-दे० नमस्कार । चतुष्टय-चतुष्टय नाम चौकड़ीका है। आगममे कई प्रकारसे चौकडिया प्रसिद्ध हैं - द्रव्यके स्वभावभूत स्त्र चतुष्टय, द्रव्यमे विरोधी धर्मो रूप युग्म चतुष्टय, जीवके ज्ञानादि प्रधान गुणों की अनन्त शक्ति व व्यक्ति रूप कारण अनन्त चतुष्टय व कार्य अनन्त चतुष्टय । १. स्वचतुष्टयके नामनिर्देश पं.ध/पू /२६३ अथ तयथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तश्चतुष्कं च । द्रव्येग क्षेत्रेण च कालेन तथाऽथवाऽपिभावेन ।२६३१द्रव्यके द्वारा, क्षेत्रके द्वारा, कालके द्वारा और भावके द्वारा जो है वह परद्रव्य क्षेत्रादिसे नहीं है, इस प्रकार अस्ति नास्ति आदिका चतुष्टय हो जाता है । और भी दे० श्रुतज्ञान/ITI में समवायांग। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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