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________________ २५३ गुहिल गुरुर्गुरुगुरुतरान् कृत्वा लघूश्च स्फुटं, व ते य सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खलः सद्गुरु ।१४२। - जो गुरु शिष्योके चारित्रमें लगते हुए अनेक दोषों को देखकर भी उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करता है व उनके महत्त्वको न समझकर उन्हे छिपाता चलता है वह गुरु हमारा गुरु नहीं है। वे दोष तो साफ न हो पाये हो और इतनेमे ही यदि शिष्य का मरण हो गया तो वह गुरु पीछेसे उस शिष्यका सुधार कैसे करेगा. किन्तु जो दुष्ट होकर भी उसके दोष प्रगट करता है वह उसका परम कल्याण करता है। इसलिए उससे अधिक और कौन उपकारी गुरु हो सकता है। २. शिष्यके दोषोंका निग्रह करनेवाला कठोर म भ.आ./मू./४७१-४८३ पिल्लेदूण रडत पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेइ घदं माया तस्सेब हिदं विचितंती ७ तह आयरिओ वि अणुज्जस्स खवयस्स दोसणीहरणं । कुण दि हिदं से पच्छा होहिदि कडुओसहं वत्ति 101.1 पाएण वि ताडितो स भद्दओ जत्थ सारणा अस्थि ।। आदमेव जे चितेदुमुठ्ठिदा जे परट्ठमबि लोगे। कड्डय फरसेहि ते हु अदिदुल्लहा लोए ।४८३। -जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हितके कार्यमे बलात्कारसे प्रवृत्त करता है, जैसे हित करनेवाली माता अपने रोते हुए भी बालकका मुंह फाड कर उसे घी पिलाती है ।४७६। उसी प्रकार आचार्य भो मायाचार धारण करनेवाले क्षपकको जबरदस्ती दोषोकी आलोचना करने में बाध्य करते हैं तब वह दोष कहता है जिससे कि उसका कल्याण होता है जैसे कि कड़वी औषधी पीनेके अनन्तर रोगीका कल्याण होता है ।४८० लातोंसे शिष्योको ताडते हुए भी जो शिष्यको दोषोंसे अलिप्त रखता है वही गुरु हित करनेवाला समझना चाहिए 1४८१ जो पुरुष आत्महितके साथ-साथ, कटु व कठोर शब्द बोलकर परहित भी साधते हैं वे जगत में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।४८३। * कठोर व हितकारी उपदेश देनेवाला गुरु श्रेष्ठ है -दे० उपदेश/३। ३. गुरु शिष्यके दोषोंको अन्यपर प्रगट न करे भ.आ /मू./४८८ आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्रवू कहेदि सगदोसे। कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसि कहेदि ते दोसे १४८८] - आचार्य पर विश्वास करके ही भिक्षु अपने दोष उससे कह देता है। परन्तु यदि कोई आचार्य उन दोषों को किसी अन्यसे कहता है तो उसे जिनधर्म बाह्य समझना चाहिए। * गुरु विनयका माहात्म्य -दे० विनय/२ । ३. दीक्षागुरु निर्देश १. दीक्षा गुरुका लक्षण प्र.सा /मू./२१० लिगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि ।...। प्र. सा./त.प्र./२१० लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपाद कत्वेन यः किलाचार्यः प्रवज्यादायक. स गुरु. । प्र.सा./ता.वृ./२१०/२८४/१२ योऽसौ प्रवज्यादायक' स एव दीक्षागुरुः । -१. लिग धारण करते समय जो निर्विकल्प सामायिक चारित्रका प्रतिपादन करके शिष्यको प्रवज्या देते हैं वे आचार्य दीक्षा गुरु हैं। २. दीक्षा गुरु ज्ञानी व वीतरागी होना चाहिए प्र.सा./मू./२५६ छदुमत्यविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो । ण लहदि अपुणब्भावं सादप्पगं लहदि ।२५६। प्र.सा./ता वृ./२५६/३४६/१५ ये केचन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग म जानन्ति पुण्यमेव मुक्तिकारणं भणन्ति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यन्ते न च गणधरदेवादयः । तै श्छद्मस्थै रज्ञानिभि. शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्ये दीक्षितास्तानि छद्मस्थविहितवस्तूनि भण्यन्ते। - जो कोई निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गको तो नहीं जानते और पुण्यको ही मोक्षका कारण बताते हैं वे यहाँ 'छद्मस्थ' शब्दके द्वारा ग्रहण किये गये है। (यहाँ सिद्धान्त ग्रन्थो में प्ररूपित १२वे गुणस्थान पर्यन्त छद्मस्थ संज्ञाको प्राप्त) गणधरदेवादिसे प्रयोजन नहीं हैं। ऐसे शुद्धात्माके उपदेशसे शून्य अज्ञानी छद्मस्थों द्वारा दीक्षाको प्राप्त जो साधु हैं उन्हें छद्मस्थ विहित वस्तु कहा गया है। ऐसी छद्मस्थ विहित वस्तुओं में जो पुरुष व्रत, नियम, पठन, ध्यान, दानादि क्रियाओ युक्त है वह पुरुष मोक्षको नहीं पाता किन्तु पुण्यरूप उत्तम देवमनुष्य पददीको पाता है। * व्रत धारणमें गुरु साक्षीकी प्रधानता-दे० व्रत/११६ । ३. स्त्रीको दीक्षा देनेवाले गुरुकी विशेषता मू.आ./१८३-१८५ पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो ।१८३। गंभीरो दुद्धरिसो 'मदवादी अप्पकोदुहल्लो य । चिरपब्वइ गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि ।१८४ा आर्यकाओका गणधर ऐसा होना चाहिए, कि उत्तम क्षमादि धर्म जिसको प्रिय हों, दृढ धर्मवाला हो, धर्म में हर्ष करनेवालाहो, पापसे डरता हो, सब तरहसे शुद्ध हो अर्थात् अखण्डित आचरणवाला हो, दीक्षाशिक्षादि उपकारकर नया शिष्य बनाने व उसका उपकार करनेमें चतुर हो और सदा शुभ क्रियायुक्त हो हितोपदेशी हो ।१८३। गुणोंकर अगाध हो, परवादियोंसे दबनेवाला न हो, थोड़ा बोलनेवाला हो, अल्प विस्मय जिसके हो, बहुत कालका दीक्षित हो, और आचार प्रायश्चित्तादि प्रन्थोंका जाननेवाला हो, ऐसा आचार्य आर्यकाओंको उपदेश दे सकता है ।१८४। इन पूर्वकथित गुणोसे रहित मुनि जो आर्यकाओका गणधरपना करता है उसके गणपोषण आदि चारकाल तथा गच्छ आदिकी विराधना होती है ।१८५। गुरुतत्त्व विनिश्चय-श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई.१६३८. १६८८) द्वारा संस्कृत भाषामें रचित न्याय विषयक ग्रन्थ । गुरुत्व-(त.सा./भाषा/३२ )-कुछ लोग गुरुत्व शब्दका अर्थ ऐसा करते हैं कि जो नीचेकी तरफ चीजको गिराता है वह गुरुत्व है, परन्तु हम इसका अर्थ करते है कि जो किसी भी तरफ किसी चीजको ले जाये वह गुरुत्व है। वह चाहे नीचेकी तरफ ले जानेवाला हो अथवा ऊपरकी तरफ। नीचेकी तरफ ले जानेका सामर्थ्य तथा ऊपरकी तरफ ले जानेका सामर्थ्य उसी गुरुत्वके उत्तर भेद हो सकते है। (जैसे)-पुद्गल अधोगुरुत्व धर्मवाले होते हैं और जीव ऊर्च गुरुत्व धर्म वाले होते हैं। गुरु परम्परा-दे० इतिहास/४ । गुरु पूजन क्रिया-दे० क्रिया/३ । गुरु मत-दे० मीमांसा दर्शन । गुरु मूढता-दे० मूढता। गुरु स्थानाभ्युपगमन क्रिया-दे० क्रिया/३ । गुर्जर नरेन्द्र-जगतुङ्ग अर्थाद गोविन्द तृतीयका अपर नाम (क.पा.१/प्र.७३/पं. महेन्द्र कुमार)। मुर्वावली-दे० इतिहास/४,५ । गुल्म-सेनाका एक अंग-दे० सेना। गुहिल सम्भवतः यही जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके कर्ता आचार्य शक्ति कुमार हैं । (ति.प./प्र.८/A-N.up ); (जैन साहित्य इतिहास/ पृ.५७१) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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