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________________ २३५ १. गमनार्थ गति निर्देश १. गमनार्थ गति निर्देश से ही नीचे तिरछे और ऊपरको जाती है उसी तरह आत्माकी स्वभावतः ऊर्ध्वगति ही होती है। क्षीणकर्मा जीवोंकी स्वभावसे ऊर्ध्वगति ही होती है। (त.सा./८/३१-३४); (पं.का/त.प्र./२८) द्र.से./मू./२ सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई। =जीव स्वभावसे ऊर्ध्व-गमन करनेवाला है। नि.सा./ता,वृ./१८४ जीवानां स्वभावक्रिया सिद्धिगमनं । जीवों की स्वभाव क्रिया सिद्धिगमन है। १. गति सामान्यका लक्षण स सि./४/२१/२५२/५ देशाद्देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः। - एक देशसे दूसरे देशके प्राप्त करनेका जो साधन है उसे गति कहते है। (स.सि./२/१७/ २८९/१२), (रावा./४/२१/१/२३६/३); (रा.वा/१/१७/१/४६०/२२); (गो.जी./जी.प्र./६०५/१०६०/३) रा.वा/४/२१/१/२३६/३ उभयनिमित्तवशाव उत्पद्यमानः कायपरिस्पन्दो गतिरित्युच्यते। बाह्य और आम्यन्तर निमित्तके वशसे उत्पन्न होनेवाला कायका परिस्पन्दन गति कहलाता है। २. गतिके भेद व उनके लक्षण रा.वा/५/२४/२१/४६०/२१ सैषा क्रिया दशप्रकारा वेदितव्या । कुत। प्रयोगादि निमित्तभेदात । तद्यथा, इष्वेरण्डबीजमृदङ्गशब्दजतुगोलकनौद्रव्यपाषाणालासुराजलदमारुतादीनाम् । इषुचक्रकणयादीनां प्रयोगगतिः। एरण्डतिन्दुकबीजान बन्धाभावगतिः। मृदङ्गभेरीशङ्खादिशब्दपुद्गलानां छिन्नानां गतिः छेदगतिः। जतुगोलककुन्ददारुपिण्डादीनामभिघातगतिः । नौद्रव्यपोतकादीनामवगाहनगति । जलदरथमुशलादीनां वायुवाजिहस्तादीनां संयोगनिमित्ता संयोगगतिः। मारुतपावकपरमाणु सिद्धज्योतिष्कादीनां स्वभावगतिः । - क्रिया प्रयोग बन्धाभाव आदिके भेद से दस प्रकारकी है। नाण चक्र आदिकी प्रयोगगति है। एरण्डबीज आदिकी अन्धाभाव गति है। मृदंग भेरी शंखादिके शब्द जो दूर तक जाते हैं पुद्गलोंको छिन्नगति है। गेंद आदिकी अभिधात गति है। नौका आदिकी अवगाहनगति है। पत्थर आदिकी नीचेकी ओर (जानेवाली) गुरुत्वगति है। तुंबड़ी रूई आदिकी ( ऊपर जानेवाली) लघुत्वगति है। सुरा सिरका आदिकी संचारगति है। मेघ, रथ, मूसल आदिकी क्रमशः वायु, हाथी तथा हाथके संयोगसे होनेवाली संयोगगति है। वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदिकी स्वभावगति है। ४. पर ऊव गमन जीवका त्रिकाली स्वभाव नहीं रा.वा/१०/७/१-१०/६४५/३३ स्यान्मतम्-यथोष्णस्वभावस्याग्नेरीष्ण्याभावेऽभावस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगतिस्वभावत्वे तदभावे तस्याप्यभोव' प्राप्नोतीति । तन्नः किं कारणम् । गत्यन्तरनिवृत्त्यर्थत्वात । मुक्तस्योर्ध्वमेव गमन न दिगन्तरगमनमित्ययं स्वभावी नोर्ध्वगमनमेवेति । यथा ऊर्ध्व ज्वलनस्वभावत्वेऽप्यग्नेर्वेगवद् द्रव्याभिधातात्तिर्यग्ज्वलनेऽपि नाग्नेविनाशो दृष्टस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगतिस्वभावत्वेऽपि तदभावे नाभाव इति । प्रश्न-सिद्धशिलापर पहुँचनेके बाद चू कि मुक्त जीवमें ऊर्ध्वगमन नहीं होता, अतः उष्णस्वभावके अभाव में अग्निके अभावकी तरह मुक्तजीवका भी अभाव हो जाना चाहिए। उत्तर-'मुक्तका ऊर्ध्वही गमन होता है, तिरछा आदि गमन नहीं' यह स्वभाव है न कि ऊर्ध्वगमन करते ही रहना । जैसे कभी ऊर्ध्वगमन नहीं करती, तब भी अग्नि बनी रहती है, उसी तरह मुक्तमें भी लक्ष्यप्राप्तिके बाद ऊर्ध्वगमन न होनेपर भी उसका अभाव नहीं होता है। ५. दिगन्तर गति जीवकी विमाव गति है रा. वा./१०/६/१४/६४६ पर उद्धृत श्लोक नं. १५-१६ अतस्तु गतिवैकृत्यं तेषो यदुपलभ्यते। कर्मणः प्रतिघाताच्च प्रयोगाच तदिष्यते ॥१५॥ स्यादस्तिर्यगूध्वं च जीवानां कर्मजा गति.। = जीवोंमें जो विकृत गति पायी जाती है, वह या तो प्रयोगसे है या फिर कर्मोके प्रतिघातसे है ।१५। जीवों के कर्मवश नीचे, तिरछे और ऊपर भी गति होती है।१६। (त.सा./८/३३-३४) पं.का./मू. व त.प्र./७३ सेसा विदिसावज्जं गदि जति १७३। बद्धजीवस्य षड्गतयः कर्मनिमित्ताः। नि. सा./ता. वृ./१८४ जीवानां...विभावक्रिया षटकायक्रमयुक्तत्वम् । १. शेष (मुक्तोंसे अतिरिक्त जीव भवान्तर में जाते हुए) विदिशाएँ छोड़कर गमन करते हैं।७३, बद्धजीवको कर्मनिमित्तक षदिक गमन होता है । २. जीवोकी विभाव क्रिया (अन्य भव में जाते समय) छह दिशामें गमन है। द्र, सं./टी/२/8/8 व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोवधिस्ति र्यग्गतिस्वभावः । = व्यवहारसे चार गतियोंको उत्पन्न करनेवाले (भवान्तरों को ले जानेवाले) कर्मोके उदयवश ऊँचा, नीचा, तथा तिरछा गमन करनेवाला है। ३. अर्ध्वगति जीवकी स्वभाव गति है पं.का/मू./७३ बंधेहि सव्वदो मुक्को। उड् गच्छदि। -बन्धसे सर्वांग मुक्त जीव ऊपरको जाता है। त.सू./१०/६ तथागतिपरिणामाच्च । -स्वभाव होनेसे मुक्त जीव ऊर्ध्व गमन करता है। रा.वा/२/७/१४/११३/७ ऊर्ध्वगतित्वमपि साधारणम् । अग्न्यादीनामूर्ध्व- गतिपारिणामिकत्वावा तश्च कर्मोदयापेक्षाभावात् पारिणामिकम् । एवमन्ये चात्मनः साधारणा: पारिणामिका योज्याः। रा.वा/१०/७/४/६४५/१८ ऊर्ध्वगौरवपरिणामो हि जीव उत्पतयेव । रा.वा/९/२४/२१/४६०/१४ सिद्ध्यतामूर्ध्वगतिरेव । -१. अग्नि आदिमें भी ऊर्ध्वगति होती है, अत' ऊर्ध्वगतित्व भी साधारण है। कमों के उदयादिकी अपेक्षाका अभाव होनेके कारण वह परिणामिक है। इसी प्रकार आत्मामें अन्य भी साधारण पारिणामिक भाव होते हैं। २. क्योंकि जोबौंको ऊर्वगौरव धर्मवाला बताया है, अतः वे ऊपर ही जाते हैं। ३. मुक्त होनेवाले जीवों की ऊर्ध्वगति ही होती है। रा.वा/१०/६/१४/६४६ पर उद्धृत श्लोक न. १३-१६ ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवा इति जिनोत्तमैः।-१६॥ यथाधस्तिर्यगूध्वं च लोष्टवाय्वग्निदीप्तयः । स्वभावतः प्रवर्तन्ले तथोर्ध्वगतिरात्मनाम् ।१४। ऊर्ध्वगतिमेव स्वभावेन भवति क्षीणकर्मणाम् ॥१६॥ = जीव ऊर्ध्वगौरवधर्मा बताया गया है। जिस तरह लोष्ट, वायु और अग्निशिखा स्वभाव ६. पुद्गलोकी स्वभाव विमाच गतिका निर्देश रा. वा /१०/६/१४/६४६ पर उद्धृत श्लोक न. १३-१४ अधोगौरवधर्माणः पुद्गला इति चोदितम् ॥१३॥ यथाधस्तिर्यवं च लोष्टवाय्वग्निदीप्तय. । स्वभावतः प्रवर्तन्ते...१४॥ पुद्गल अधोगौरवधर्मा होते है, यह बताया गया है ।१३। लोष्ट, वायु और अग्निशिखा स्वभावसे ही नीचे-तिरछे व ऊपरको जाते हैं ।१४। (त. सा./८/३१-३२) रा.वा./२/२६/६/१३८/३ पुगतानामपि च या लोकान्तप्रापिणी सा नियमावनुश्रेणिगतिः। या त्वन्या सा भजनीया। -पुदगलोंकी (परमाणुओंकी) जो लोकान्त तक गति होती है वह नियमसे अनुश्रेणी ही होती है। अन्य गतियों का कोई नियम नहीं है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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