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________________ क्षेत्र - जनपद है न कि यह सम्पूर्ण जनपदके स्पर्श करता है। स्पर्शन तो सम्पूर्ण विषय होता है। दूसरे जिस प्रकार वर्तमान जलके द्वारा मानकालवर्ती घट क्षेत्रका हो स्पर्श हुआ है, अतीत व अनागत कालगत क्षेत्रका नहीं, उसी प्रकार मात्र वर्तमान कालवर्ती क्षेत्रके साथ जीवका स्पर्श वास्तव में स्पर्शन शब्दका अभिधेय नहीं है। क्योंकि क्षेत्र तो केवल वर्त मानवाची है और स्पर्श त्रिकालमोचर होता है। ध. १/१,९,७/१५६/८ वट्टमाण- फासं वण्णेदि खेत्तं । फोसणं पुण अदीदं महमाणं च मम्णैदि क्षेत्रानुगम वर्तमानकालीन स्पर्शका पर्शन करता है। और स्पर्शनानुयोग अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्शका वर्णन करता है। ध. ४/१,४,२/१४५/८ खेत्ताणिओगद्दारे सव्वमग्गणट्ठाणाणि अस्सिदूण सम्यगुणागणं मागका निसिखे पदुष्पादि संपदि पोसणा गरे कि पवि चोइस मग्यानानि अस्सिसमुद्वाणानं अदीदकाल विरोसिदले फोसणं मुच्चदे एल्प वट्टमाणखेत्तं परूवणं पि सुत्तनिबद्धसेव दोसदि । तदो ण पोसणमदीदकालविसिखेत्तपद पाइयं, किंतु बट्टमाणादीदकाल विसेसिदखेत्तपायमिदि एत्थ न तव पुत्ताणिगदार विदातं संभराविय अदीदकालविसि उस्ले तपष्यायण तस्मादाणा तदो फोसणमदीदकात निसेसिले पाइयमेवेति सिद्ध' प्रश्न -- क्षेत्रानुयोग ने सर्व मार्गणास्थानका आश्रय लेकर सभी गुणस्थानों के वर्तमानकालविशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन कर दिया गया है । अब पुनः स्पर्शनायोग द्वारसे क्या प्ररूपण किया जाता है । उत्तर- चौदह मार्गणास्थानोंका आश्रय लेकरके सभी गुणस्थानोंके अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्रको स्पर्शन कहा गया है। अतएव यहाँ उसीका ग्रहण किया गया समझना। प्रश्न- यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमानकाल सम्बन्धी क्षेत्रको प्ररूपणा भी सूत्र निवद्ध ही देखी जाती है, इसलिए स्पर्शन अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन करनेवाला नहीं है, किन्तु वर्तमानकाल और अतीतकाल से विशिष्ट क्षेत्रका प्रतिपादन करनेवाला है ' उत्तर - यहाँ स्पर्शनानुयोगद्वार में वर्तमान काली प्ररूपणा नहीं की जा रही है, किन्तु पहले क्षेत्रानुयोग द्वार में प्ररूपित उस उस वर्तमान क्षेत्रको स्मरण कराकर अतीतकाल विशिष्ट क्षेत्रके प्रतिपादनार्थ उसका ग्रहण किया गया है। अतएव स्पर्शनानुयोगद्वार अतीतकालसे विशिष्ट क्षेत्रका ही प्रदिपादन करनेवाला है, यह सिद्ध हुआ । ३. वीतरागियों व सरागियोंके स्वक्षेत्र में अन्तर ६.४/१.१.३८/१२९/२ चममेवुद्धीए पडिगहिदपदेसो सत्मार्ग, अजोगहि स्त्रीणमोहम्हि ममेदंबुद्धीए अभावादोति ण एस दोस्रो वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो । ण सरागाणामेस णाओ, तत्थ ममेदभावसंभवदो । - - प्रश्न- इस प्रकारस्वस्थान पद अयोगकेवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षणमोही अयोगी भगवान् ममेदंबुद्धिका अभाव है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वीतरागियों के अपने रहने के प्रदेशको ही स्वस्थान नामसे कहा गया है। किन्तु सरागियों के लिए यह न्याय नहीं है. क्योंकि इसमें ममेदभाव सम्भव है। ( ध ४ / १,३,३/४७/८) । ३. क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम १. गुणस्थानों में सम्भव पदकी अपेक्षा १. निष्यादृष्टि प. ४/१.२.२/३/१ मिच्हसि मेस तिथि विसामि संत तस्कारणसं जमादिगुणाणामभावादी निध्यादृष्टि जीवराशिके शेष तीन विशेषण अर्थात आहारक समुद्धात, तैजस समुद्वात, और भा० २-२५ Jain Education International ३. क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम केवली समुद्धात सम्भव नहीं है, क्योंकि इनके कारण संयमादि गुणों का मिथ्यादृष्टिके अभाव है। 1 २. सासादन ६.४/१.३.३/११/१ साराणसम्माविडी सम्मामिच्छादट्टी बसंजदसम्मादिट्ठी-सत्थाणसत्याण-विहारवदिसत्थाण- वेदणकसाय-वेउव्वियसमुवादपरिणदा केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे । घ.४/१ २.३/४१/१ मारणातिय उरवारनद सासणसम्मादिट्ठिी असंजदसम्माि १९३ घ.४/१.४.४/१०/१ सजीवविरहिदे असंखेज्ने समुद्र सु गरि सासणा । वेरियतरदेवे हि वित्ताणमत्थि संभवो णवरि ते सत्थाणत्या ण होंति विहारेण परिणत्तादो। प्रश्न- १. स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुखात काय समुदाय और वैक्रियक समुदात रूप परिणत हुए सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यरमिध्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें होते हैं ' उत्तर - लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्र में अर्थात् सासादनगुणस्थानमें यह पाँच होने सम्भव है । २. मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टियोंका इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अर्थात् इस गुणस्थानमे ये दो पद भी सम्भव है । (विशेष दे० सासादन |१| १०) ३. जो विरहित (मानुषोत्तर व स्वयंप्रभ पर्वतोके मध्यवर्ती) असंख्यात समुद्रोंमें सासादन सम्यग्दृष्टि जोव नहीं होते । यद्यपि वैर भाव रखनेवाले व्यन्तर देवोंके द्वारा हरण करके ले जाये गये जीबोंकी वहाँ सम्भावना है। किन्तु वे वहाँ पर स्वस्थान स्वस्थानस्थान नहीं कहलाते हैं क्योंकि उस समय वे विहार रूपसे परिणत हो जाते है। ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि .४/१.३.२/४४/५ सम्मानिष्याद्रियस्स मारणं तिय-नवादा गरिय तागुणरस सहनिरोहितादो। सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद नहीं होते हैं, क्योंकि, इस गुणस्थानका इन दोनों प्रकारकी अवस्थाओंके साथ विरोध है। नोटस्वस्थान- स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय व वैक्रियक समुद्रात ये पाँचों पद यहाँ होने सम्भव हैं । दे० - ऊपर सासादनके अन्तर्गत प्रमाण नं० १ । ४. असंयत सम्यग्दृष्टि, ( स्वस्थान- स्वस्थान, विहारवत स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक व मारणान्तिक समुद्रघात तथा उपपाद, यह सातों ही पद यहाँ सम्भव हैं - दे० ऊपर सासादन के अन्तर्गत / प्रमाण नं० १) " ५. संयतासंयत घ. ४ / १.३.३ / ४४/६ एवं संजदासंजदाणं । णवरि उववादो णत्थि, अपज्जतकाले संजमा संजम गुणस्स अभावादी संजदासंजदाणं कथं वेउव्वियसमुग्धादस्स संभव । ण, ओरालियसरीरस्स विउब्वणप्पयस्स विण्डुकुमारादिशु सणादो। ध. ४/१,४,८/१६६/७ कधं संजदामंजदाणं सेसदीव - समुद्द सु संभवो ण, पुनरिव सत्य विताएँ संभव पटविरोधाभाया। १. इसी प्रकार ( असंयत सम्यग्दृष्टिवत् ) संयतासंयतोका क्षेत्र जानना चाहिए। इतना विशेष है कि संयतासंयतोके उपपाद नही होता है, क्योकि अपर्याप्त काल में संयमासंयम गुणस्थान नहीं पाया जाता है। ... प्रश्न- संयता- संयतो के वैक्रियक समुद्घात कैसे सम्भव है । उत्तर- नहीं, क्योकि विष्णुकुमार मुनि आदि विक्रियात्मक जीवा रिक शरीर देखा जाता है। २ प्रश्न मानुषोत्तर पर्वत से परभावर्ती स्वप्रभातसे पूर्व भागवत शेष द्वीपसमूहों संयतासंयत जीयोंकी संभावना कैसे है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि पूर्व भव के बैरी देवोंके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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