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________________ क्षेत्र १९२ अर्थात् द्रव्यका क्षेत्र उसके अपने प्रदेश हैं. और उन्ही प्रदेशों में हो गुण भी रहते है। प्र. सा./ता वृ / ११५ / १६१/१३ लोककाशप्रमिताः शुद्धासंख्येयप्रदेशाः क्षेत्र भव्यते । लोकाकाश प्रमाण जीवके शुद्ध असंख्यात प्रदेश उसका क्षेत्र कहलाता है । ( अर्थापत्तिसे अन्य द्रव्योंके प्रदेश उसके क्षेत्र है। ( पं. ध. / पू / १४८, ४४६ अपि यश्चैको देशों यावदभिव्याप्य वर्तते क्षेत्रम् । तत्तत्क्षेत्रं नान्यद्भवति तदन्यश्च क्षेत्रव्यतिरेकः । १४८ ॥ क्षेत्र इति वा सर्वभिष्ठानं च भूर्नियासश्च तदपि स्वयं सदेव स्यादपि यावन्न सत्प्रदेशस्थम् ।४४६। =जो एक देश जितने क्षेत्रको रोक करके रहता है वह उस देशका द्रव्यका क्षेत्र है, और अन्य क्षेत्र उसका क्षेत्र नहीं हो सकता । किन्तु दूसरा दूसरा ही रहता है, पहला नहीं। यह क्षेत्र व्यतिरेक है | १४८ | प्रदेश यह अथवा सत्का आधार और सतकी भूमि तथा सत्का निवास क्षेत्र है और वह क्षेत्र भी स्वयं सत् रूप ही है किन्तु प्रदेशों में रहनेवाला जितना सत् है उतना वह क्षेत्र नही है ।४४६| रा. वा./हि. /९/६/४६ देह प्रमाण संकोच विस्तार लिये ( जीव प्रदेश ) क्षेत्र है। रा.वा./१/७/२७२ जन्म योनिके भेद कर (जीव) लोक उपजे लोक के स्पर्धे सो परक्षेत्र संसार है। ९. सामान्य विशेष क्षेत्रके लक्षण पं. ध. पू. /२०० तंत्र प्रदेशमा प्रथमं प्रथमेव सर्वशमयम्- केवल 'प्रदेश' यह तो सामान्य क्षेत्र कहलाता है। तथा यह वस्तुका प्रदेशरूप अंशमयी अर्थात अमुक द्रव्य इसने प्रदेशवाला है इत्यादि विशेष क्षेत्र कहलाता है । १०. क्षेत्र लोक व नोक्षेत्रके लक्षण 1 = ध. ४/१.३१/३-४/७ खेतं खलु आगा यदिरितच होदि गोखे । जीवा य पोग्गला वि य धम्माधम्मत्थिया कालो |३| आगास सर्पदर्स तु उद्वाधो तिरियो विथ चलोगं वियागाहि अण तजिण देसिदं |४| आकाश द्रव्य नियममे तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यक्षेत्र कहलाता है और आकाश द्रव्यके अतिरिक्त जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय तथा का द्रव्य क्षेत्र कहलाते है | ३ | आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए उसे जिन भगवान्ने अनन्त कहा है। (क.पा.२/२.२२/१११/६/१) ११. स्वस्थानादि क्षेत्र पर्दोंके लक्षण घ. ४/१,२,२/२६/२ सत्याण सत्थाणणाम अप्पणी उप्पणण्णामे णयरे रणे वा सयण- णिसीयणचं कमणादिवावारजुत्तेणच्छणं । विहारवदिसत्याणं णाम अप्पणी उप्पण्णगाम-णयर रण्णादीणि छड्डय अण्णस्थ सण- णिसीयण- चंकमणादिवावारेणच्छणं । ध. /४/१.३,२/२६/६ उववादो एयविहो । सो वि उप्पण्णपदमसमए चेत्र होदि । = १. अपने उत्पन्न होनेके ग्राममें, नगर में, अथवा अरण्यमें.सोना, बैठना, चलना आदि व्यापारसे युक्त होकर रहनेका नाम स्वस्थान स्वस्थान अवस्थान है। (ध.४ / १.३,६८ / १२१/३) उत्पन्न होने के ग्राम, नगर अथवा अरण्यादिको छोडकर अन्यत्र गमन, निषोदन और परिभ्रमण आदि व्यापारसे युक्त होकर रहनेका नाम विहारवतस्वस्थान है। (घ /०/२६.१/२००५) (गो. जो/जो / ४४३/६३६ ११) । २. उपपाद ( अवस्थान क्षेत्र ) एक प्रकारका है। और वह उत्पन्न होने (जन्मने के पहले समय में ही होता है-इसमे जोन के समस्त प्रदेशोंका सकोच हो जाता है। Jain Education International १२. निष्कुट क्षेत्रका लक्षण ससि /२/२/टिप्पणी पृ. १०० जगरूपसहायकृतशोका प्रकोणं निष्कुटक्षेत्रं । लोक शिखरका कोण भाग निष्कुट क्षेत्र कहलाता है। (विशेष दे० विग्रह गति / ६ ) २. क्षत्र सामान्य निदेश १३. नो आगम क्षेत्रके लक्षण भ.४ / १.१.१/८/६ दिसम्म स्तं वेदि तत्थ कम्मदव्य पोम्मदव्य पाणावरणादिनिहम्मद | लोकम्मदव्यखेत्तं तु दुविहं, ओवयारियं पारमत्थियं चेदि । तत्थ ओवयारियं णोकम्मदव्वखेत्तं लोगपसिद्ध सालिखेत्तं बीहिखेत्तमेवमादि। पारमत्थियं णोकम्मदव्त्रवेत्तं आगासद्रव्यं । ध.४/१.३.१/८/२ आगासं गगणं देवपथं गोज्झगाचरिदं अवगाहणल क्खणं आधेयं वापगमाधारो भूमि ति एयो १ जो पतिरिक्त नोआगम द्रव्य क्षेत्र है वह कर्मद्रव्यक्षेत्र और नोकर्म द्रव्य क्षेत्रके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मद्रव्यको कर्मद्रव्यक्षेत्र कहते हैं क्योंकि जिसमे जीव निवास करते है, इस प्रकारको निरुक्तिके बलसे कर्मोंके क्षेत्रपना सिद्ध है ) । नोकर्मद्रव्य क्षेत्र भी औपचारिक और पारमार्थिक के भेदसे दो प्रकार है। उनमें से लोकमे प्रसिद्ध शालि क्षेत्र, मीहि (धान्य) क्षेत्र इत्यादि औपचारिक नोकर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम-द्रव्यक्षेत्र कहलाता है। आकाश द्रव्य पारमार्थिक नोकयतिरिक्त नोखागमद्रव्यक्षेत्र है। २. आकाश, गगन, देवपथ, गुह्यकाचरित ( यक्षो के विचरणका स्थान ) अवगाहन लक्षण, आधेय, व्यापक, आधार और भूमि ये सब नोआगमद्रव्य के क्षेत्र एकार्थनाम हैं। 1 २. क्षेत्र सामान्य निर्देश १. क्षेत्र व अधिकरणमें अन्तर रावा/१/८/१६/४३/६ स्यादेतत्-यदेवाधिकरणं तदेव क्षेत्रम्, अतस्तयोरभेदात् पृथग्रहणकमिति तन्नः कि कारणम् । उत्तार्थस्वाद । उक्तमेतत् सर्वभावाचिगमार्थत्वादिति प्रश्न जो अधिकरण है वही क्षेत्र है, इसलिए इन दोनों में अभेद होनेके कारण यहाँ क्षेत्रका पृथक् धग अनर्थक है उत्तर-अधिकृत और अनधित सभी पदार्थोंका क्षेत्र बतानेके लिए विशेष रूप से क्षेत्रका ग्रहण किया गया है। २. क्षेत्र व स्पर्शनमें अम्बर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only । - • रावा | १/८/१७-१६/४२२६ यथेह सति घंटे क्षेत्रे अम्बुनोऽवस्थानाद नियमाद पटस्पर्शनम् न होतदस्ति घंटे अम्बु अनि घट स्पृशति' इति । तथा आकाशक्षेत्रे जीवावस्थाना नियमादाकाशे स्पर्शनमिति क्षेत्राभिधानेने व स्पर्शनस्यार्थ गृहीताला पृणम नर्थकम्। न वैष दोष कि कारणम्। विषयाचा विषय याची क्षेत्रशब्दः यथा राजा जनपदसेवेऽवतिष्ठते न च कृत्स्नं जनपदं स्पृशति । स्पर्शनं कृत्स्नविषयमिति । यथा साम्प्रतिकेनाम्ना समितिक घटक्षेत्रं स्पृष्टं नातीतानागतम्, नेवमात्मन सांप्रतिकक्षेत्रस्पर्शने स्पर्शनाभिप्राय, स्पर्शनस्य त्रिकाल गोचरत्वात् १७-१८। - प्रश्न- जिस प्रकार से घट रूप क्षेत्रके रहनेपर ही जलका उसमें अवस्थान होने के कारण. नियमसे जलका घटके साथ स्पर्श होता है। ऐसा नहीं है कि घटमें जलका अवस्थान होते हुए भी, वह उसे स्पर्श न करें। इसी प्रकार आकाश क्षेत्रमे जीवोके अवस्थान होनेके कारण नियमसे उनका आकाशसे स्पर्श होता है। इसलिए क्षेत्र के कथन से ही स्पर्शके अर्थका ग्रहण हो जाता है। अत स्पर्शका पृथक् ग्रहण करना अनर्थक है ' उत्तर - यह कोई दोष नहीं है. क्योकि क्षेत्र शब्द विषयवाची है, जैसे राजा जनपदमें रहता है। यहाँ राजाका विषय www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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