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________________ केवली समुद्घात केशलोंच - प्रथम समयमें "आयुको छोड़कर शेष तीन अधातिया कर्मोंकी स्थितिके असंख्यात बहु भागको नष्ट करते हैं इसके अतिरिक्त क्षीणकषायके अन्तिम समयमें घातनेसे शेष रहे अप्रशस्त प्रकृति सम्बन्धी अनुभागके अनन्त बहुभागको भी नष्ट करते हैं। द्वितीय समयमें-शेष स्थितिके असंख्यात बहुभागको नष्ट करते हैं, तथा अप्रशस्त प्रकृतियोंके शेष अनुभागके भी अनन्त बहुभागको नष्ट करते हैं। पश्चात तृतीय समयमें प्रतर संज्ञित मन्थसमुद्घातको करते हैं। इस समुद्घातमें भी स्थिति व अनुभागको पूर्वके समान ही नष्ट करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ समयमें.. लोकपूरण समुद्घातमें समयोग हो जानेपर योगकी एक वर्गणा हो जाती है। इस अवस्थामें भी स्थिति और अनुभागको पूर्वके हो समान नष्ट करते हैं। लोकपूरणसमुद्धातमें आयुसे संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिको स्थापित करता है। ...उतरनेके प्रथम समयसे लेकर शेष स्थितिके संख्यात बहुभागको, तथा शेष अनुभागके अनन्त बहुभागको भी नष्ट करता है। यहाँ अन्तर्मुहूर्त जाकर तीनों योग उच्छ्वासका निरोध करता है । पश्चात अपूर्व स्पर्धककरण करता है । पश्चात "अन्तर्मुहूर्त काल तक कृष्टियोंको करता है ।...फिर अपूर्व स्पर्धकोंको करता है।"योगका निरोध हो जानेपर तीन अघातिया कर्म आयुके सदृश हो जाते हैं। (ध. ११/४,२.६,२०/१३३-१३४ ); (क्ष.सा /६२३-६४४ )। २०, ९वें गुणस्थानमें ही परिणामोंकी समानता होनेपर स्थितिकी असमानता क्यों ? ध./१/१,१,६०/३०२/७ अनिवृत्त्यादिपरिणामेषु समानेषु सत्सु किमिति स्थित्योर्वेषम्यम् । न, व्यक्तिस्थितिघातहेतुष्वनिवृत्तपरिणामेषु समानेषु सत्सु संसृतेस्तत्समानत्वविरोधाद।-प्रश्न-अनिवृत्ति आदि परिणामों के समान रहनेपर ससार-व्यक्ति स्थिति और शेष तीन कर्मोंकी स्थितिमें विषमता क्यों रहती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि संसारकी व्यक्ति और कर्मस्थितिके घातके कारणभूत परिणामोंके समान रहनेपर संसारको उसके अर्थात् तीन कर्मों की स्थितिके समान मान लेने में विरोध आता है। केवली समुद्घात-दे० केवली/७। केश-एक ग्रह दे० 'ग्रह' । केशलोंच-साधुके २८ मूलगुणोंमें-से एक गुण केशलौच भी है। जघन्य ४ महीने, मध्यम तीन महीने, और उत्कृष्ट दो महीनेके पश्चात वह अपने बालोंको अपने हाथसे उखाडकर फेक देते है। इस परसे उसके आध्यात्मिक बलकी तथा शरीरपरसे उपेक्षा भावकी परीक्षा होती है। १. केशलोंच विधि १८ स्थिति बराबर करनेके लिए इसकी आवश्यकता क्यों ध.१/१,१.६०/३०२/६ संसार विचिछत्तेः किं कारणम् । द्वादशाङ्गावगमः तत्तीवभक्तिः केवलिसमुद्धातोऽनिवृत्तिपरिणामाश्च । न चैते सर्वेषु संभवन्ति दशनवपूर्वधारिणामपि क्षपकश्रेण्यारोहणदर्शनात । न तत्र संसारसमानकर्म स्थितयः समुद्घातेन बिना स्थितिकाण्डकानि अन्तमुहूर्तेन निपतनस्वभावानि पत्योपमस्यासंख्येयाभागायतानि संख्येयावलिकायतानि च निपातयन्तः आयु समानि कर्माणि कुर्वन्ति। अपरे समुद्रातेन समानयन्ति । न चैष संसारघातः केवलिनि प्राक संभवति स्थितिकाण्डघातवत्समानपरिणामत्वात्। -प्रश्न-संसारके विच्छेदका क्या कारण है। उत्तर-द्वादशांगका ज्ञान, उनमें तीव भक्ति, केबलिसमुद्घात और अनिवृत्तिरूप परिणाम ये सब संसारके विच्छेदके कारण हैं। परन्तु ये सब कारण समस्त जीवोंमें सम्भव नहीं है, क्योकि, दशपूर्व और नौपूर्वके धारी जीवोंका भी क्षपक श्रेणीपर चढना देखा जाता है। अत. वहाँपर संसार-व्यक्तिके समान कर्म स्थिति पायी नहीं जाती है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में नियमसे नाशको प्राप्त होनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण या संख्यात आवली प्रमाण स्थिति काण्डकोंका विनाश करते हुए कितने ही जीव समुद्घातके बिना ही आयुके समान शेष तीन कर्मोको कर लेते हैं। तथा कितने ही जीव समुद्घातके द्वारा शेष कर्मोको आयुके समान करते हैं । परन्तु यह संसारका घात केवलीसे पहले सम्भव नहीं है, क्योंकि, पहले स्थिति काण्डकके घातके समान सभी जीवोंके समान परिणाम पाये जाते हैं। मू. आ./२६.../सपडिक्कमणे दिवसे उबवासेणेव कायम्बो ।२६। प्रतिक्रमण सहित दिनमें उपवास किया हो जो अपने हाथसे मस्तक दाढी व मूंछके केशोंका उपाडना बह लोंच नामा मूल गुण है। (अन. ध./8/ ८६); (क्रि. क./४/२६/१)। प. प्र./मू./२/१० केण वि अप्पउ वंचिउ सिरूलु चिधि छारेण...1801 -जिस किसीने जिनवरका वेश धारण करके भस्मसे शिरके केश लौंच किये ।..|[यहाँ भस्मके प्रयोगका निर्देश किया गया है। भ. आ./वि०८६/२२४/२१ प्रादक्षिणावर्त केशश्मश्रुविषय हस्ताङ्गुलीभिरेव संपाद्य... - मस्तक, दाढी और मूंछके केशोंका लौंच हाथोंकी अंगुलियों से करते हैं। दाहिने बाजूसे आरम्भकर बायें तरफ आवर्त रूप करते हैं। २. केश लौंचके योग्य उत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य अन्तर काल १९. समुदुधात रहित जीवकी स्थिति समान कैसे होती है घ. १३/५.४,३१/१५२/१ केवलिसमुग्घादेण विणा कधं पलिदोवमस्स असंखेज्ज दिभागमेत्तद्विदीए घादी जायदे । ण छिदिखंडयघादेण तपधादुववत्तीदो। -प्रश्न-जिन जीवोंके केवलिसमुद्धात नहीं होता उनके केवलिसमुद्घात हुए बिना पत्यके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिका घात कसे होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डक घातके द्वारा उक्त स्थितिका घात बन जाता है। मू.आ./२१विय-तिय-चउक्कमासे लोचो उक्कस्समझिमजहण्णो। केशों का उत्पाटन तीन प्रकारसे होता है-उत्तम, मध्यम व जघन्य । दो महीनेके अन्तरसे उत्कृष्ट, तीन महीने अन्तरसे मध्यम, तथा जो चार महीनेके अन्तरसे किया जाता है वह जघन्य समझना चाहिए। (भ. आ/वि./८/२२४/२०); (अन. ध /६/८६); (क्रि. क./४/२६/१)। ३. केशलोंचकी आवश्यकता क्यों ? भ./आ./८८-८९ केसा संसज्जति हु णिप्पडिकारस्स दुपरिहारा य । सयणादिसु ते जीवा दिट्ठा अगं तुया य तहा।८८ जूगाहिं य लिक्वाहि य बाधिज्जंतस्स संकिलेसों य । संघट्टिज्जति य ते कंडयणे तेण सो लोचो।८-तेल लगाना, अभ्यंग स्नान करना, सुगन्धित पदार्थ से केशोंका संस्कार करना, जलसे धोना इत्यादि क्रियाएँ न करनेसे केशोंमें युका और लिखा ये जन्तु उत्पन्न होते हैं, जब इनकी उत्पत्ति के शोंमे होती है, तब इनको वहाँसे निकालना बड़ा कठिन काम है।८८ जू और लिखाओंसे पीडित होनेपर मनमें नवीन पापकर्म का आगमन करानेवाला अशुभ परिणाम-संक्लेश परिणाम हो जाता है। जीवोंके द्वारा भक्षण किया जानेपर शरीरमें असह्य वेदना होती है, तब मनुष्य मस्तक खुजलाता है। मस्तक खुजलानेसे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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