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________________ केवली १६८ समयनि विषै नोकर्मका आहार नियमतें नाही है अन्य सर्व योगी जिनका काका बाहार है। १२. केवली समुद्रात पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी नियम गो.जी./जी. ७०३/१९३०/११ सयोगे च समुदाते भय योगे पर्याप्त एवं सयोगी व पर्याप्त है, समुदात सहित दो पर्याप्त व अपर्याप्त ) है। अयोगी विषै पर्याप्त ही है। - गोक / जी.प्र./५८७/७६१ / १२ दण्डद्वये कालः औदारिकशरीर पर्याप्तिः, युगले समयः प्रतरयोर्लोकपूरणे च कार्मण इति ज्ञातव्य मूल शरीरप्रथमसमयात्संज्ञिवत्पर्याप्तय पूर्यन्ते । दण्डका करने वा समेटने रूप युगल औदारिक शरीर पर्याप्त काल है। कपाटका करने समेटनेरूप युगल विषे ओदारिकर्मिणशरीर काल है अर्थात् अपर्या काल है। प्रतरका करना ना समेटनाविये अर सोरवि कार्याणकाल है। वृत्तशरीरभि प्रवेश करनेका प्रथम समय से लगाय संशी पञ्चेन्द्रियवत, अनुक्रमतैं पर्याप्त पूर्ण करे है। १३. पर्याप्तापर्याप्त सम्बन्धी शंका-समाधान ध २/१, १/४४१-४४४/१ केवली कबाड- पदर- लोगपूरणगओ पज्जन्तो अपज्जत्तो वा । ण ताव पज्जत्तो. 'ओरालियमस्सकाग्रजोगो अपज्जताणं.' इच्चेदेण सुतेण तम्स अपज्जत्तसिद्धीदो। सजोगि मोसण अप्पे बोरानियमिज असा 'सम्माभिव्याहद्रि जदाद मागि अहारमिस्सकायजोगपमत्तसंजदाणं पिपज्जन्त्तयत्त प्पसंगादो। ण च एवं आहार मिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं' त्ति सुत्तेण तस्स अपज्जन्तभाव - सिद्धादो। अणवगासत्तादो एदेण सुत्तेण 'संजदट्ठाणे नियमा पज्जत्ता' त्ति एवं सुत्तं बाहिज्जदित्ति अणेयंतियादो ।... किमेदेण जाणाविज्जदि । "त्ति एवं सुत्तमणिचमिदि ण च सजोगम्मि सरीरपट्टणमपि तदो रास्स अपजसमिदि परजति सत्तिवज्जियस्स अपज्जन्त ववएसादो । • प्रश्न- कपाट प्रतर और लोकपूरण समुदायको प्राप्त केली पर्याप्त है या अपर्याप्त उत्तर- उन्हे पर्याप्त तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, 'चौहारिक निकाययोग अपको होता है। इससे उनके अपना सिद्ध है, इसलिए वे अपर्याप्त ही हैं। प्रश्न- “सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संतोंके स्थान में जीव नियमसे पर्याप्तक होते है" इस प्रकार सूत्र निर्देश होनेके कारण यही सिद्ध होता है कि सयोगीको छोड़कर अन्य औदारिक मिश्रकाययोगवाले जीव अपर्याप्तक हैं। उत्तर-ऐसा नही है। क्योंकि ( यदि ऐसा मान लें ). तो आहारक मिश्रकाययोगाले प्रमत्तसंयतों को भी अपर्याप्तक ही मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी संयत है। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, 'आहारकमिय काययोग अपतौके होता है इससे वे अपर्याप्त ही सिद्ध होते है। प्रश्न- यह सूत्र अनवकाश है, (क्योंकि) इस सुजसे यतोके स्थान में औच नियमसे पर्याप्त होते हैं, यह सूत्र बांधा जाता है। उत्तर- इस कथनमें अनेकान्तदोष आ जाता है। ( क्योंकि अन्य सूत्रोंसे यह भी बाधा जाता है। प्रश्न ( सूत्रमें पडे ) इस नियम शब्दसे क्या ज्ञापित होता है। उत्तर- इसमे ज्ञापित होता है कि यह सूत्र अनिश्य है । "कहीँ प्रवृत्त हो और कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है । प्रश्न- सयोग अवस्थामें ( नये ) शरीरका आरम्भ तो होता नहीं; अत सयोगीके अपर्याप्तपना नहीं बन सकता। उत्तर-नहीं, क्योंकि, कपाटादि समुद्धात अवस्थामें सयोगी छह पर्याप्ति रूप शक्तिसे रहित होते हैं, अतएव उन्हे अपर्याप्त कहा है । १४. समुद्रात करनेका प्रयोजन - भ.आ./मू./२११२-२१९६ ओलं संत निरन्तिर्द जमा संवेदियं तु तधा तधेव कम्मं पि णादव्वं ॥ २१९३ | दिदिबंधस्स Jain Education International ७. केवली समुद्घात निर्देश सिमेोहेद्रवीषि सो समुहवस्य सउदिय स्त्रीगसिपे सेर्स बप्पी होदि २११४४ सेलेसिमन्स जोगणिरोध तदो कुदि | २११६। - गीला वस्त्र पसारनेसे जल्दी शुष्क होता है. परन्तु वेष्टित वस्त्र जल्दी सूखता नही उसी प्रकार बहुत कालमे होने योग्य स्थिति अनुभागघात केवली समुद्वातद्वारा शोध हो जाता है | २११३ | स्थिति बन्धका कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्धात से नष्ट होता है, और स्नेहगुण कम होनेने उसकी अन्य स्थिति होती है ।२११४ अन्त में योग निरोध वह धीर मुक्तिको प्राप्त करते हैं । २११६ पं.का./न./१५३/२२२/- संसारस्थितिविनाशार्थ केला । = संसारकी स्थितिका विनाश करनेके लिए केवली समुद्धात करते हैं । - . १५. इसके द्वारा शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग घात नहीं होता भ. १२/४.२.७.२४/१०/२ सुहाणं परीणं विसोहीदो केवलमुग्धा जोगपिरोहेण वा अणुभागादो पत्थि त्ति-शुभ प्रकृतियोंके अनुभागका पातविशुद्धि केवलसमुद्रात अथवा योगनिरोधसे नहीं होता है । १०. जब शेष कमकी स्थिति आयुके समान न हो तब उनका समीकरण करनेके लिए किया जाता है भ आ /मू / २११०-२१११ जेसि अउसमाई णामगोटाई वेदणीयं च । ते अकदसमुग्धादा जिणा उवणमंति सेलेसि । २११०| जैसि हवं ति बिसमाथिपामगोदावेदनीयाणि ते दु कदसमुग्धादा जिला वनमंत सेलेसि । २११११ = आयुके समान ही अन्य कर्मोकी स्थितिको धारण करनेवाले केपली समुद्रात किये बिना सम्पूर्ण शीलोंके धारक बनते २११० जिनके बेदनीय नाम व गोत्रकर्म की स्थिति अधिक रहती है केवली भगवा धातके द्वारा आयुकर्मी बराबरीकी स्थिति करते है. इस प्रकार वे सम्पूर्ण शीलोंके धारक बनते है । २१११ | ( स सि ( . १/१.१.६०/१६०२/३०४) (. ४२/४२); (पं का./ता वृ / १५३/७) १/१.१.६०/३०२ / ६ के म समुचातयन्ति मे संसृतिव्यक्ति कर्मस्थित्या समाना से न समुहयातयन्ति शेषा समुद्रघातयन्ति । = प्रश्न -- कौनसे केवली समुद्रघात नहीं करते है । उत्तर- जिनकी संसार व्यक्ति अर्थात् संसारमे रहनेका काल वेदनीय आदि तीन कर्मों की स्थिति के समान है वे समुद्घात नहीं करते हैं, शेष केवली करते हैं। १७. कमकी स्थिति बराबर करनेका विधिक्रम ध. ६/१,६-८,१६/४१२-४१७/४ पढमसमए ट्ठिदिए असंखेज्जे भागे हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्याणमणं ते भागे हणदि (४१२/४ ) विदियसमए 'तम्हि सेसिगाए हिंदीए बसंस्थेज्जे भागे हणदि । सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणं ते भागे हणदि । तदो तदियसमए मंथ करेदि । द्विदि-अणुभागे तहेव गिज्जरयदि । तदो चउत्थसमए··· लोगे पूण्णे एक्का वग्गणा जोगस्स समजोगजादसमए । द्विदिअणुभागे तब णिज्जरयदि। लोगे पुण्णे, अंतोमुहुत्तट्ठिदि (४१२/१) वेदि संखेज्जगमा आयो। एसो मेसिया द्विदीए संखेज्जे भागे हणदि । एतो अंत्तोमुहुत्तं गंतूण कायजोग' 'वचिजोगं मुहमउस्सास भिदि ( ४१४/९)। तदो अंशो म इमाणि करणाणि करेदि - पढमसमय अपूव्वफद्दयाणि करेंदि पुब्बफयाण हेट्ठादो (४१५/१ ) एतो अंतोमुहूत्तं किट्टोओ करेदि ( ४१६/ १) जोगहि हिमाम्माण भाषेति (४१७/९) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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