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________________ अतिचार * आखेट व सूतके अतिचार पे यह यह नाम * ईयसमितिके अतिचार दे. समिति १। * कायोत्सर्गके अतिचार —दे व्युत्सर्ग १ | * जलगालनके अतिचार जगातन २० * तपोके अतिचार — वह वह नाम * निरतिचार शोलव्रत — दे शील । * परस्त्री व वेश्याके अतिचार * मद्य, मास, मधुके अतिचार - दे. वह * मन, वचन, कायगृतिके अविचार * व्रतोंके अतिचार दे वह वह नाम । -- * सम्यग्ज्ञानके अतिचार — दे. आगम १ । * सम्यग्दर्शनके अतिचारवे. सम्यग्दर्शन 1 / 2 | पर्व २ । वह नाम । गुझि २० २. अतिचारके भेदोके लक्षण रसासक्तता म. आ // ६१२/८१२ / ६ उपयुक्तोऽपि सम्यगतिचार न ि सोऽनाभीगकृत व्याक्षिष्टचेतसा वा कृत नदीपूर अग्न्युत्थापन महावाताणतः, वर्षाभिघात, परचक्ररोध इत्यादिका आपाता' । रोगार्थ शोका, बेदना इत्यादात्रिविधा । मुखरता चेति द्विप्रकारता तित्तिणदाशब्दवाच्या सचित्तं किमवित्तमिति शङ्कते द्रव्ये भञ्जनभेदनभक्षणाभिराहारस्योपकरणस्य, बसतेर्वा उद्गमादिदोष। पतिरस्ति न वेति शंकायामप्युपादानम् । अशुभस्य मनसो वाचोमा कटिति प्रवृत्ति सहरीत्युच्यते एकान्तायां बसठी व्याक्षमृगव्यामादयस्तेना वा प्रविशन्ति इति येनारस्थगने जातोऽतिचारस्तीषायपरिणाम प्रदोष दत्युपले उदराज्यादिसमानतया प्रत्येक चतुर्विकल्पाश्चत्वार' कषायाः । आत्मनश्चापरस्य वाताववादिपरीक्षा मीमांसा तत्र जातोऽतिचार प्रसारितकराकुचितम् आकृतिकरसारण धनुषाधारोपण उपला प माधन, वृतिकण्ठका धनं पशुसर्पादीनां मपरीक्षणार्थं धारणं परोक्षणार्थ जनस्य चूर्णस्य वा प्रयोग' द्रव्यसंयोजनया त्रसानामेकेन्द्रियाणां च समूर्च्छना परीक्षा । अज्ञानामाचरणं दृष्ट्वा स्वयमपि तथा चरति तत्र दोषानभिइ । अथनाज्ञानिनोपनो मादिदोषोपहतं उपकरणादिक सेवते इति अज्ञानात्प्रवृत्तोऽतीचार । शरीरे, उपकरणे, वसतौ, कुले, ग्रामे, नगरे, देशे, बन्धुषु, पार्श्वस्थेषु वा ममेद भाव स्नेहस्तेन प्रवर्तित आचार । मम शरीरमिदं शीतो बातों बाधयति कटादिभिरन्तर्धान, अग्निसेवा, ग्रीष्मापनदिनार्थ प्राणग्रहणं वा न वा उपकरण विनस्यतीति तेन स्वा करण यथा पिच्छ विनाशभयादमार्जन इत्यादिकम् चक्षण, तैलादिना कमण्डल्वादोर्ना प्रक्षालनं वा, वसतितृणादिभक्षणस्य भव्जनादेव ममतया निवारणं, बहूनां यतोनां प्रवेशनं मदीयं कुलं न सहते, ति भाषण, वेदो कोचा, महून न दातव्यमिति निषेधन, कुलस्यैव वैयावृत्यकरणम् निमित्ताय पदेशश्च रात्र ममतया ग्रामे नगरे देशे वा अवस्थानानिषेधनम्। यतीना समधिमा शुखेन सुखमारमन दुःखेन दुःखमित्यादितिचा पारस्थान बन्दना उपकरणादिदानं का दुनासमर्थता गुरुता, शुद्धिप्यागासहता, गौरव परिवारे कृतादरः । परकीयमात्मसात्करोति प्रियवचनेन उपकरणदानेन । अभिमत रसात्यानोऽनाभिमठानादरस्य नितरां रसगौरव निकामभोजने, निकामशयनादौ वा आसक्तिः सातगौरवम् । अनात्मवशतया प्रवर्तितातिचार' । उन्मादेन, पित्तेन पिशाचदेशेन वा परवशता । Jain Education International ४३ अतिचार अथवा ज्ञातिभिः परिगृहीतस्य बलात्कारेण गन्धमात्यादिसेवा प्रत्यास्पातभोजनं, मुखमासताम्बूलादिभक्षणं वा स्वोभिर्नपुंसके बाद मकरणम्। पतुर्षु स्वाध्यायेषु आवश्यकेषु वा आलस्यम् उमधिशदेन मायोच्यते प्रमना चारे वृत्तिः ज्ञारा दातृ पूर्वमन्ये म्य प्रवेश कार्यापदेशेन यथा परे न जानन्ति तथा वा । भद्रक भुक्त्वा विरसमशनं भुक्तमिति कथनम् ग्लानस्याचार्यादेव वैयावृत्त्यं करिष्यामि इति किचिदुगृहोत्वा स्वयं तस्य सेवनम् । स्वप्ने वायोग्यसेवा सुमिणमित्युच्यते । द्रव्यक्षेत्र कालभावाश्रयेण प्रवृत्तस्यातिचारस्याग्यथा कथन पालिशब्देनोच्यते कथं, सचिव कृत्वा अचित्तं सेवितमिति । अचित्त सेवित्वा सचित्त सेवितमिति वदति तथा कृतमिति सुभिक्षे कृत दुर्भिक्षे कृतमिति, दिवसे कृतं रात्रौ कृतमिति, अकषायतया सपादित तीनकोधायिना संपादितमिति । यथावतातोपनो यतिरिः प्रायश्वित्तं प्रयच्छति सामरस्वयमेवेद मम प्रायश्चित्तम् इति स्वयं गृह्णाति स स्वय शोधक एवं मया स्वशुद्धिरमुष्टिति निवेदनम् (ज्यो का खो दे दिया है, पर सुविधार्थ भाषार्थ वर्णानुक्रमसे दिया है) १ अज्ञानातिचार- दे. अज्ञान ४ । २. अनाभोग कृत - उपयोग देकर भी जिसे अतिचारोंका सम्यग्ज्ञान नहीं होता, उसको अनाभोगकृत अतिचार कहते हैं। अथवा मन दूसरी तरफ लगने पर जो अतिचार होता है वह भी अनाभोग कृत है। ३. आपात - नदीपूर, अग्नि लगना, महावायु बहना, वृष्टि होना, शत्रुके सैन्य से घिर जाना, इत्यादिक कारणो से होने वाले अतिचारीको आपात अतिचार कहते है ४ आर्त रोग, शोक, या वेदनासे व्यथित होना ऐसे आर्तताके तीन प्रकार है। इससे होने वाले अतिचारोको आर्तातिचार कहते है । ५. उपाधिउवधि शब्दका अर्थ माया होता है । गुप्त रीतिसे मायाचार में प्रवृत्ति करना, दाता के घरका शोध करके अन्य मुनि जानेके पूर्व में वहाँ आहारा प्रवेश करना, अथवा किसो कार्यके निमित्तसे दूसरे नहीं जान सकें इस प्रकारसे प्रवेश करना, मिष्ठ पदार्थ खानेको मिलनेपर 'मुझे निरस अन्न खानेको मिला ऐसा कहना, रोगी भूमि आचार्यकी वैयावृत्त्य के लिए श्रावकोंसे कुछ चीज माँगकर उसका स्वयं उपयोग करना । ऐसे दोषोकी आलोचना करनी चाहिए। ६. उपचार - यह ठंड हवा मेरे शरीरको पीडा देती है ऐसा विचार कर चटाईसे उसको ढकना, अग्निका सेवन करना, ग्रीष्म ऋतुका ताप मिटानेके लिए वस्त्र ग्रहण करना, उबटन लगाना, साफ करना, तैलादिकोंसे कमडलू वगैरह साफ करना, धोना, उपकरण नष्ट होगा इस भय से उसको अपने उपयोग में न लाना, जैसे- पिच्छिका झड जायेगी इस भय से उससे जमीन, शरीर व पुस्तकादि साफ न करना, ऐसे अतिचारोकी उपचाराविचार यह सज्ञा है (और भी थे.स. १०] १०७ गौरव करनेमें असमर्थ होना, ऋद्धिमें गौरव समझना, परिवार में आदर करना, प्रिय भाषण करके और उपकरण देकर परकीय वस्तु अपने वश करना, इसको वृद्धि गौरव कहते है । इष्ट रसका त्याग न करना, अनिष्ट रसमें अनादर रखना, इसको रस गौरव कहते है भोजन करना, अतिशय सोना इसको सात गौरव कहते है। इन दोषोंको आलोचना करनी चाहिए। विशिषदारसमें आसक्त होना और वाया होगा इसको तितिपदा अतिचार कहते है . देशाविचार(मन, वचन, काम तथा कृत, कारित, अनुमोदनाके विकल्पोसे देशातिचार नाना प्रकारका है ) । १० परवश - परवश होनेसे जो अतिचार होते हैं उनका विवेचन इस प्रकार है - उन्माद, पित्त, पिशाच इत्यादि कारणोंसे परवश होनेसे अतिचार होते है । अथवा जातिके लोगों से पकड़ने पर बलात्कारमै इत्र, पुष्प, वगैरहका सेवन किया जाना, त्यागे हुए पदार्थीका भक्षण करना, रात्रि भोजन करना, मुखको सुगन्धित करनेवाला पदार्थ साम्बूल वगैरह भक्षण करना, स्त्री अथवा नपुंसकों जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only = www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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