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________________ अजीव संवर अतिचार अजीव संवर-दे सवर । अटट-काल प्रमाणका एक विकल्प-दे. गणित १/21 अटटांग-काल प्रमाणका एक विकल्प-दे. गणित 1/१/४॥ अढाई द्वीप- जम्बू द्वीप धातकी खण्ड और पुष्कर द्वीपका अन्दरवाला अर्ध भाग, ये मिलकर अढाई द्वीप कहलाता है। मनुष्यका निवास व गमनागमन इसके भीतर ही भीतर है बाहर नहीं, इसलिए इसे मनुष्य लोक भी कहते हैं । दे. लोक ४/२ पर मानचित्र । अणिमा ऋद्धि-दे. ऋद्धि ३. अण-रा.वा. ५/२५.१/४६१/११ प्रदेशमात्रभाविमिः स्पर्शादिभि. गुण. स्सततं परिणमन्त' इत्येव अण्यन्ते शब्यन्ते ये ते अणवः । सौम्यादात्मादय आत्ममध्या आत्मान्ताश्च । -प्रदेश मात्र-भावि स्पर्शादि गुणोंसे जो परिणमन करते हैं और इसी रूपसे शब्दके विषय होते हैं वे अणु है । वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं, इनका आदि मध्य अन्त एक ही है। प. का /ता. वृ./४/१२ अणुशब्देनात्र प्रदेशा गृह्यन्ते। अणु शब्दसे यहाँ प्रदेश ग्रहण किये जाते है। द्र स /टी./२६/७३/११ अणुशब्देन व्यवहारेण पुद्गला उच्यन्ते...वस्तु दृश्या पुनरणुशब्द सूक्ष्मवाचक1 -अणु इस शब्द-द्वारा व्यवहार नयसे पुदगल कहे जाते हैं । वास्तव में अणु शब्द सूक्ष्मका वाचक है। अणुवयरयणपईव-अपर नाम अणुव्रतरत्नप्रदीप है। कवि लक्रवण (वि. १३१३) कृत श्रावकाचार विषयक अपभ्रंश ग्रन्थ । (ती./४/१७६)। अणविभंजन (ज.प./प्र १०५) Atomic Splitation. अणुव्रत-दे. व्रत। अतत-१.प.ध. पू /३१२ तदतद्भावविचारे परिणामो विसदशोऽथसदृशो वा ॥३१२॥ तत् व अतव भावके विचारमें परिणामोंकी सदृशता विसदृशताका भेद होता है; २. द्रव्य में तव-अतव धर्म -दे. अनेकांत ४। अतत्त्वशक्ति-स. सा./परि । शक्ति नं.३० अतद्रूपाऽभवनरूपा अतत्त्वशक्तिः । - तत्स्वरूप न होने रूप तीसवीं अतत्त्वशक्ति है। अतद्धाव-दे अभाव। अतिकाय-महोरग नामा व्यन्तर जातीय देवोंका एक भेद-दे, महोरग। (व्यन्तर २/१) । अतिक्रम-रा. वा./७/२३, ३/५५२/१६ अतिचार' अतिक्रम इत्यनर्था न्तरम् । =अतिक्रम भी अतिचारका ही दूसरा नाम है। रा, वा./७/२७, ३/५५४/११ उचितान्न्याय्याद अन्येन प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रम इत्युच्यते । - उचित न्याय्य भागसे अधिक भाग दूसरे उपायोंसे ग्रहण करना अतिक्रम है । ( यह लक्षण अस्तेयके अतिचारोंके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है)। रा. वा./७/३०,१/५५९/१६ परिमितस्य दिगवधेरतिलड्धनमतिक्रम इत्युच्यते। -दिशाओंकी परिमित मर्यादाका उल्लंघन करना (दिग्वतका) अतिक्रम है। रा.वा./७/३१,4/१६/१२ स्वयमनतिक्रमन अन्येनातिकामयति ततोऽतिक्रम इति व्यपदिश्यते। -स्वय मर्यादाका उल्लंघन न करके दूसरेसे करवाता है । अत' उनको ( आनयन आदिको देशव्रतका ) अतिक्रम' ऐसा कहते हैं। रा.वा./७/३६५५८/२८ अकाले भोजनं कालातिक्रमः ।। अनगाराणाम अयोग्यकाले भोजनं कालातिक्रम इति कथ्यते। साधुओंको भिक्षा कालको टालकर अयोग्य कालमें भोजन देनेका भाव करना अतिथि संविभाग व्रतमें कालका अतिक्रम कहलाता है। पु. सि./३० में उद्धृत "अतिक्रमो मानसशुद्धिहानि. व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाष। तथातिचार करणालसत्व भड्गो ह्यना चारमिह बतानाम् ।" =मनकी शुद्धिमें हानि होना सो अतिक्रम है, विषयोंकी अभिलाषा सो व्यतिक्रम है, इन्द्रियोंकी असावधानी अर्थात बतों में शिथिलता सो अतिचार है और व्रतका सर्वथा भग हो जाना सो अनाचार है। (सा.पा 8) अतिक्रांत-(ज. प./प्र. १०५ ) 1 xtra अतिगोल-(ज प./प्र. १०५) Right circulhr cylinder अतिचार-रा.वा /७/२३, ३/५५२/१६ दर्शनमोहोदयादतिचरणमतिचारः।३। दर्शनमोहोदयात्तत्त्वार्थ श्रद्धानादतिचरणमतिचार अतिक्रम इत्यनन्तरम् । = दर्शन मोहके उदयसे तत्त्वार्थ श्रद्धानसे विचलित होना ( सम्यग्दर्शनका ) अतिचार है। अतिक्रम भी इसीका नाम है। ध.८/३,४१८२/६ सुरावाण-मांसभक्खण-कोह-माण-माया-लोह-हरसरह-सोग-भय-दुछित्थि-पुरिस-ण र वेयापरिच्चागो अदिचारो, एदेसि विणासो णिरदिचारी सपुण्णदा. तस्स भावो णिरदिचारदा। -मुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एव नपुसक वेद इनके त्याग न करनेका नाम अतिचार है और इनके विनाशका नाम निरतिचार या सम्पूर्णता है। इसके भावको निरतिचारता कहते है। चा,सा./१३७/२ कर्तव्यस्याकरणे वर्जनीयस्यावर्जने यत्पापं सोऽतिचार । -किसी करने योग्य कार्यके न करनेपर और त्याग करने योग्य पदार्थ के त्याग न करनेपर जो पाप होता है उसे अतिचार कहते है। सा, पा./ ..प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनम् । =विषयों में वर्तन करनेका नाम अतिचार है। सा.ध.४/१८ सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोऽशभजनम् । मन्त्रतन्त्रप्रयोगाद्याः परेऽप्यूह्यास्तथात्यया.। = "भै ग्रहण किये हुए अहिंसा वतका भंग नहीं करू गा" ऐसी प्रतिज्ञा करनेवाले श्रावकके बतका एक अश भग होना अर्थात चाहे अन्तरंग व्रतका खण्डन होना अथवा बहिरग व्रतका खण्डन होना उस बतमें अतिचार कहलाता है। दे. अतिक्रम/पु. सि. इन्द्रियोंकी असावधानी अर्थात बतोमें शिथिलता सो अतिचार है। १. अतिचार सामान्यके भेद भ. आ./मू व वि. /१८७/७०६ दसणणाणादिचारे बदादिचारे तवाविचारे य । देसच्चाए विविधे सम्बच्चाए य आवण्णो ॥४८७. सर्यो द्विप्रकार इत्याचष्टे देशच्चाए विविधे देशातिचारं नानाप्रकार मनोवाक कायभेदात्कृतकारितानुमतविकल्पाच्च । सव्वच्चागे य सर्वातिचारे च आवण्णो आपन्न । =सम्यग्दर्शन और ज्ञानमे अतिचार उत्पन्न हुए हों, देशरूप अतिचार उत्पन्न हुए हो अथवा सर्व प्रकारोसे अतिचार उत्पन्न हुए हों ये सर्व अतिचार क्षपक आचार्य के पास विश्वास युक्त होकर कहे ॥४८७॥ "अतिचारके देशत्याग और सर्वत्याग ऐसे दो भेद है। मन, वचन, शरीर, कृत, कारित और अनुमोदन ऐसे नौ भेदों में से किसी एकके द्वारा सम्यग्दर्शनादिको में दोष उत्पन्न होना ये देशातिचार है और सर्व प्रकारसे अतिचार उत्पन्न होना सर्वत्यागातिचार है। भ. आ./वि./६१२/८१२/६ [इस प्रकरणमें अतिचारोंके लक्षण दिये हैं। परन्तु यहाँ पर केवल भाषामें अतिचारोके नाम मात्र देते है। १ अज्ञानातिचार, २ अनाभोगकृत अतिचार, ३ आपात अतिचारः ४ आर्तातिचार; ५ उपधि अतिचार; ६ उपचारातिचार; ७ गौरव अतिचार, ८ तित्तिणदा अतिचार; देशातिचारः १० परवशातिचार; ११ पालिकुंचन अतिचार, १२ प्रदोषातिचारः १३ प्रमादातिचार: १४ भयातिचार, १५ परीक्षा मीमांसा अतिचार, १६ वचनातिचारः १७ वसति अतिचार, १८ विनयातिचारः १६ शंकितातिचार, २० सर्वातिचार; २१ सहसातिचार; २२ स्नेहातिचार; २३ स्वप्नातिचार; २४ स्वयं शोधक अतिचार तथा इसी प्रकार अन्य भी अनेकों अतिचार हो सकते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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