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________________ अन्तरकरण २. अन्तरकरण सम्बन्धी नियम ५. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरणको संदृष्टि व यन उदय रूप अनुदयरूप अनुदयरूप सम्यक प्रकृति सम्यक मिथ्यात्व मिथ्यात्व ठ . . . . द्वितीयस्थिति . - अन्तण्याम प्रथमस्थिति ००००००००००/xxxxxxx/0000००००० xxxxxxxxx.04 xxxxxxxxxp+1 xxxxxxxxxi- EL 1060000000poaxxxxxxxxxxxxxxxx 680pooxxxxxxxxxxxxxxxxxi अन्तरायाम अन्तरायाम 4 +इतनाकाला प्रत्यावला शेषरहने । चलतारहता है। उदधावली ६.चारित्रमोहके उपशमकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान द्वितीयोपशमको भाँति यहाँ भी दो प्रकारकी प्रकृतियाँ उपलब्ध है-उदयरूप, अनुदय रूप । इसके अतिरिक्त यहाँ एक विशेषता यह है कि यहाँ साथ-साथ चारित्र मोहकी किन्हीं प्रकृतियोंका नवीन बन्ध भी हो रहा है और किन्हीं का नहीं भी हो रहा है। इस देशघातो करणसे ऊपर संख्यात हजार स्थितिवन्धके पश्चात मोहनीयकी २१ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभमें कोई एकके, तथा तोनों वेदोंमें किसी एकके उदय सहित श्रेणी चढ़ता है । इन उदय रूप दो प्रकृतियों की तो प्रथम स्थिति अन्तर्मुहर्त स्थाप है और अनुदय रूप १६ प्रकृतियों की प्रथम स्थिति आवली मात्र (उदयावली) स्थाप है। इन प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़ ऊपरके निषेकौंका अन्तरकरण करता है. ऐसा अर्थ जानना ।क्रम बिलकुल द्वितीयोपशमके समान ही है। अन्तरके अर्थ उत्कीर्ण किये द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं देता है। फिर किसमें देता है उसे कहते हैं। जिनका उदय नहीं होता केवल बन्ध ही होता है उन प्रकुतियों के द्रव्य को उत्कर्षण करके तत्काल बंधनेवाली अपनी प्रकृतिकी आबाधाको छोड़कर, द्वितीय स्थितिके प्रथम समयसे लगाकर यथायोग्य अन्तपर्यन्त निक्षेपण करता है, और अपकर्षण करके उदय रूप जो अन्य कषाय उसकी प्रथम स्थितिमें निक्षेपण करता है। जिन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता केवल उदय ही होता है, उनके द्रव्यका अपकर्षण करके अपनी प्रथम स्थिति देता है । और उत्कर्षण करके, जहाँ अन्य कषाय बंधती हैं उनकी द्वितीय स्थितिमें देता है, तथा अपकर्षण द्वारा उदय रूप अन्य क्रोधादि कषायकी प्रथम स्थितिमें संक्रमण कराके उदय प्रकृति रूप भी परिणमाता है। जिन प्रकृतियोंका मन्ध भी है और उदय भी है, उनके 'अन्तर' सम्बन्धी द्रव्यको अपकषण करके उदय रूप प्रथम स्थिति देता है तथा अन्य प्रकृति परिणमने रूप संक्रमण भी होता है। और उत्कर्षण करके जहाँ अन्य प्रकृति मंधती है उनकी वित्तीय स्थितिमें देता है। बन्ध और उदय रहित प्रकृतियोंके अन्तर सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षण करके उदय रूप प्रकृतिको प्रथम स्थितिमें संक्रमण कराता है वा तद्वप परिणमाता है। और उत्कर्षण करके अन्य मंधनेवाली प्रकतियोकी द्वितीय स्थिति रूप संक्रमण कराता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक अन्तर करने रूप क्रियाको समाप्ति होती है । जब उदयावली का एक समय व्यतीत होता है, तब गुणश्रेणीका एक समय उदयावली में प्रवेश करता है, और तब ही अन्तरायामका एक-एक समय गुणश्रेणी में मिलता है, और द्वितीय स्थितिका एक समय अन्तरायाममें मिलकर द्वितीय स्थिति घटती है। प्रथम स्थिति और अन्तरायाम उतनाका उतना ही रहता है। (विशेष दे.--ल. सा /म.व.जी प्र. २४१-२४७ / २६७-३०४) ७. चारित्रमोह क्षपणकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान चारित्रमोह उपशम विधानवत् देशघाती करण त परै ख्यात हजार स्थिति काण्डकोंके पश्चात् चार संज्वलन और नव नोकपायका अन्तर करता है । अन्तरकरण कालके प्रथम समयमें पूर्व से अन्य प्रमाण लिये स्थितिकाण्डक, अनुभाग काण्डक व स्थिति बन्ध होता है। प्रथम समय में उन निषेकोंके द्रव्यको अन्य निषेकों में निक्षेपण करता है। सज्वलन चतुष्कमें-मे कोई एक, तीनों वेदों में से कोई एक ऐसे दो प्रकृतिकी तो अन्तर्मुहुर्त मात्र स्थिति स्थापै है। इनके अतिरिक्त जिनका उदय नहीं ऐसी११ प्रकृतियों की आवली मात्र स्थिति स्था है। वर्तमान सम्बन्धी निपेकसे लगाकर प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़ इनके ऊपरके निषेकोंका अन्तर करता है। असंख्यातगुणा क्रम लिये अन्तमहतमात्र फालियो के द्वारा सर्व द्रव्य अन्य निषेकों में निक्षेपण करता है। अन्तर रूप निषेकों में क्षेपण नहीं करता। कहाँ निक्षेपण करता है उसे कहते हैं । बन्ध उदय रहित वा केवल बन्ध सहित उदय रहित प्रकृतियों के द्रव्यको अपकर्षण करके उदयरूप अन्य प्रकृतियों की प्रथम स्थितिमें संक्रमण रूप निक्षेपण करता है । बन्ध उदय रहित प्रकृतियों के द्रव्यको द्वितीय श्रेणी में निक्षेपण नहीं करता है क्योंकि बन्ध बिना उत्कषण होना सम्भव नहीं है । केबल बन्ध सहित प्रकृतियोंके द्रव्यको उत्कर्षण करके अपनी द्वितीय स्थितिमे देता है, वा बँधनेवाली अन्य प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थितिमें संक्रमण रूपसे देता है। केवल उदय सहित प्रकृतियोंके द्रव्यको अपकर्षण करके प्रथम स्थितिमें देता है और अन्य प्रकृतियोंके द्रव्यको भी इनकी प्रथम स्थितिमें संक्रमण रूप निक्षेपण करता है। इनका द्रव्य है सो उत्कषण करके बन्धनेवाली अन्य प्रकृतियों की द्वितीय स्थितिमें निक्षेपण करता है। केवल उदयमान प्रकृतियोंका द्रव्य अपनी द्वितीय स्थितिमें निक्षेपण नहीं करता है। बन्ध उदय सहित प्रकृतियोंके द्रव्यको प्रथम स्थितिमें चा बन्धती द्वितीय स्थितिमें निक्षेपण करता है। विशेष दे.-क्ष, सा. भाषा ५३३-५३५/५१३) २. अन्तरकरण सम्बन्धी नियम १. अन्तरकरणको निष्पत्ति अनिवत्तिकरणके कालमें होती है ६।१,६-८,4/२३१/३ कम्हि अन्तरं करेदि। अणियट्टीअद्धाए संखेज्जे भागे गतूण । -शंका-किसमें अर्थात कहाँपर या किस करण के कालमें अन्तर करता है। उत्तर अनिवृत्ति करणके काल में संख्यात भाग जाकर अन्तर करता है । (ल.सा.मू. ८४/११८) २. अन्तरकरणका काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ल. सा. मु. ८५/११६ एयहिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरस्स णिप्पत्ती। अंतोमुहत्तमेत अंतरकरणस्स अदाणं ॥८॥-एक स्थिति खण्डोरकीरण काल विषै अन्तरकी निष्पत्ति हो है। एक स्थिति काण्डोरकीरणका जितना काल तितने काल करि अन्तर करे है। याको अन्तरकरण काल कहिए है, सो यह अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ३. अन्तरायाम भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होता है ल. सा./जी./प्र. २४३/२६६ एवं विधान्तरायामप्रमाणं च ताभ्यां वाभ्या जैनेन्द्र सिवान्तकोश For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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