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________________ अन्तरकरण ६. अन्य विषयों सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणाएँ :-- ध. १ / ४,१,७१ / ३७०-४२८ पाँचों शरोरोंके योग्य पुद्गल स्कन्धों की उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य संघातन परिशातन व तदुभय कृति सम्बन्धी ओघ आदेश प्ररूपणा । ६. १२/४.२,७,२०९/११४-१२७/१४ जोसमासों में अनुभाग बन्ध स्थानोंके अन्तरका अल्प- बहुत्व । ध. १३/५,४,३१/१३२-१७२ प्रयोग कर्म, समवधानकर्म, अधःकर्म, तपःकर्म, ईर्याfपथ कर्म, और किया फर्ममे १४ मार्गणाओंकी अपेक्षा प्ररूपणा । ध. १४/५.६,११६/१५० १६९/१ प्रकार वर्गणाओंका जघन्य उत्कृष्ट अन्तर । घ. १४/५.६,९६०/२८४-२०१६ पाँचों शरीरोंके स्वामियोंके ( २,३,४ ) भंगका ओघ आदेश से जघन्य उत्कृष्ट अन्तर । अंतरकरण—पार्जित कर्म यथा काल उदयने आकर जीवके गुणों का पराभव करने में कारण पड़ते रहते हैं। और इस प्रकार जीव उसके प्रभाव से कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। परन्तु आध्यात्मिक साधनाओंके द्वारा उनमें कदाचित् अन्तर पड़ना सम्भव है । कुछ काल सम्बन्धी कर्म निषेक अपना स्थान छोड़कर आगे-पीछे हो जाते हैं । उस कालसे पूर्व भी कर्मों का उदय रहता है और उस कालके पीछे भो । परन्तु उतने काल तक कर्म उदयमें नहीं आता । कर्मके इस प्रकार अन्तर उत्पन्न करनेको ही अन्तरकरण कहते हैं। इसी विषयका कथन इस अधिकार के अन्तर्गत किया गया है। १. अन्तरकरण विधान १. अन्तरकरणका लक्षण .सा./ भाषा, ८४/११० विवक्षित कोई निषेकनिका सर्व द्रव्य की अन्य निषेकनिविषै निक्षेपण करि तिनि निषेकनिका जो अभाव करना सो अन्तरकरण कहिये । २. प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरण-विधान ध. ६/१,६-८,६/२३१/१४/ विशेषाथ-अन्तरकरण प्रारम्भ करनेके समय से पूर्व उदयमें आनेवाले मिया कर्म की अन्तर्मुहुर्त प्रतिस्थितिको उल्लंघन कर उससे ऊपरको अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थिति के निषेकका उत्कीरण कर कुछ कर्म प्रदेशोंको प्रथम स्थिति में क्षेपण करता है और कुछको द्वितीय स्थिति में । अन्तरकरण से नीचेकी अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिको प्रथम स्थिति कहते हैं, और अन्तरकरण से ऊपरकी स्थितिको द्वितीयस्थिति कहते हैं । इस प्रकार प्रतिसमय अन्तरायाम सम्बन्धो कर्म प्रदेशों को ऊपर नीचेकी स्थितियों में तबतक देता रहता है जबतक कि अन्तरायाम सम्बन्धी समस्त निषेकोंका अभाव नहीं हो जाता है । यह क्रिया एक अन्तर्मुहूर्त कालतक जारी रहती है । जब अन्तरायाम के समस्त निषेक ऊपर या नीचेकी स्थितिमें दे दिये जाते हैं और अन्तरकाल मिथ्यात्व स्थितिके कर्म निषेकोंसे सर्वथा शून्य हो जाता है तब अन्तर कर दिया गया ऐसा समझना चाहिए। वि. वे. (०६/१.६-८,६/२३९/१३ ) स.सा./८४-८६ / १११-१२१) ३. प्रथमोपशम सम्यक्त्वको अपेक्षा अन्तरकरणकी संदृष्टि व यन्त्र उदयागत निषेक-० सत्तास्थित निषेक - ० उत्कीरित निषेक - X निक्षिप्त निषेक Jain Education International उपरितन स्थिति गुणश्रेणी आयाम द्वितीय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only गुणश्रेणी शीर्ष x सं गुणश्रेणी शीर्ष प्रथम स्थिति उदयावली सत्ता १. अन्तरकरण विधान मिथ्यात्व का नवक समय प्रबद - वर्तमान उदय आबाधा ४. द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान ६. ६/१.१०८.१४ / २६० / ३ तो तो तूण दंसणमोहणीयस्स अंतर करेदि जधा सम्मत्तस्स पटवितोमुहुत्तमे मोसून अंतरं करेदि, मत-सम्मानयत्ताणमुदयावलियं मोसून अंतरं करेदि अंतरहि उनको रिजमाणपदेसम्म विदिद्विदिहि विधाभावाद सम्मान सम्मत पढमदिहि णिनिबदि । सम्मत्तपदे सग्गमप्पणी पढमट्ठिदिम्हि चेव संहृदि । मिच्छत्तसम्मामिच्छत सम्माणं विदियट्ठिदिपदेशक सम्मत पढमदीए देदि, अणुक्कीरिज्जमाणासु हिंदी च देदि । सम्मत्तपढमट्ठिदिसमाणासु द्विदो द्विद-मिच्छत्त सम्मामिच्छत्तपदेस सम्मपदि संकामेदि जाव अंतरदुरिमफाली पददि ताब इमो कमो होदि पुणो चरिमफालीए पदमाना मिच्यत सम्मामिच्छत्ताण मंतरर्राट्ठदिपदेसग्गं सर्व्व सम्मत्तपढर्माट्ठदीए संग्रहदि एवं सम्मत अंतरदिपदे पि अप्पो पदमट्टिदीए चेव देदि नियिदिपदेसग्गं पिसाब पढमट्ठिदिमेदि जाय आवलिय-पडिआवलियाओ पढमट्टिदीए सेसाओ त्ति। इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है। वह इस प्रकार है-सम्यक्प्रकृतिको अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है। तथा मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंको उदयावलीको छोड़कर अन्तर करता है। इस अन्तरकरण में उत्कीरण किये जानेवाले प्रदेशाको द्वितीय स्थितिमें नहीं स्थापित करता है, किन्तु बन्धका अभाव होनेसे सबको लाकर सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथमस्थितिमें स्थापति करता है। सम्यक्त्वप्रकृति के प्रदेशापको अपनी प्रथम स्थितिमें ही स्थापित करता है । नियाल, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यप्रकृतिके द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रथम स्थिति देता है और अनुकीर्यमाण (द्वितीय स्थितिकी) विवियाने भी देता है। सम्यक्प्रकृतिको प्रथम स्थिति के अमान स्थितियोंमें स्थित मिध्यात्व और सम्यग् मिध्यात प्रकृतियों के प्रदेशको सम्पतिकी प्रथम स्थितियोंमें क मन कराता है। जबतक अन्तरकरणकालकी द्विचरम काही प्राप्त होती है तबतक यही कम रहता है। पुनः अन्तिम कासके प्राप्त होनेपर मिध्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों के सम अतरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाप्रको, सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें स्थापित करता है। इस प्रकार सम्यक्त्वप्रकृति के अन्तरस्थिति सम्बन्धी प्रदेशको भी अपनी प्रथम स्थिति में ही देता है। द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशा भी तबतक प्रथमस्थितिको प्राप्त होता है चमतक कि प्रथम स्थितिमें आमली और प्रत्यायती रहती है। M www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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