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________________ उदय २७८ ६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएं उदय रानटया मार्गणा गुण व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदय पुन उदय पुन , कुल स्थान योग्य उदय उदय च्छित्ति मिध्यात्व सम्य, मिश्र | अनन्तानुबन्धी चतु. ३ मिश्र मोह -१ मन आनु -१ मिश्र मोह-१ / ७१ ४ अप्रत्या, चतु., मनुष्यापूर्वी सभ्य , आन =२/ ७० ४. देव गति-(गो.क./जो प्र./३०४-३०५/४३२-४३४) देव सामान्य - | उदय योग्य.-भोगभूगिया मन व्यकी ७८-मनुष्य त्रिक व औदा द्वि. ३ बज्र वृषभ नाराच संहनन + देवत्रिक व वैकि द्विक =७७ मिथ्यात्व -१ मिश्र, सम्य -२ ७७ । २ अनन्तानुबन्धी चतु. मिश्र मोह -१ । देवानु पूर्वी १ मिश्र मोह -१, ७० अप्रत्या, चतु.. देवत्रिक, वै कि द्वि.-६ सम्य., आनु =२ भवनत्रिक देव १-४ । उदय योग्य'-देव सामान्यवन -७७ सौधर्म-ऐशान सनत्कु. नवग्रैवे स्त्रीवेद रहित देव सामान्यवत् ७६ यक तकके देव नव अनुदिश | उदय योग्य 'देव सामान्यकी ७७-मिथ्यात्व, अनन्त चतु..मिश्र मोह, खी वेद ०७० से सर्वार्थअप्रत्या, चतु., देवत्रिक, वैक्रिक. द्वि.-। । ७० । सिद्धिके देव भवन त्रिकसे उदय योग्य -पुरुष वेद बिना देव सामान्यकी ७७-१-७६ सौधर्म मिथ्यात्व १ मिश्र, सम्य-२ ईशानको अनन्तानुबन्धी चतु., देवगत्यानुपूर्वी देवियाँ | ३ मिश्र मोह (मिश्र मोह-१ अप्रत्या, चतु.. देवगति व आयु वैकि द्वि. | सम्य.-१ । २. इन्द्रिय मार्गणा-गो.क./जी.प्र./३०६-३०८/४३६-४३७ विकलेन्द्रिय | - | उदय योग्य -स्त्री व पुरुष वेद, सुस्वर, दुस्वर, प्रशरत व अप्रशस्त विहा., आदेय, छहों संहनन, हुंडक बिना ५ सस्थान सुभग, सम्य,, मिश्र, औ. अगोपांग, त्रस, २-५ इन्द्रिय, देवत्रिक, नरक त्रिक, मनु, त्रिक, उच्चगोत्र, तीर्थङ्कर, आहा. द्विक, वैकि विक, इन ४२ के बिना सर्व १२२-४२-८० मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, परघात, उद्योत, उच्छवास अनन्तानुबन्धी चतु., एकेन्द्रिय, स्थावर | - उदय योग्य '--स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, एकेन्द्रिय, आतप इन पांच रहित एकेन्द्रियको ८० अर्थात कुल ७५+स, अप्रशस्त बिहा , दु स्वर, औ. अंगोपांग. स्व स्व १ जाति, सृपाटिका संहनन यह६-८१ मिथ्यात्व अपर्याप्त, स्त्यान-त्रिक | ८१ । १० परघात उच्छवास, उद्योत, अप्रशस्तविहा., दुस्वर अनन्तान बन्धी चतु, स्व स्व योग्य १जाति } ७१ | उदय योग्य -साधारण, १-४ इन्द्रिय, आतप, स्थावर, सूक्ष्म इन ८ रहित सर्व १२२-८-१९४ मिथ्यात्व, अपर्याप्त -२ तीर्थ, आ, द्वि. सम्य. मिश्र । २ । अनन्तानुबन्धी चतु. -४/'नरकानु -१ १०७ मूलोषवद → ८ पंचेन्द्रिय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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