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________________ आहार (साधुचर्या) २८८ साधुके योग्य आहार शुद्धि ५ यथा लब्ध व रस निरपेक्ष लेते है प्रसा/मू २२६. जधा लद्ध। ण रसावेवरवं ण मधुमंस ॥२२६॥ वह शुद्ध आहार प्रथालब्ध तथा रससे निरपेक्ष तथा मधु मासादि अभक्ष्योंसे रहित किया जाता है। लि./पा /मू. १२ कंदप्प (प्पा) इय वट्टइ करमाणो भोयणेस रमगिद्धि । माई लिगविवाई तिरिक्रवजोणी ण सो समणो ॥१२॥ --जो लिग धार कर भी भोजनमें रसकी गृद्धि करता है, सो क्न्दादि विषै वर्त है। उसको काम सेवनकी इच्छा तथा प्रमाद निद्रादि प्रचुर रूपसे बढते है तम वह लिग व्यापादी अर्थात व्यभिचारी कहलाता है। मायापारी होता है. इसलिए वह तिरीश्च योनि है मनुष्य नाहीं। इसलिए वह श्रमण नहीं। र.सा. ११३ भुजेइ जहालाह लहेइ जइ णाणसजमणिमित्त । झाणज्झ यणणि मित्त अणियारो मोक्खमग्गरओ।११३६ - जो मुनि केवल सयम ज्ञानकी वृद्धि के लिए तथा ध्यान अध्ययन करनेके लिए जो मिल गया भक्ति पूर्वक, जिसने जो शुद्ध आहार दे दिया उसीको ग्रहण कर लेते हैं । वे मुनि अवश्य ही मोक्ष मार्ग में लीन रहते है। मू.आ ४८१,८१४,१२८० साउ अट्ठ ण.... भुजेज्जो ॥४८१॥ सीदलम सीदलं वा सुक्क लुक्ख सुणिद्ध सुद्धं वा । लोणिदमलादि वा भूति मुणी अणासादं ८१४॥ पयर्ण व पायण वा अणुमणचित्तो ण तस्थ बोहेदि । जेमतोविसघादी णवि समणो दिद्विसपण्णो ॥२८॥ -साधु स्वादके लिए भोजन नहीं करते है ॥४८१॥ शीतल गरम अथवा सूखा, रूखा चिकना विकार रहित लोन सहित अथवा लोन रहित ऐसे भोजनको वे मुनि स्वाद रहित जीमते है ॥८१४॥ पाच करने में अथवा पाक कराने में पाँच उपकरणोसे अध कर्म में प्रवृत्त हुआ और अनुमोदना प्रसन्न जो मुनि उस पचनादिमे नही डरता वह मुनि भोजन करता हुआ भी आत्मघाती है। न तो मुनि है और न सम्यग्दृष्टि है। प्र.प./मू १९१/२,४ प्रक्षेपक गाथा "काऊण' णग्गरूव बीभत्स दड्ढमडयसारिच्छ । अहिलससि कि ण लज्जसि भक्खाए भोयणं मिट्ठ ॥११११२॥ जे सरसिं सतुट्ठ-मण विरसि क्साउ वह ति। ते मुणि भोयणधार गणि णवि परमत्थु मुणं ति ॥१११*४४ भयानक देहके मैलसे युक्त जले हुए मुरदे के समान रूप रहित ऐसे वस्त्र रहित नग्न रूपको धारण करके हे साधु, तू परके घर भिक्षाको भ्रमता हुआ उस भिक्षामें स्वाद युक्त आहारकी इच्छा करता है, तो तू क्यो नहीं शरमाता । यह बड़ा आश्चर्य है ।१११*२॥ जो योगी स्वादिष्ट आहारसे हर्षित होते है और नीरस आहारमें क्रोधादि कषाय करते हैं वे मुनि भोजनके विषय में गृद्ध पक्षीके समान है, ऐसा तू समझ। वे परम तत्त्वको नहीं समझते है ॥११(*४॥ आचारसार ४/६४ रोगोका कारण होनेसे लाडू, पेडा, चावल के बने पदार्थ वा चिकने द्रव्यका त्याग द्रव्य शुद्धि है। अन घ. ७/१० इष्टमृष्टोत्कटरसैराहारैरुद्भरीकृताः। यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयति बहिर्मन ॥१॥ -इन इन्द्रियरूपी सुभटोंको यदि अभीष्ट तथा स्वादु और उत्कट रससे परिपूर्ण-ताजी बने हुए भोजनोंके द्वारा उद्भट-दुईम बना दिया जाये तो ये अपनी इच्छानुसारजो-जो इन्हे इष्ट हों उन सभी बाह्य पदार्थों में मनको भ्रमाने लगते हैं। अर्थात् इष्ट सरस और स्वादु भोजनके निमित्तसे इन्द्रियों स्वाधीन नहीं रह सकती। ६ पौष्टिक भोजन नही लेते है त. सू.७/७,३५ वृष्येष्टरसस्व शरीरसस्कारत्यागा' पञ्च ॥७॥ सचित्तसम्मन्धसम्मिश्राभिषवदुष्पक्याहारा ॥१५॥ द्रवो वृष्योबाभिषव(स सि)-गरिष्ठ और इष्ट रसका त्याग तथा अपने शरीर के सस्कारका त्याग ये ब्रह्मचर्यको रक्षा करनेके लिए ब्रह्मचर्य बतकी पाँच भावनाएँ है ॥७॥ सचित्ताहार, सम्बन्धाहार, सम्मिश्राहार अर्थात सचित्त या सचित्तसे सम्बन्धको प्राप्त अथवा सचित्तसे मिला हुआ आहार, अभिषवाहार और ठीक न पका हुआ आहार, इनका ग्रहण उपभोग परिभोग परिमाण धतके अतिचार है ॥णा यहाँ द्रव, वृष्य और अभिषव इनका एक अर्थ है अर्थात पौष्टिक आहार इसका अर्थ है । (स.सि.७/३५/३७१/६) अन.ध. ४/१०२ को न वाजीकृतां दृप्त कन्तु कन्दर येथात'। ऊर्ध्वमूलमध शाखमृषय, पुरुष बिदु ॥१०२॥ - मनुष्योको धोडेके समान बना देनेवाले दुग्ध प्रभृति वीर्य प्रवर्धक पदार्थोंको वाजीकरण कहते हैं । इसमें ऐसा कौन सा पदार्थ है जो कि उप्त - उत्तेजित होकर कामदेवको उद्धृत नहीं कर देता अर्थात् सभी सगर्व पदार्थ ऐसे ही हैं। क्योंकि ऋषियोने पुरुषका स्वरूप ऊर्ब मूल और अध शाख माना है। जिह्वा और कण्ठ प्रभृति अवयव मनुष्यके मूल है और हस्तादि अवयव शाखाएँ है। जिस प्रकार वृक्षके मूल में सिञ्चन क्येि गये सिञ्चनका प्रभाव उसकी शाखाओपर पड़ता है उसी प्रकार जिह्वादिक के द्वारा उपयुक्त आहारादिकका प्रभाव हस्तादिक अगोंपर पड़ता है। क्रि को ८२ अतिदुर्जर आहार जे वस्तु गरिष्ट सु होय । नही जोग जिनवर कहे तज धन्न है सोय ॥१८२॥-जो अत्यन्त गरिष्ठ आहार है उसको प्रहण करना योग्य नहीं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है। जो नर उसका त्याग करते है वे धन्य है। ७ गृद्धता या स्वच्छन्दता सहित नही लेते भ आ /मू. २६०, २६२ एसा गणधरमेरा आयारस्थाण वण्णियामुत्ते। लोगमुहाणुरदाणं अप्पच्छदो जहिच्छाए ॥२६०॥ पिडं उवधि सेज्जाम विसोधिय जो खु भजमाणो हु। मूलठाणं पत्तो बालो त्ति य जो समणबालो ।२६२॥ = यह अच्छा संयत मुनि है, ऐसा मेरा जगतमें यश फेले अथवा अपने मतका प्रकाशन करनेसे मेरेको लाभ होगा ऐसे भाव मनमें धारण करके केवल चारित्र रक्षणार्थ ही निर्दोष आहारादिकको जो ग्रहण करता है वही सच्चारित्र मुनि समझना चाहिये ।२६०। उद्गमादि दोषोसे युक्त आहार, उपकरण, बसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है जिसको प्राणि सयम व इन्द्रिय सयम है ही नही वह साधु मूल स्थान प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है, वह अज्ञानी है, वह केवल नग्न है, वह यति भी नहीं है, और न गणधर म् आं/३१ जो जट्ठा जहा लद्ध' गेण्हदि आहारमुवधियादीय । समणगुणमुक्कजोगी ससारपवह दओ होदि ।३१। -जो साधु जिस शुद्ध अशुद्ध देशमें जैसा शुद्ध अशुद्ध मिला आहार व उपकरण ग्रहण करता है वह श्रमण गुणसे रहित योगी संसारका बढानेवाला ही होता है। सू. पा /म.६ उक्किट्ठसीहचरिय बहूपरियम्मो य गरूयभारो य । जो विहरइ सच्छंद पाव गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ।। लि पा /मू १३ धाव दि पिंडणि मित्तं क्लह काऊण भंजदे पिड । अबरुपरूई संतो जिणमग्गि ण होई सो समणो ।१३। - जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिहबत निर्भय हुआ आचरण करता है और बहुत परिकर्म कहिए तपश्चरणादि क्रिया कर युक्त है, तथा गुरुके भारवाला है अर्थात् बड़े पदवाला है, संघ नायक कहलाता है, और जिन सूत्रसे च्युत हुआ स्वच्छन्द प्रवर्तता है तो वह पापही को प्राप्त होय है, मिथ्यारव को प्राप्त होय है। जो लिगधारी पिण्ड अर्थात आहारके लिए दौडे है आहारके लिए क्लह करके उसे खाता है तथा उसके निमित्त परस्पर अन्यसे ईर्ष्या करता है वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है ।१३। (और भी दे. साधु ५) ८ दातारपर भार न पडे इस प्रकार लेते है रा, वा ४/५/१५/५६७/२६ दातृजनबाधया बिना कुशलो मुनिभवदाहारमिति भ्रमाहार इत्यपि परिभाष्यते । - दातृ जमोको किसी भी प्रकारकी बाधा पहुंचाये बिना मुनि कुशलसे भ्रमरकी तरह आहार लेते है। अत उनकी भिक्षा वृत्तिको भ्रामरोवृत्ति और आहारको भ्रमराहार कहते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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