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________________ बाहार ( भाँति मुनिको आहार देकर पीछे स्वय करता है । - दे. क्षुल्लक १ तथा सल्लेखना गत साधुको कदाचित् क्षुधाकी वेदना बढ़ जानेपर गृहस्थोके घरसे मंगाकर आहार जिमा दिया जाता है। - दे. सरले खना । उपरोक्त विषय पर सिद्ध होता है कि साधु कदाचित् चौकेसे बाहरका भी आहार ग्रहण कर लेते हैं । जम्बूस्वामी चरित्र १६३ प्रासू शुद्रमाहार कृतकारिबजित भिक्षयानी मित्रेण धर्मण ४१६२४- धर्म नाम के भिक्षासे लाया हुआ, कृत, कारित, दोषों से वर्जित शुद्ध प्राशुक आहार विरक्त शिवकुमार (श्रावक) घर बैठकर कर लेता था । - आदत्त द्वारा ७ पतिवद्ध सात परोसे लाया हुआ आहार ले लेते हैं पर अन्यत्रका नही भवे 1 मू. आ. ४३८-४४० देसत्तिय सव्वत्तियदुविहं पुण अभिहडं चिमणा देतामिह हवे दुहि [NIC बापरेहिं जदि आग दु आणि परदो वा चिणं ॥ ४३८ ॥ सम्बाभिघड चदुधा सयपरगामे सदेस परदेसे | पुत्र पर पाडण्यडं पढम सपि णापव्वं ॥ ४४०॥ =अभिघट दोषके दो भेद हैं - एक देश व सर्व देशाभिघटके दो भेद है - आचिन्न व अनाचिन्न ॥ ४३ ॥ पक्ति बद्ध सोधे तीन अथवा सात घरोंसे लाया भात आदि अन्न आचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य है । और इससे उलटे-सीधे घर न हों ऐसे सात घरोंसे भो लाया अन्न अथवा आठवाँ आदि घर से आया ओदनादि भोजन अनाचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य नहीं है। सर्वाभिघट दोषके चार भेद हैं- स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश. परदेश पूर्व दिशा के मोहल्ले से पश्चिम दिशा के मोहल्ले में भोजन ले जाना स्वग्रामाभिघट दोष है । २ साधु के योग्य आहार शुद्धि Jain Education International वियाणा हि । तिहि सतहिं १ छियालीस दोषों से रहित लेते है मू. आ ४२१.४८२ ४८३, ८९२ उग्गम उप्पादण एसण च सजोजणं पमाणं च गालधूमकारण अट्ठविहारसुद्धो ॥४२११० कोहीपरिशुद्ध असण मादादोसपरिहीण सजोजगारही पमाणसहि विहि दिणं ||४८२ ॥ विगदिगाल विधूम छक्कारणसज़द कमविशुद्ध' तासाचतं भजे ॥४८३ उह सिय कोदय अण्णादं सदिं अभि च सुतपाणि पडिसिद्ध तं विवज्जेंति ।। ८१२ ॥ उद्गम उत्पादन, अशन, सयोजन, प्रमाण, अगार, धूम कारण- इन आठ दोषो कर रहित जो भोजन लेना वह आठ प्रकारको पिण्डशुद्धि कही है ।। ४२१| ऐसे आहारको ऐना चाहिए- जो नवकोटि अर्थात् मन, वचन, काय, कृत, कारित अनुमोदनासे शुद्ध हो, व्यालीस दोषों कर रहित हो, मात्रा प्रमाण हो, संयोजना दोषसे रहित हो, विधि से अर्थात नवधा भक्ति दाताके सात गुजसहित क्रिया दिया गया हो अंगार दोष धूमदोष इन दोनों रहित हो. छह कारणोसे सहित हो, क्रम विशुद्ध हो, प्राणोके धारण के लिए हो, अथवा मोक्ष यात्रा के साधनेके लिए हो, चौदह मलोंसे रहित हो, ऐसा भोजन साधु ग्रहण करें ।।४८२ ४८३॥ (मू. आ ८११) औद्द - शिक क्रोततर अज्ञात शक्ति, अग्यस्थानसे आया सूत्रसे विरुद्ध और सूत्रसेन ऐसे आहारको मुनि ध्यान देते है। भा.पा./मू १०१ छायीसदोस दुसियमसण गसिउ असुद्धभावेण । पत्तोसि महाबसणं तिरियगईए अणप्पवसो ॥१०१॥ हे मुने । तें अशुद्ध भावकरि छियालीस दोष करि दूषित अशुद्ध अशन कहिए आहार ग्रस्पा खाया ताकारण करि तिर्यञ्च गति विषै पराधीन भया सता महात् बडा व्यसन कहिए कष्ट तार्क प्राप्त भया ॥ १०१ ॥ मा.पा/प्र ६/२००/ बहुरि जहाँ मुनिकेात्रीत आदि स दोष आहारादिविषै है है तहाँ गृहस्थनिकै बालकनिको प्रसन्न करना इत्यादि क्रियाका निषेध किया है। और भी-दे आहारI / २ | २८७ २ अध कर्मादि दोषोंसे रहित लेते है हि सू. आ. १२२-१२४ जो ठानमोगवीरासनेहि अदि भुंदि आधाकम्मं सव्वेवि णिरत्था जोगा ॥१२२॥ जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाण घायण किया। अबुद्धो लोल सजिन्भो णवि समणो सावओ होज ॥१२॥ आधाकम्म परिणदो पासुगदव्वेदि मधगोभणिदो । सुद्ध गवेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो ॥१३४॥ जो साधुस्थान मौन और वीरासनसे उपवास वेला तेला आदि कर तिष्ठता है और अधर्म सहित भोजन करता है उसके सभी योग निरर्थक है | २२| जो मूढ मुनि छह कायके जीवोंका घात करके अधः कर्म होता है वह लोलुपीजा हुआ मुनि नहीं है श्रावक है | ६२७ प्राक द्रव्य होनेपर भी जो साधु अध कर्म कर परिणत है वह आगम में बन्धका क्र्ता है, और जो शुद्ध भोजन देखकर ग्रहण करता है वह अध कर्म दोष के परिणाम शुद्धिसे शुद्ध है | ६३४ | मोपा / मू. ७६ । आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गमि । -अथ कर्म कर्म तानिये रस है, सोष आहार करें है ते मोक्ष मार्ग तैं च्युत है । रा. वा. ६/६/१६/५६७/१६ भिक्षा शुद्धि प्रासुकाहारगवेषणप्रणिधाना । प्राक आहार बना ही मुख्य लक्ष्य है ऐसी भिक्षा-शुद्धि है। भ.आ./वि ४२२/१९/६ भ्रमणादिश्य कृतं भक्तादिकं गिभिरयुच्यते । तच्च षोडशविधं आधा कर्मादि विकल्पेन । तत्परिहारो द्वितीय स्थितिकल्प - मुनिके उद्देश्य से किया हुआ आहार, वसतिका वगैरहको उद्द े शिक कहते हैं। उसके आधाकर्मादि विकल्पसे सोलह प्रकार हैं । उसका त्याग करना यही द्वितीय स्थिति कल्प है। स.सा./अ. १८६२८० अथ कर्म निष्प्रमुश निष्पम् गतव्यं निमियाचक्षाणो ने मिति बंधसाधकं भान प्रत्या चष्टे तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भाव न प्रत्याचष्टे । - अधः कर्म से तथा उद्देशसे उत्पन्न निमित्त भूत पुद्गल द्रव्य न त्यागता हुआ नैमित्तिक भूत बन्ध साधक भावों को भी वास्तवमें नहीं त्यागता है, ऐसा ही द्रव्य व भावका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । प्रसा / स. प्र. २२६ समस्त हिसायतन शून्य एवाहारो युक्ताहार । - समस्त हिंसा के निमित्तों से रहित आहार ही योग्य है । सा.६८/१पण विद्यापरितापनारम्भ किया मिस्वेन कृतं परेण कारितं वानुमानितं बाध कर्म (जनित) तरसेविनोऽनशनादितपस्यावकाशादियोगविशेषाश्च भिन्नभाजनभरितामृतरक्षन्ति ततश्च तदभक्ष्यमित्र परिहरतो भिक्षोः । उपद्रवण, चिद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप क्रियाओंके द्वारा जो आहार तैयार किया गया है - वह चाहे अपने हाथसे किया है अथवा दूसरेसे कराया है अथवा करते हुएकी अनुमोदना की है अथवा जो नीच कर्मसे बनाया गया है ऐसे अच कर्मयुक्त आहारको ग्रहण करनेवाले मुनियोंके उपवासादि तपश्चरण, अभ्रावकाशादि योग और वीरासनादि विशेष योग न फूटे मनमें भरे हुए अमृत के समान नष्ट हो जाते हैं। ३ अधः कर्मादि दोषोंका नियम केवल प्रथम व अन्तिम तीर्थमे ही है भ य/वि ४२१/६२३ / १ तथा चोतं कश्येसोसविध सं यज्जेदव्वति पुरिमचरिमाण । तित्थगराण तिथे ठिदिक्प्पो होदि विदिओ हु । कल्प नामक ग्रन्थ (कल्प सूत्र ) में ऐसा वर्णन है - श्री आदिनाथ तीर्थकर और श्री महावीर स्वामी इनके सीर्थ में सोसह प्रकार के उद्दे शका परिहार करके आहारादिक ग्रहण करना चाहिए, यह दूसरा स्थिति क्ल्प है। ४ योग्य मात्रा व प्रमाणमे मू आ. ४८२.... पमाण सहियं आहार साधु ग्रहण करते है । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश साधुके योग्य आहार शुद्धि For Private & Personal Use Only .. लेते हैं। ॥४८२१ - जोमात्रा प्रमाण हो ऐसा www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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