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________________ आबाधा २५० आमुन्डा २. द्वितीयकाण्डक-६०.५६,५८,५७ समय स्थितिको उ आबाधा -१५ समय ३. तृतीयकाण्डक-५६,५५,५४, ५३ समय स्थितिकी उ. आबाधा -१४ समय १. चतुर्थ काण्डक -५२,५१,५०,४६ समय स्थितिको उ. आबाधा -१३ समय ५ पचमकाण्डक-४८,४७,४६,४५ समय स्थितिको उ आबाधा =१२ समय यह उपरोक्त पाँच तो आवाधाके भेद हुए। स्थिति भेद-आबाधा काण्डक xहानि ४ समय-२० विचार स्थान अत' स्थिति भेद २०-१-१६ इन्ही विचार स्थानोको उत्कृष्ट स्थिति में से घटानेपर जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्थितिकी कम हानि भी इतने ही स्थानोंमें होती है। ६. क्षपक श्रेणी में आबाधा सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त होती है क.पा.३/३,२२/६३८०/२१०/३ सत्तरिसागरोवमकोडाकोडौण जदि सत्तावाससहरसमेताबाहा लम्भदि तो अहं बस्साणं किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुफिदफले ओवट्टिदे जेण एगसमयस्स असखेज दिभागो आगच्छदि तेण अण्णं वस्साणमाबाहा अंतोमुत्तमेत्तात्तिण घडदे। ण एस दोसो, संसारावत्थ मोत्तूण खवगसेढीए एवं विहणियमाभावादो। प्रश्न-सत्तरि कोडाकाडी सागरप्रमाण स्थिति की यदि सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधा पायी जाती है तो आठ वर्ष प्रमाण स्थिति की कितनी आबाधा प्राप्त होगी, इस प्रकार त्रैराशिक विधिके अनुसार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके प्रमाण राशिका भाग देनेपर चूंकि एक समयका असख्यातवाँ भाग आता है, इसलिए आठ वर्षको आआधा अन्तर्मुहुर्त प्रमाण होतो है, यह कथन नहीं बनता है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि ससार अवस्थाको छोड कर क्षपक श्रेणी में इस प्रकारका नियम नही पाया जाता है। ७. उदीरणाकी आबाधा आवली मात्र ही होती है गो.क./मू ६१८/१९०३ आवलियं आचाहा उदीरणमासिज्जसत्तकम्माण। ...॥१८॥ - उदीरणाका आश्रय करि आयु बिना सात कमकी आबाधा आवली मात्र है बधे पीछे उदीरणा होई तो आवली काल भए ही हो जाइ। ८. भुज्यमान आयुका शेष भाग ही बद्धधमान आयुकी आबाधा है ध.4/१६-६२२/१६६/६ एवमाउस्स आबाधा णिसेयहिदी अण्णोण्णाय तादो ण हों ति त्ति जाणावण?' णिसेयहिदी चैत्र परू विदा । पुब्बकोडितिभागमादि कादूण जाव असंखपाद्धा त्ति एदेसु आबाधावियप्पेसु देव णिरयाण आ उअस्स उक्कस्स णिसेयहिदी सभव दि ति उत्त होदि। -उस प्रकार आयुकर्म की आबाधा और निषेक स्थिति परस्पर एक दूसरेके अधीन नहीं है (जिस प्रकार कि अन्य कर्मों की होती है)।.. इसका यह अर्थ होता है कि पूर्व कोटी वर्षके त्रिभाग अर्थात तीसरे भागको आदि करके असंक्षेपाद्धा अर्थात जिससे छोटा (संक्षिप्त) कोई काल न हो, ऐसे आवलोके असंख्यातवें भागमात्रकाल तक जितने आमाधा कालके विकल्प होते है, उनमें देव और नारकियोंके आयुकी उत्कृष्ट निषेक स्थिति सम्भव है। (अर्थात देव और नरकायुकी आबाधा मनुष्य व तिर्यञ्चोंके मद्ध्यमान भव में हो पूरी हो जाती है।) तथा इसी प्रकार अन्य सर्व आयु कमोकी आमाधाके सम्बन्ध में भी यथायोग्य जानना। गो.क. भाषा १६०/१६५/१२ आयु कर्मको आमाधा तो पहला भवमें होय गई पीछे जो पर्याय घस्या तहाँ आयु कर्म की स्थिति के जेते निषेक है तिन सर्व समयनि विर्षे प्रथम समयस्यो लगाय अन्त समय पर्यन्त समय-समय प्रति परमाणू क्रमते खिरै है। ६. आयुकर्मकी आबाधा सम्बन्धी शंका समाधान घ. ६/१,६-६,२६/६/१६६/१० पुबकोडितिभागादो आबाधा अहिया किष्ण होदि । उच्चदे-ण ताव देव-णेरइएसु बहुसागरोवमाउटिदिएसु पुषको डितिभागादो अधिया आबाधा अस्थि, तेसि छामासावसेसे भुञ्जमाणाउए असंखपाद्धापज्जवसाणे सते परभवियमाउअब धमाणाणं तदसभवा । ण तिरिक्व-मणुस्सु वि तदो अहिया आवाधा अस्थि, तत्थ पुब्धकोडीदा अहियमद्विदीए अभावा। अस रबेजबसाऊ तिरिक्व मणुसा अस्थि त्ति चे ण, तेसि देव-णेरड्याणं व भंजमाणाउए छम्मा सादो अहिए संते परमवियाउअरस बधाभावा। ध ६/१,६-७,३१/१६३/५ पुवकाडितिभागे वि भुज्जमाणाउए सते देवणेरइयदसवाससहस्सआउटिदिबधसभवादो पुठबकोडितिभागो आबाधा त्ति किण्ण परूविदो। ण एव संते जहण्ण डिदिए अभावपसगादो। प्रश्न-आयुकर्मकी आबाधा पूर्वकोटीके त्रिभागसे अधिक क्यों नहीं होती। उत्तर-(मनुष्यो और तियंचाँमें बन्ध होने योग्य आयु तो उपरोक्त शका उठती ही नही और न ही अनेक सागरोपमकी आयु में स्थितिबाले देव और नारकियोमें पूर्व कोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होती है, क्योकि उनकी भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहनेपर (तथा कमसे कम) असक्षेपाता कालके अवशेष रहने पर आगामीभव सम्बन्धी आयुको बाँधनेवाले उन देव और नारकियो के पूर्व कोटिको त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना असम्भवहै। न तिर्यञ्च और मनुष्यों में भी इससे अधिक आबाधा सम्भव है, क्योकि उनमे पूर्व कोटिसे अधिक भवस्थितिका अभाव है। प्रश्न--(भोग भूमियो में) असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यच और मनुष्य होते है, (फिर उनके पूर्व कोटि के त्रिभाग से अधिक आबाधाका होना सम्भव क्यो नही है।) उत्तर-नही,क्योकि, उनके देव और नारकिया के समान भुज्यमान आयुके छह माससे अधिक होनेपर भवसम्बन्धी आयुके बन्धका अभाव है, (अतएवपूर्व कोटीके त्रिभागसे अधिक आबाधाका होना सम्भव नहीं है ।) (क्रमशः) प्रश्न -भुज्यमान आयु में पूर्वकोटि का त्रिभाग अवशिष्ट रहने पर भी देव और नारक सम्बन्धी दश हजार वर्षकी जघन्य आयु स्थिति का बन्ध सम्भव है, फिर 'पूर्व कोटिका त्रिभाग आवाधा' है ऐसा सूत्रमें क्यों नही प्ररूपण किया ! उत्तर-नहीं, क्योकि, ऐसा मानने पर जघन्यस्थितिके अभावका प्रसग आता है अर्थात पूर्व कोटिका त्रिभाग मात्र आबाधा काल जघन्य आयु स्थितिमन्ध के साथ सम्भव तो है, पर जघन्य कम स्थितिका प्रमाणलाने के लिए तो जधन्य आबाधाकाल ही ग्रहण करना चाहिये, उत्कृष्ट नहीं। १०. नोकर्मीकी आबाधा सम्बन्धी ध.१४/५.६,२४६/३३२/११ णोक्म्म स्स आबाधाभावेण. किममेस्थ णथि आचापा । साभाबियादो।-नोकर्मकी आबाधा नहीं होनेके कारण...। प्रश्न- यहाँ आन धा किस कारणसे नहीं है। उत्तरक्योंकि ऐसा स्वभाष है। * मूलोत्तर प्रकृतियोकी जधन्य उत्कृष्ट आबाधा व उनका स्वामित्व ~दे स्थिति ६। आमंत्रिणी भाषा-दे. भाषा। आमर्पोषघ ऋद्धि-दे. ऋद्धि ७ । आमंडा-१ ख १६/५५५ सू. ३१/२४३ आवायो वरसायो बुद्धि विष्णाणी आउ डी पञ्चाउ डी ॥३६॥- आमुंड्यते सकोच्यते वितकिंतोऽर्थ. अनयेति आमंडा । = अवाय व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा, प्रत्यामुंडा ये पर्याय नाम है ॥३६॥ जिसके द्वारा वितर्कित अर्थ 'आमुंड्यते' अर्थात सकोचित किया जाता है वह आमुंडा है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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