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________________ असूनृत २११ अस्तिकाय असूनृत-दे असत्य । अस्तिकाय जैनागममें पंचास्तिकाय बहुत प्रसिद्ध है। जोब, पुदगल, धर्म अधर्म, आकाश और काल, ये छ द्रव्य स्वीकार किये गये हैं। इनमें काल द्रव्य तो परमाणु मात्र प्रमाणवाला होनेसे कायवान् नहीं है। शेष पाँच दव्य अधिक प्रमाणवाले होनेके कारण कायवान है । वे पाँच ही अस्तिकाय कहे जाते है। १. अस्तिकायका लक्षण पं का./मू. ५ जेसिं अत्थि सहाओ गुणेहिं सह पजएहि विविहे हिं । ते होति अस्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुक्कं ॥५॥ ते चेत्र अस्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छति दवियभाव परियट्टण लिंगसंजुत्ता ॥६॥-जिन्हे विविध गुणों और पर्यायो के साथ अपनत्व है, वे अस्तित्व काय है, कि जिनसे तीन लोक निष्पन्न है ॥५॥ जो तीनो कालके भावोरूप परिणमित होते है तथा नित्य है ऐसे वे ही अस्तिकाय परिवर्तन लिंग सहित द्रव्यत्वको प्राप्त होते है ॥६॥ नि.सा./मू. ३४ एदे छद्दव्याणि य कालं मोत्तूण अस्थि कायत्ति । णि विडा जिणसमये काया हु बहुपदेसत्तं ॥३४॥ काल छोडकर इन छह द्रव्योको जिन समय में 'अस्ति काय' कहा गया है। क्योकि उनमें जो बहूप्रदेशीपना है वही कायस्व है । (द्र सं./मू २३) पंका/त. प्रतम कालाणुभ्योऽन्यसर्वेषा कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयम् । कालाणुओं के अतिरिक्त अन्य सर्व द्रव्योमें कायस्वनामा सावयत्रपना निश्चित करना चाहिए। नि सा/ता.वृ. ३४ बहुप्रदेशप्रचयत्वात् काय' । काया इव काया'। पञ्चास्तिकाया' । अस्तित्वं नाम सत्ता । अस्तित्वेन सनाथा पञ्चास्तिकाया । = बहुप्रदेशोके समूह वाला हो वह काय है । 'काय' काय (शरीर) जैसे होते है। अस्तित्व सत्ताको कहते है। अस्तिकाय पाँच है । अस्तित्व और कायत्व सहित पाँच अस्तिकाय हैं। २ पंचास्तिकायोंके नाम निर्देश प.का /मू ४.१०२ जोवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा तहेब आगासं । अस्थित्तम्हि य णियदा अणण्णमइया अणुमहता ॥४॥ एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा । लभंति दव्वसणं कालस्स दुणस्थि कायत्त ॥१०२॥ - जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म तथा आकाश अस्तित्वमें नियत, अनन्यमय और बहुप्रदेशो है ॥४॥ ये काल, आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव द्रव्य संज्ञाको प्राप्त करते हैं परन्तु कालको कायपना नहीं है ।१०२॥ (पं.का./भू २२) (नि सा./ मू. २२), (नि सा /मू ३४). (प्रसा/ता वृ १३५ में प्रक्षेपक गाथा १), (द्र सं./म् २३). (गो.जी /मू ६२०/१०७४), (नि.सा,/ता वृ. ३४), (पं.का./ता. २२/४७/१६)। ३. पांचोंकी अस्तिकाय संज्ञाकी अन्वर्थकता इ.स /मू २५ होति असंखा जीवे धम्माधम्म अर्णतआयासे । मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सैगो ण तेण सो काओ ॥२४॥-जीव धर्म तथा अधर्म द्रव्य असरण्यात प्रदेशी है और आकाशमें अनन्त प्रदेश है। पुद्गल में सख्यात असंख्यात व अनन्त प्रदेश हैं और कालके एक ही प्रदेश है. इसलिए काल काय नहीं है। (प.प्र./मू २/२४); (गो.जी./ मू६२०/१०७४)। पं का /ता वृ. ४/१२/१५ जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानीति पश्चास्तिका यानां विशेषसंज्ञा अन्वर्था ज्ञातव्या । अस्तित्वे सामान्य विशेषसत्तायां नियता स्थिता । 'अणुभि प्रदेशमहान्त द्वषणुकस्कन्धापेक्षया द्वाभ्यामणुभ्यो महान्तोऽणुमहान्त' इति कायत्वमुक्तं ...इति पञ्चास्तिकायानां विशेषसंज्ञा अस्तित्वं कायत्वं चोक्तम् ।-जीव पुदगल धर्म अधर्म और आकाश इन पंचास्तिकायोंकी विशेष संज्ञा अन्वर्थक जाननी चाहिए। सामान्य विशेष सत्तामें नियत या स्थित होने के कारण तो ये अस्तित्व में स्थित है। अणु या प्रदेशोंसे महान है अर्थात् द्वि अणुक स्कन्धकी अपेक्षा दो अणुओसे बडे हैं इसलिए अणु महान है । इस प्रकार इनका कायत्व कहा गया। इस प्रकार इन पंचास्तिकायोको अस्तित्व व कायस्व संज्ञा प्राप्त है। (और भी दे, काय १/१) ४ पुद्गलको अस्तिकाय कहनेका कारण स सि ५/३६/३१२/१० अणोरप्येक प्रदेशस्य पूर्वोत्तरभावप्रज्ञापननयापेक्षयोपचारकलपनया प्रदेशप्रचय उक्त । एक प्रदेशवाले अणुका भी पूर्वोत्तरभाव-प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपचार कल्पनासे प्रदेश प्रचय कहा है । (पं का /तप्र.४/१३) प्र.सा/त प्र १३७ पुद्गलस्य तु द्रव्येणै कप्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वे यथोदिते सत्यपि द्विपदेशाद्य द्भवहेतुभूततथाविधस्निग्धरूक्षगुणपरिणामशक्तिस्वभावात्प्रदेशोद्भवत्वमस्ति । ततः पर्यायेणानेकप्रदेशत्वस्यापि सभवाव द्वयादिसंख्येयास ख्येयानन्तप्रदेशत्वमपि भ्याय्य पुहगलस्य ॥१३७॥ - पुद्गल तो द्रव्यत' एकप्रदेशमात्र होनेसे यथोक्त प्रकारसे अपदे शी है. तथापि दो प्रदेशादिके उद्भवके हेतुभ्रत तथाविध स्निग्धरूप-गुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभावके कारण उसके प्रदेशों का उद्भव है। इसलिए पर्यायतः अनेकप्रदेशित्व भी सम्भव होनेसे पुद्गल को द्विपदे शिस्वसे लेकर सख्यात असख्यात और अनन्त प्रदेशित्व भी न्याय युक्त है। (पं.का / ता.वृ ४/१२/१३) ५ कालद्रव्य अस्ति है पर अस्तिकाय नही पं का./मू १०२ एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा । लब्भति दब्बसण्ण कालस्स दुणस्थि कायत्तं ॥१०२ - काल और आकाशद्रव्य और धर्म व अधर्मद्रव्य तथा पुद्गलद्रव्य व जीवद्रव्य ये छहों 'द्रव्य' नामको पाते है। परन्तु कालद्रव्यमें कायस्व नहीं है। (द्र.सं / मु. २५) स.सि ५/३६/३१२/६ ननु किमर्थमयं काल' पृथगुच्यते। यत्रैव धर्मादय उक्तास्तत्रैवायमपि बक्तव्य' 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशकाल पुद्गलाः' इति । नैवं शडक्यमः तत्रोह शे सति कायत्वमस्य स्यात् । नेष्यते च मुख्योपचार प्रदेशप्रचयकलपनाभावात् । प्रश्न-काल द्रव्यको अलग से क्यों कहा । जहाँ धर्मादि द्रव्योका कथन किया है, वहीं पर इसका कथन करना था, जिससे कि प्रथम मूत्रका रूप ऐसा हो जाता 'अजीव काया धर्माधर्माकाशकाल पृद्धगला ।' उत्तर-इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है, क्योकि वहाँपर यदि इसका कथन करते तो इसे काय पना प्राप्त होता। परन्तु कालद्रव्यको कायवान नहीं कहा है, क्योंकि इसमें मुख्य और उपचार दोनों प्रकारसे प्रदेशप्रचयकी कल्पनाका अभाव है । (रा वा. ५/२२/२४/४८२/४) (प प्र./टी २/२४) (गो.जी/ जी.प्र ६२०) (नि.सा /ता मृ. ३४) (4 का /ता.वृ. १०२/१६३/१०) ध.१/४,१.४५/१६८/४ कोऽनस्तिकायः। काल-तस्य,प्रदेशप्रचयाभागव । कुतस्तस्यास्तित्वम् । प्रचयस्य सप्रतिपक्षत्वान्यथानुपपत्तेः।-प्रश्नअनस्तिकाय कौन है। उत्तर-काल अनस्तिकाय है, क्योंकि, उसके प्रवेशप्रचय नहीं है । प्रश्न-तो फिर कालका अस्तित्व कैसे है। उत्तर-चू कि अस्तित्व के बिना प्रचयके सप्रतिपक्षता बन नहीं सकती अत: उसका अस्तित्व सिद्ध है। द, स./टी २६/७३/७ अथ मतं-यथा पुद्गलपरमाणोद्रव्यरूपेण कस्यापि द्वयणुकादिस्कन्धपर्यायरूपेण बहुप्रदेशरूप कायत्वं जातं तथा-कालागोरपि द्रव्येण कस्यापि पर्यायेण कायत्वं भवतीति। तत्र परिहार'स्निग्धरूक्षहेतुकस्य बन्धस्याभावान्न भवति कायः । तदपि कस्मात् । स्निग्ध रूक्षत्वं पुद्गलस्यैव धर्मो यत. कारणादिति । प.का/ता. वृ. ४/१३/१२ स्निग्धरूयत्वशक्तेरभावादुपचारेणापि कायत्वं नास्ति कालाणूनां । प्रश्न - जैसे द्रव्यरूपसे एक भी पुद्गल परमाणुद्विअणुक आदि स्कन्ध पर्याय द्वारा बहुदेशरूप कायस्व (उपचारसे) सिद्ध हुआ है, ऐसे ही द्रव्यरूपसे एक होनेपर भी कालाणुके समय घडी आदि पर्यायों द्वारा कायत्व सिद्ध होता है 1 उत्तर-इसका परि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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