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________________ असिद्ध हेत्वाभास न्या. नि./२/१६७/२२८/५ स तु अनेकदा चाय-अज्ञात सदिग्ध प्रतिपाद वह असिद्ध हेलाभ. स अनेक प्रकारका है - अज्ञात, सन्दिग्ध स्वरूप, आश्रय, प्रतिज्ञार्थ, एकदेश असिद्ध । ३. स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास मु. ६/२३-२४ अविद्यमानसत्ताक परिणामी शब्दश्चाक्षुषखात् ॥२३॥ स्वरूपेणासत्वात् ॥२२॥ शब्द परिणामी है, क्योकि यह आँखसे देखा जाता है।" यह अविद्यमानसत्ता अर्थात् स्वरूपायाभास है। न्या. दी ३/६४०/८६ (म्यादी, ३/३५० / १००) /२/११०/२२६/११ स्वरूपासिद्धो यथा "सोनियादमेदो नीतद्वियो" इत्यत्र यदि युगपदुपलम्भनियमो हेर्थ सोऽसिद्ध एव दर्शनेऽपि सन्तानान्तरगतस्य तज्ज्ञानस्य कुतश्चित्तप्रतिपत्तावद्विषयविशेषस्य अनवगते । स्वरूपासिद्ध इस प्रकार हैनीस और नीला अभेद है. सहोपसम्भ नियम होनेसे ॥' यहाँ यदि युगको हेतु माना जाये तो यह असिद्ध हो है। विषयदर्शन होनेपर भी सन्तानान्तरगत उस ज्ञानकी कहीं प्राप्ति होनेपर भी उस विषय विशेषकी जानकारी नहीं होती । ४. सदिग्धासिद्ध हेत्वाभास मु ६ / २५-२६ अविद्यमाननिश्चयो मुग्धबुधिं प्रति अग्निरत्र धूमात् |२५|| तस्य वाष्यादिभावेन भूतसघाते सदेहात ॥२६॥ अनुमानके स्वरूपसे सर्वथा अनभिज्ञ किसी मूर्ख मनुष्य के सामने कहना कि 'यहाँ अग्नि है क्योंकि धुआँ है यह अविद्यमान निश्चय अर्थात् संदिग्धसिद्ध है, क्योकि मूर्ख मनुष्य किसी समय पृथिवी जल आदि धूतपात (बटलोई आदि) में भाप आदिको देखकर यहाँ अग्नि है या नहीं ऐसा सन्देह कर बैठता है। (वा दो. २/६६०/१००) वि/२/१६७/२२६/० सदिग्धासिद्धो यह निकुजे मयूर केलावितादिति तत्र हि वा स्वरूप एवं खदेह किमय मयूरस्येव स्वर आहोस्वित् मनुष्यस्येति तदाश्रये वा किमस्माज्ञिकृष्णाव कामितापात आहोस्विदन्यत इति सन्दिग्धासिद्ध ऐसा है जैसे कि इस निकजमे मोर फूकता है ऐसा कहना क्योंकि वहाँ ऐसा सन्देह है कि क्या यह स्वर मोरका है अथरा मनुष्यता है इसी प्रकार आश्रय में भी क्या इस कुंजसे बोलता है अथवा किसी अन्यसे ऐसा सन्देह है। इसलिए इसके सन्दिग्धासिद्धपना है ही। ५. आश्रयासिद्ध हेत्वाभास 1 न्या. वि. / वृ. २/१६७/२२८/३ आभ्यासिद्धा यथा भावमात्रानुषङ्गी विनाशो भावना निर्हेतुकत्वादिति निरन्वयो ह्यत्र भावमध्यसो धर्मी निर्दिष्ट स चासिद्ध एवं अन्यथा किमनेन हेतुना तस्येवान Sपि साधनात! आश्रयासिद्व इस प्रकार हे भावोका विनाश भाव होता है, हेतु रहित होनेसे यहाँ निरम्य भागप्रध्वंसको धर्मी कहा गया है, वह असिद्ध ही है । अन्यथा इस हेतुकी क्या आवश्यकता थी, इसी हेतुसे उसकी भो सिद्धि हो जाती । - ६. अज्ञात हेत्वाभास ज्ञातत्वात् ॥२८॥ - प.मु. ६/२७-२८ सख्यिं प्रति परिणामी शब्द कृतकत्वात् ॥ २७॥ तेना- 'शब्द परिणामी है क्योकि यह किया हुआ है' यहाँ सांख्यके प्रति कृतकत्व हेतु अज्ञात है। क्योकि सांख्य मतमें पदार्थोंका आविर्भाव तिरोभाव माना गया है, उत्पाद और व्यय नहीं। इसलिए वे कृतकताको नहीं जानते । ७. व्याप्यासिद्ध या एकदेशासिय हेत्वाभास रा.मा. १/११/२/२०/२१ केचिदाहुः प्राकारच आवृत अस्फटिकासति अपापकत्वादसिद्धा हेतु वनस्पतिचैतभ्ये स्वापवत् । चक्षु प्राप्यकारी है, क्योंकि, वह ढंके हुए पदार्थ को नहीं देखती, जैसे कि स्पर्श Jain Education International " २१० असूत्र नेन्द्रिय' यह पक्ष ठीक नहीं है, क्योकि चक्षु, काँच, अभ्रक, स्फटिक आदिसे आवृत पदार्थोंको बराबर देखता है, अत' पक्षमें ही अव्यापक होनेसे उक्त हेतु असिद्ध है, जैसे कि वनस्पतिमें चैतन्य सिद्ध करनेके लिए दिया जाने वाला 'स्वाप (सोना)' हेतु । क्योंकि किन्ही वनस्पतियों में संकोच आदि चिहोसे चैतन्य स्पष्ट जाना जाता है, किन्हीं में नहीं । असिपत्र - १ असुरकुमार जातीय भवनवासी देवोका एक भेद । - दे. असुर । २ नरक में पाये जानेवाले वृक्ष विशेष - दे. नरक २ । (परस्पर के दु ख ) । असुरवनीपाल - बाबुल या ईरान देशका राजा । समय - ( ई - पृ/ 448-494)। असुर - १३/५.५,१४०/३६१/७ अहिंसाद्यनुष्ठानरतय' सुरा नाम । तद्विपरीता असुरा - जिनकी अहिंसादिके अनुष्ठानोंने रति है वे सुर है। इनसे विपरीत असुर होते हैं। २ असुरकुमार देवोके भेद ति प २ / ३४८-३४६ सिकदाणणासिपत्ता महबलकाला य सामसबला हि । रुद्द बरसा विलसिदणामो महरुद्दखरणामा ॥ ३४८ ॥ कालग्गिरुद्दणामा कुभो वेतरणिपहुदिअसुरसुरा । गंतूण बालुकत णारइयाण पकोपति ॥ ३४६ ॥ सिकतानन, असिपत्र, महाबल, महाकाल, श्याम और शबल, रुद्र अबरोष, विलसित, महारुद्र, महावर, काल तथा अग्निरुद्र, कुम्भ और वैतरणि आदिक असुरकुमार जातिके देव तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी तक जाकर नारकियोको क्रोधित करते है । ३. असुर देव नरकोमे जाकर नारकियोको दुख देते है परन्तु सब नही ससि १/४ / २०१ / २ पूर्वजन्मनि भावितेनातितीय परिणामेन दुराजित पापकर्म तस्योदयात्मततं क्लिश मक्लिष्टा - इति विशेषन्न सर्वे असुरानारकाणा दु खमुत्पादयन्ति । किं तर्हि | अम्बाम्बरीषादय एव केचनेति । पूर्व जन्ममें किये गये अतितीव्र सक्लेशरूप परिणामोसे इन्होंने जो पाप कर्म उपार्जित किया उसके उनसे से निरन्तर क्लिट रहते है, इसलिए सक्लिए असुर कहलाते है। सूत्र यद्यपि असुरोको सक्लिष्ट विशेषण दिया है, पर इसका यह अर्थ नही कि सब असुर नारकियोको दु ख उत्पन्न कराते है । किन्तु अम्बरीष आदि कुछ असुर ही दुख उत्पन्न कराते है । देऊरा " (सिक्तानन आदि अनेक प्रकार के असुरदेव त सरो पृथिवी तक जाकर नारकियोको क्रोध उत्पन्न कराते है ।) · ४ सुरोके साथ युद्ध करनेके कारण असुर कहना मिथ्या है। रा.मा. ४/१०/४/२२६/७ स्परम युद्ध देवे सहास्यन्ति प्रहरणादीनसुरा इति तन्न, कि कारणम्। अवर्णवादात् । अवर्णवाद एष देवानामुपरि मिध्याज्ञाननिमित्तं कुतते हि सौधर्मादयो देवा महाप्रभाव न देषामुपरि इतरेषा निकृश्वलानां मनागपि प्रातिलोम्येन वृतिरस्ति अपि च वैरकारणाभावाद ॥ ततो नासुरा सुरेरुध्यन्ते । = 'देवोके साथ असुरका युद्ध होता है, अत ये असुर कहलाते है' यह देवोका अवर्णवाद मिथ्यात्वके कारण किया जाता है, क्योंकि, सौधर्मादिक स्वगोंके देव महाप्रभावशाली है। शुभानुष्ठानों रहनेवाले उनके साथ वैरकी कोई सम्भावना नहीं है । निकृष्ट बलवाले असुर उनका किंचित् भी बिगाड नही कर सकते। इसलिए अभावले असुरोसे युद्धको ना ही व्यर्थ है। * असुरकुमार देवोके इन्द्रादि व उनका अवस्थान - दे, भवन / २, ४ असूत्र - दे. सूत्र । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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