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________________ अवधिज्ञान ७. अवधिज्ञानका स्वामित्व ७. उत्कृष्ट देशावधि उत्कृष्ट संयतोंको ही होता है पर जघन्य असंयत सम्यग्दृष्टि आदिको भी सम्भव है रा.बा./१/२२/४/८३/३ एषो देशावधिरुस्कृष्टो मनुष्याणां संयतानी भवति । -यह उत्कृष्ट देशावधि संयत मनुष्योंको ही होता है । घ.१३/५,९.५६/३२७/६ उकस्समोहिणार्ण महारिसोणं चेन होदि (... जहष्णमोहिणाणं-मणुस्सतिरिक्वसम्माइट्ठीसु चेब होदि । - उत्कृष्ट अवधिज्ञान महर्षियोंके हो होता है। जघन्य अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यचोंके ही होता है। गो.जी./जी.प्र.३७४/८०२/८ देशावधेनिस्य जघन्यं नरतिरपचोरेव संयतासंयतयोः भवति.न देवनारकयोः। देशावधेः सर्वोत्कृष्टं तु नियमेन मनुष्यगतिसकलसं यते एव भवति नेतरगतित्रये तत्र महावता भवात् । -देशावधिका जघन्य भेद संयमी व असंयमी (सम्यग्दृष्टि) मनुष्य तियच विष हो हो है. देव नारकी विषै न हो है । बहुरि देशावधिका उत्कृष्ट भेद संयमी महावती मनुष्य विष ही हो है जाते और तीन गतिवि महाबत संभव नाहीं।। गो.जो./जी.प्र.३७३/८०१/१३ देशावधिरपि गणे दर्शनविशुद्धयादिलक्षणे सति भवति । -देशावधि भी दर्शन विशुद्धि आदि लक्षणबाले सम्यग्दर्शनादि गुण होते संतै हो है। ८. मिच्यादृष्टियों में भी अवधिज्ञानको सम्भावना ध.१३/१०५.५३/२६०/८ मिच्छाइद्विसु ओहिणाणं णत्थि त्ति वोत्तण जुत्त, मिच्छक्तसहचरिदओहिणाणस्सेत्र विहंगणाणववएसादो। -मिथ्याष्टियोंके अवधिज्ञान नहीं होता. ऐसा कहना युक्त नहीं क्योंकि, मिथ्यात्व सहचरितं अवधिज्ञानकी ही विभंग ज्ञान संज्ञा है। गो.जी./जो.प्र.३०५/६५७५ मिथ्यादर्शनकलङ्कितस्य जीवस्य अवधि ज्ञानावरणीयवोर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं...विपरीतग्राहकं तियंगमनुष्यगत्योः तीनकायक्लेशद्रव्यसंयमरूपगुणप्रत्ययं, चशब्दाद्दिवनारकगत्योर्भवप्रत्ययं च...अवधिज्ञान विभंग इति ।-मिध्यादृष्टि जोकनिकै अबधिज्ञानाबरण वीर्यान्तरायके क्षयोपशमतै उत्पन्न भया ऐसा वि कहिए विशिष्ट जो अवधिज्ञान ताका भंग कहिए विपरीत भाव सो विभंग कहिए। सो तिथंच मनुष्य गतिविर्ष तो तीव कायक्लेशरूप द्रव्य संयमादिककरि उपजै है सो गुण प्रत्यय हो है। और 'च' शब्द से देव नारक गतियों में भव प्रश्यय हो है। ९. परमावधि व सर्वावषि घरमशरीरी संयनों में ही होता है रा.बा.१/२२/४/८३/१९ स एष त्रिविधोऽपि परमावधिः उत्कृष्टचारित्रयुक्त स्यैव भवति नान्यस्य ।...- यह तीनों प्रकारका (जघन्य, मध्यव व उत्कृष्ट) परमावधि ज्ञान उत्कृष्ट चारित्र युक्तके ही होता है अन्य के नहीं। ध १३/५,५,५६/३२३/४ परमोहिणाणं संजदेसु चेव उपज्जदि उप्पण्णे हि परमोहिणाणे सो जीवो मिच्छतण कयावि गच्छदि, असंजम बि णो गच्छदि त्ति भणिदं होदि ।...सबमोहिणाणं । एदं पिणियाणं चैत्र होदि। ...परमावधि ज्ञानको उत्पत्ति संयतोंके हो होती है। परमावधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर वह जीव न कभी मिथ्यात्वको प्राप्त होता है और न कभी असंयमको भी प्राप्त होता है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है।...यह सविधिज्ञान भी निर्ग्रन्थों के ही होता है। (घ./8/४.१.३/४१/७) । पं.का./ता..४३ को प्रक्षेपक गा.३ को टोका ८६/२४ परमावधि-सर्वा वधिद्वयं...चरमदेहतपोधनानो भवति । तथा चोक्तं । "परमोहि सम्बोहि चरमसरीरस्स बिरदस्स" - परमावधि और सर्वावधि ये दोनों ज्ञान चरमशरोरी तपोधनोंके ही होते हैं। जैसे कि कहा भी है-"परमावधि व सर्वावधि चरम शरीरी विरत अर्थात् संयतके होते है"। गो.जी./जी.प्र./३७३/८०१ देवनारकयोगृहस्थतीर्थ करस्य च परमावधिसर्वावध्योरसंभवात । =देव, नारकी अर गृहस्थ तीर्थ कर इनके परमावधि व सविधि होइ नाही। १०. अपर्याप्तावस्थामें अवषिज्ञान सम्भव है पर विभंग नहीं प.ख-१/१.१/सू.११८/३६३ पज्जत्ताणं अस्थि, अपज्जत्ताणं ण स्थि। -विभंग ज्ञान पर्याप्तकोंके ही होता है. अपर्याप्तकोंके नहीं होता।११८॥ स.सि./९/२२/१२७/५ न ह्यसंज्ञिनामपप्तिकानां च तत्सामर्थ्यमस्ति । - असंज्ञी और अपर्याप्तकके यह सामर्थ्य नहीं है (क्षयोपशम निमित्तक अबधिज्ञान असंज्ञो व अपर्याप्तकों में उत्पन्न नहीं होता है।) ध.१३/११.५३/२६१/७ तिरिक्वमणुस्सेसु समत्तगुणेणुप्पण्णस्स तस्थाबट्ठाणुवलंभादो। -तियंच और मनुष्यों में सम्यक्त्व गुणके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अबधिज्ञान देवों और नारकियों के अपर्याप्त अवस्थामें भी पाया जाता है । (विशेष दे. सत् प्ररूपणा) । ११. संज्ञी संमार्छनोंमें अवधिज्ञानको सम्भावना असम्भावना ध.५/१,६.२३४/११६/११एको अट्ठावीससंतकम्मिो समूच्छिमपज्जतएस उबवण्णो । छहि पज्जत्तोहि पज्जत्तयदो; विस्संतो, बिसुदो, वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो तदो अंतोमुहतेण ओहिणाणो जादो। -मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतिको सत्तावाला कोई एक जीव संज्ञो सम्मूर्छिम पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो. विश्राम ले. विशुद्ध हो, वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पश्चात् अन्तर्मुहूर्तसे अवधिज्ञानी हो गया। ध.५/१..२३७/१९८/११ सण्णिसम्सुच्छिमपज्जत्तएम संजमासं जमस्सेव ओहिणाणुवसमसम्मत्ताणं संभवाभावादो ।...ओहिणाणाभावो कुदो णव्वदे। सम्मुतिय मेसु ओहिणाणमुप्पाइय अंतरपरूवय आइरियाणमणु वलं भादो ।...गम्भोवयकतिएमु गमिदअतालीस (-पुयकोडि-) वस्से सु ओहिणाणमुप्पादिय किण्ण अंतराविदो। ण, तस्य वि ओहिणाणसंभव' परूवयं तमरखाणाइरिमाणमभावादो। -प्रश्न-संज्ञी सम्मृच्छिम पर्याप्तकों में संयमासयमके समान अवधिज्ञान और उपशम सम्यक्त्वकी संभव ताका अभाव है। प्रश्न-संज्ञो सम्मूच्छिक जीवों में अवधिज्ञानका अभाव कैसे जाना जाता है ! उत्तरक्योंकि, अब धिज्ञानको उत्पन्न कराके अन्तरके प्ररूपण करनेवाले आचार्योका अभाव है। अर्थात किसी भी आचार्य ने इस प्रकार अन्तरकी प्ररूपणा नहीं की। प्रश्न-गोत्पन्न जीवों में व्यतीतकी गयी अड़तालीस पूर्व कोटी वर्षों में अवधिज्ञान उत्पन्न करके अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, उन में भी अवधिज्ञानकी सम्भवताको प्ररूपण करनेवाले व्यारण्यामाचार्योका अभाव है। १२. अपर्याप्तावस्थामें अवषिज्ञानके सद्भाव और विभंगके अभाव सम्बन्धी शंका ध.१.१,११८/३६२/६ अथ स्यायदि देवनारकाणी विभाहानं भवनिबन्धनं भवेदपर्याप्तकालेऽपि तेन भवितव्यं तदधेतोभयस्य सत्त्वादिति न.'सामान्यबोधनाश्च विशेषेष्यवतियन्ते' इति न्यायातमापर्याप्तिविशिष्ट देव नारकत्वं विभङ्गानिबन्धनमपि तु पर्याप्तिबिशिष्टमिति । ततो नापर्याप्तकाले तदस्तीति सिखमा-प्रश्न-यदि देव और नारकियों के विभेगज्ञान भव-प्रत्यय होता है तो अपर्याप्तकाल में भी वह हो सकता है, क्योंकि, अपर्याप्तकाल में भी विभंगज्ञानके कारणरूप भवकी सत्ता पायी जाती है। उत्तर-नहीं. क्योंकि, 'सामान्य विषयका बोध करानेवाले बाक्य विशेषों में रहा करते है इस ग्यायके अनुसार अपर्याप्त अवस्थासे युक्त वेब और नारक पर्याय विभंगहानका कारण नहीं है। किन्तु पर्याप्त अवस्थासे युक्त ही देव और मारक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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