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________________ अवधिज्ञान ७. अवधिज्ञानका स्वामित्व अप्रतिपाती है। भवान्तरके प्रति अननुगामी है और देशान्तरके प्रति अनुगामी है । (गो. जी/म.वटी/३७५/३०८) घ. १३/५,५५६/३१०/५ परमोहि पुण दव-खेत्त-कालभावाणमक्कमेण खुड्ढी होदि बत्तन्वं घ १३४५,५,६/३२३/६. तस्य परमोहिणाणीणं पडिवादाभावेण उप्पादाभा बादो।-परमावधि ज्ञानमें तो द्रव्य क्षेत्र काल और भव की युगपत् वृद्धि होती है, ऐसा यहाँ व्याख्यान करना चाहिए। परमाव धि ज्ञानियों का प्रतिपात नहीं होनेसे वहाँ (स्वर्गमें) उनका उत्पाद सम्भव नहीं। १.देशावधि आदि मेवोंमें चारित्रादि सम्बन्धी विशेषताएँ ध१४,१३/४१।६ कधमेदस्स ओहिणाणस्स जेहुदा । देसोहिं पेक्विदूण महाविसय तादो, मणपज्जवणाणं वसंजदेसु चेव समुप्पत्तीदो, सगुप्पण्णभवे चेव केवलणाणुप्पत्तिकारणत्तादो, अप्पडिवादित्तादो वा जेट्ठदा। -प्रश्न ---इस (परमाव धि) अवधिज्ञानके ज्येष्ठपना कैसे है। उत्तर-चूकि यह परमावधि ज्ञान देशाबधिको अपेक्षा महा विषय वाला है, मनःपर्य यज्ञानके समान संयत मनुष्यों में ही उत्पन्न होता है, अपने उत्पन्न होनेके भव में ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है और अप्रतिपाती है । इसलिए उसके ज्येष्ठपना सम्भव है। ध१३/५/५.६६/३२३/८ तं मिच्छत्तं पि गच्छेज्ज असंजमं पि गच्छेज्ज अविरोहादो-उस (देशावधि) के होनेपर जीव मिध्यारव को भी प्राप्त होता है, और असंयमको भी प्राप्त होता है, क्योंकि ऐसा होने में कोई विरोध नहीं है। गो.जी./मूव टो/३७५/८०३ पडिवादी देसोही अप्पडिवादी हवं ति सेसा ओ। मिच्छत्तं अविरमणं ण य य पडिवजदि चरिमदुगे/३७५ । सम्यक्त्व चारित्राभ्यां प्रच्युत्य मिथ्यात्वासंयमयोः प्राप्तिः प्रतिपातः, तद्युतः प्रतिपाती, स तु देशावधिरेव भवति । ... परमावधिसर्वावधिविके जीवाः नियमेन मिथ्यात्वं अविरमण च न प्रतिपद्यन्ते ततः कारणात् तौ द्वावपि प्रतिपातिनौ । देशावधिज्ञान प्रतिपाति अप्रतिपाति च इति निश्चितं। -प्रतिपाती कहिए सम्यक्त्व व चारिप्रसौं भ्रष्ट होइ मिथ्यात्व व असंयमकौं प्राप्त होना. तीहि संयुक्त जो होइ सो प्रतिपाती कहिए। देशावधिवाला तो कदाचित् सम्यक्त्व चारित्रसौं भ्रष्ट होइ मिथ्यात्व असंयमको प्राप्त हो है । अर परमावधि सर्वावधि दोय ज्ञानविषै वर्तमान जीव सो निश्चयसौ मिथ्यात्व अर अविरतिकौं प्राप्त न हो है जाते देशावधि तौ प्रतिपाती भी है, और अप्रतिपातो भो है. परमावधि सर्वावधि अप्रतिपातो ही हैं। ७. अवधिज्ञानका स्वामित्व १. सामान्य रूपसे अवधि चारों गतियोंमें सम्भव है स. सि/१/२५/१३२/६ अवधिः पुनश्चातुर्गतिके विति ।-अबधिज्ञान चारों गतियोंके जोवोंको होता है । (रा वा १/२५/८७/९) २. भवप्रत्यय केवल देव नारकियों व तीथंकरोंके होता है त. सू/१/२१ भवप्ररययोऽवधिदेवनारकाणां ।२९। -भव प्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियोंके होता है। (प.ख/५,६/सू. ५४/२६३) (स.सा/ १/२७/२६)। ध.१३/५.६.५३/२६१/२ सामण्ण णि हे से संते सम्माइटि-मिच्छाइट्ठीणमो, हिणाणं पज्ज तभवपच्चइयं चेवे त्ति कुदो णबदे। अपज्जत्तेव गेरइएम विहंगणाणपडिसेहण्णहाणुववत्तीदो। -प्रश्न-देवों और नारकियों का अवधिज्ञान भवप्रत्यय होता है, ऐसा सामान्य निर्देश होनेपर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टियोंका अब धिज्ञान पर्याप्त भव के निमित्तसे ही होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ! उत्तर-क्योंकि अपर्याप्त देवों और नारकियोंके विभंग ज्ञानका जो प्रतिषेध किया है वह अन्यथा बन नहीं सकता। गो.जी./मू/३७१/७१८ भवपञ्च इगो सुरणिरयाणं तित्थेवि सब्व अंगुत्थो। गो.जी./जो.प्र/३७१/७६६/४ तत्र भवप्रत्ययावधिज्ञानं मुराण नारकाणी चरमभवतीर्थकराणां च संभवति । - भवप्रत्यय अवपिज्ञान देवनिक नारकी निकै अर चरमशरीरी तीर्थंकर देवनिकै पाइये है। ३. गुणप्रत्यय केवल मनुष्य व नियंचोंमें ही होता है प.व १३/५/सू.५५/२६३ जे तं गुणपञ्चइयं तं तिरिक्ख-मणुस्साणं ॥ -जो गुण प्रत्यय अवधिज्ञान है वह तिर्यचों और मनुष्यों के होता है। (गो.जो./मू./३७१/985) (त.सा.१/२७/२६) । त.मू.१/२२ क्षयोपशम निमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥२२॥ -क्षयोप शमनिमित्तक अवधिज्ञान छ: प्रकार है, जो शेष अर्थात तियंचों और मनुष्योंके होता है। ४. भवप्रत्यय ज्ञान सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनोंको होता है घ १३/५.५.५३/२६०/१० सम्मत्तेण वि मिच्छाइट्ठीमु पज्जत्तपदेसु ओहिणाणुप्पत्तिदंसणादो । तम्हा तमोहिणाणं भव पञ्चश्यं चेव । -सम्यवरबसे भी पर्याप्त मिथ्याष्टियों के अवधिज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए वहाँ उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय ही है। ५. गुणप्रत्यय अवधिज्ञान केवल सम्यग्दष्टियोंको ही होता है ष.ख.१/१.१/सू.१२०/३६४ आभिणि बोहियणाणं सुदणाणं ओहिणामसंजदसम्माइटिप्पडि जाव खीणक सायवीदरागछ दुमत्था ति ॥१२॥ - आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान असं यत सम्यग्दृधियोंसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मथ गुणम्थान तक होते हैं ।१२०॥ (गो.जो/जी.प्र./७२४/११६०/७) स.सि.१/२२/१२७/६ यथोक्तसम्यग्दर्शनादिनिमित्त संनिधाने सति शान्तक्षीणकर्मणां तस्योपलब्धिर्भवति। = यथोक्त सम्यग्दर्शनादि निमित्तोंके मिलनेपर जिनके अवधिज्ञानावरण कर्म शान्त और क्षीण हो गया है ( अर्थात् क्षयोपशम प्राप्त हो गया है ) उनके रह उपलब्धि या सामर्थ्य होती है (रा.वा./२/२२/२/८१/१०) । घ.१३/५.५,५३/२६१/१० अणुव्रत-महावतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुण: कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद गुण पत्ययकम् । - सम्यक्त्वमे अधिष्ठित अणुवत और महाव्रत गुण जिस अवघिज्ञानके कारण है वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है। पं.का /ता.बृ.४/प्रक्षेपक गा.३/८६ योऽप्यधयो विशिष्टसम्यक्त्यादिगुणेन निश्चयेन भवन्ति । -देशावधि, परमावधि व सर्वावधि ये तीनों ही गुणप्रत्यय अवधिज्ञान निश्चयसे विशिष्ट सम्यवस्वादि गुणोंके द्वारा होते हैं । (गो.जो./जी प्र./३७४/८०१/१३) । ६. उत्कृष्ट देशावधि मनुष्योंमें तथा जघन्य मनुष्य व तियंच दोनोंके सम्भव है-देव नारकोमें नहीं प.स्व.१३/५,५.५६/ सूत्र गाथा १७३२७ उक्कास माणुसेसु त माणुस तेरिच्छए जहण्णोही। ध.१३/५,५.५६/१२७/५ उमस्सओहिणाणं तिरिवखेसु देवेस गेरइएसुबा ण होदि किंतु मणुस्से चेव होदि । जहण्णमोहिणणं देवणेरइएस ण होदि किंतु मणुस्सतिरिक्खसम्माट्टीम चेव होदि । - उत्कृत अवधिज्ञान मनुष्यों के तथा जघन्य अवधिज्ञान मनुष्य और तियंच दोनों के होता है । उत्कृष्ट अवधिज्ञान तिय च देव और नारकियों के नहीं होता किन्तु ममुध्योंके ही होता है। जघन्य अवधिज्ञान देव और नारकियोंके नहीं होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिचौके ही होता है। (गो.जी./जी,प्र./३७४/८०८/८) (रा.वा./१/२२/४/८२.३४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgi
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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