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________________ मत्पबहुल १६१ ३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ दुगुना दूना विषय अल्पबहत्व विशेष विषय अरु"बहुत्व । विशेष अन्यतम ईहा विशेषाधिक ६ नोकपाय ब ध काल की अपेक्षाधृतज्ञान (क पा ३/३,२२/६३८६-३८७/पृ २१३) - श्वासोच्छ्वास विशेषाधिक उच्चारणाचार्य की अपेक्षा चारों गतियोंमें अन्य आचार्यों सशरीर केवली का केवल ज्ञान सोपसर्ग उपरोक्त का दर्शन ऊपर तुल्य की अपेक्षा मनुष्य व तियेंच में केवली शुक्ल लेश्या सा. पुरुष वेद __स्ताक (संदृष्टि) एकत्व वितक अविचार ध्यान विशेषाधिक अपेक्षा स्त्री वेद । स गुणा पृथक्त्व वितर्क विचार ध्यान दुगुना हास्य रति अवरोहक सू सम्पराय विशेषाधिक अरति शोक आरोहक , ना सक वेद } विशेषाधिक ४२ , अन्य आचार्यों की अपेक्षा शेष नरक व देव मे क्षपक मान कषय सस पुरुष वेद सा | स्तोक (सदृष्टि) क्रोध . . विशेषाधिक स्त्री वेद सं. गुणा । माया , हास्य रति विशेषाधिक ११ .. लोभ , नपुमक वेद सं गुणा २२ ॥ क्षुद्र भव अरति शोक विशेषाधिक २३ ॥ कृष्टि करण ७ मिथ्याव काल विशेष की अपेक्षासंक्रामक (ध १०/४,२,४,६२/२८४) अपवर्तना देवगति में जन्म धारनेवाले के स्तोक उपशान्त कषाय मनुष्य गति में उत्पत्ति योग्य स गुणा क्षीण मोह विशेषाधिक तिर्यच संज्ञी पचेन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य उपशमक दुगना तियंच अमंज्ञी ५ चेन्द्रियमें उत्पत्ति क्षपक विशेषाधिक योग्य ४. उपशमन व क्षपण काल की अपेक्षा चतुरिन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य त्रोन्द्रियमे उत्पत्ति योग्य (कपा ४/३,२२/६६१६-६२६/३२६-३२८) द्वीन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य चारित्र मोह : एकेन्द्रिय बा में उत्पत्ति योग्य क्षपक अनिवृत्ति करण स्तोक एकेन्द्रिय मू मे उत्पत्ति योग्य अपूव . सं गुणा उपशामक अनिवृत्ति करण ८. जीवोके योग स्थानोकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणाएं ., अपूर्व करण लक्षण-उपाद याग-जा उत्पन्न होनेके प्रथम समय में एक समय मात्र दर्शन मोह : के लिए हो। क्षपक अनिवृत्ति करण एकान्तानुवृद्धि योग - जो उत्पन्न होने के द्वितीय समयसे लेकर ... अपूर्व .. शरीर पर्याप्तिसे अपर्याप्त रहनेके अन्तिम समय तक निवृत्त्यअनन्तानुबन्ध विसयोजक का पर्याप्तकोमे रहता है । लब्ध्यपर्याप्तको के आयु बन्धके योग्य अनिवृत्ति करण काल में अपने जीवितके त्रिभागमें परिणाम योग होता है । उपरोक्त अपूर्व करण उससे नीचे एकान्तानुवृद्धि योग होता है। इसका जघन्य उपशामक अनिवृत्ति करण व उत्कृष्ट काल एक समय है। परिणाम योग- पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आगे जीवन, अपूर्व पर्यन्त सब जगह परिणाम योग ही होता है। निवृत्यपर्याप्तके ५ कषाय काल की अपेक्षा परिणामयोग नहीं होता। (गो. जी./जी. प्र./२६६/६४०) (ध १०/४२,१७३/४२८-४२१), (दे. अल्पबहुत्व/३/११/७/३) नरक गति: नोट-गुण कार सर्वत्र पत्य/असं.जानना (ध १०/पृ.४२०) लोभ सा० स्तोक अन्तर्म. माया सं. गुणा स्वामी | अल्पबहुत्व मान कोध १ योग सामान्यके यव मध्य कालको अपेक्षादेवगति : (ष खं.१०/४,२,४/सु २०६-२१२/५०३-५०४) क्रोध स्तोक अन्तर्मु २०६६ मध्य स्थान ८ समय योग्य सर्वत स्तोक मान स.गुणा २०७ दोनो पार्श्वभागों में परस्पर तुल्य माया ७ समय योग्य असं. गुणे लोभ १२०८६ समय योग्य योग ११ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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