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________________ अल्पबहुत्व १४२ २. ओष आदेश प्ररूपणाएँ अंगुल अंत. अप नहीं आ सकता, क्योकि विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामोके द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायोको विसं योजना स्वीकारकी गयी है। ४. सिद्धोके अल्पबहत्व सम्बन्धी शंका घ/४,१,६६/३१८/७ एदमप्पाबहुग सोलसव दियअप्पाबहुएण सह विरुज्झदे, सिद्धकालादो सिद्धाण संखेज्जगुणत्तं फिट्टिदूण विसेसाहियत्तप्पसगादो । तेणेत्थ उवएसं लटि एगदरणिण्णओ कायवो । = यह अल्पबहुत्व (सिद्धोमें कृति सचय सबसे स्तोक है, अव्यक्त सचित असख्यातगुणे है, इत्यादि) षोडशपदादिक अल्पबहत्त्व (अल्पबहुत्व २/२) के साथ विरोधको प्राप्त होता है, क्योकि सिद्धकालकी अपेक्षा सिद्धोंके संरख्यातगुणत्व नष्ट होकर विशेषाधिकपनेका प्रसग आता है। इस कारण यहाँ उपदेश प्राप्त कर दो-में-से किसी एकका निर्णय करना चाहिए । ५. वर्गणाओंके अल्पबहुत्व सम्बन्धी दृष्टिभेद ध १४/५.६,६३/१११/४ जहण्णादो पुण उक्कस्सबादरणिगोदवग्गणा असंखेज्जगुणा । को गुणकारो। जगसेडीए असंखेज्जदिभागो। के वि आइरिया गुणगारो पुण आवलियाए अस खेज्जदिभागो होदि त्ति भणति. तण्ण घडदे । कुदो। बादरणिगोदवग्गणाए उक्कसियाएसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तो णिगोदाण त्ति एदेण चूलियासुत्तेण स विरोहादो। अपनी जघन्यसे उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा असख्यातगुणी है। गुणकार क्या है । जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। कितने ही आचार्य गुणकार आवलिके असण्यातवे भाग प्रमाण होता है, ऐसा कहते है, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, 'उत्कृष्ट वादरनिगोदवर्गणामें निगोद जीवोंका प्रमाण जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र है', इस चूलिकासूत्र के साथ विरोध आता है। ध. १४/५,६,११६/१६६/७ एत्थ के वि आइरिया उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणादो उवरिमधुबसुण्णएगसेडी असखेज्जगुणा । गुणगारो विघणाबलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति भणं ति तण्ण घडदे । कुदो। सखेज्जेहि असंखेज्जेहि वा जोवेहि जहष्णवादरणिगोदवग्गणाणुप्पत्तीदो।..तम्हा अणंतलोगा गुणगारो ति एद चेवघेत्तव्यं । - यहाँपर कितनेही आचार्य उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणामे उपरिमध व शून्य एक श्रेणि असंख्यातगुणीहै,और गुणकार भी घनाव लिके असंख्यातवे भागप्रमाण है, 'ऐसा कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योकि सख्यात या असंख्यात जोवोंसे जघन्य बादरनिगोदवर्गणाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए 'अनन्त लोक गुणकार है' यह वचन ही ग्रहण करना चाहिए। ध.१४/५.६.११६/२१६/१३ कम्मइयवग्गणादो हेठिमाहारवग्गणादो उपरिमअगहणवग्गणमदाणगुणगारेहितो आहारादिवग्गणाणं अताणप्पायणहूं ठविदभागहारो अणंतगुणो त्ति के विआइरिया इच्छति, तेसिमहिप्पारण पुचिल्लमपाबहूगं परूविदं । भागाहारेहितो गुणगारा अणतगुणा त्तिके विआइरिया भणं ति। तेसिमहिप्पाणं एदमप्पाबहगं परूविज्जदे, तेणेसो ण दोसो। कार्माणवर्गणासे अधस्तन आहार वर्गणासे उपरिम अग्रहणवर्गणाके अध्वानके गुणकारसे आहारादि वर्गणाओं के अध्वानको उत्पन्न करने के लिए स्थापित भागाहार अनन्तगुणा है । ऐसा कितने ही आचार्य कहते है, इसलिए उनके अभिप्रायानुसार पहिलेका अल्पबहुत्व कहा है। तथा भागहारोंसे गुणकार अनन्तगुणे है ऐसा आचार्य कहते हैं इसलिए उनके अभिप्रायानुसार यह अल्पबहुत्व कहा जा रहा है। इसलिए यह कोई दोष नहीं है। ६.पंचशरीर विस्रसोपचय वर्गणाके अल्पबहुत्व-दृष्टिभेद ध. १४/५,६,५१२/४५/४५७/६ सव्वथ गुणगारो सव्वजोवेहि अणंतगुणो। एदमप्पाबहुग बाहिरवग्णाए पुधभूद त्ति काऊण के वि आइरिया जीवसंबद्धपचण्णं सरीराणं विस्सस्सुवचयस्सुवरि परूवेति तण्ण घडदे, जहण्णपत्तेयसरीरवगणादो उक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाए अणंतगुणप्पसगादो। - सर्वत्र गुणकार सब जीवोंसे अनन्तगुणा है। यह अल्पबहुत्व बाह्य वर्गणासे पृथग्भूत है, ऐसा मानकर कितने ही आचार्य जीव सम्बद्ध पाँच शरीरोके विससोपचयके ऊपर कथन करते है, परन्तु वह घटित नही होता, क्योकि ऐसा मानने पर जघन्य प्रत्येक शरीरवर्गणासे उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणाके अनन्तगणे होनेका प्रसंग प्राप्त होता है। ७ मोह प्रकृतिके प्रदेशागों सम्बन्धी दृष्टिभेद क. पा. ४/३-२२/६३३६/३३४/११ सम्मत्तचरिमफालीदो सम्मामिच्छत्त चरिमफाली असख्ये. गुणहोणा त्ति एगो उवएसो। अबरेगो सम्मामिच्छत्तचरिमफाली तत्तो विसेसाहिया त्ति । एत्थ एदेसि दोण्ड पि उवएसाणं णिच्छय काउमसमत्येण जइबसहाइरिएण एगो एत्थ विलिहिदा अवरेगो हिदिसंकम्मे। तेणेदे वे वि उबदेसा थप्प कादूण वत्तव्वा त्ति । - सम्यक्त्वको अन्तिम फालिसे सम्यग्मिथ्यात्वको अन्तिम फालि असख्यातगुणी हीन है, यह पहिला उपदेश है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालि उससे विशेष अधिक है यह दूसरा उपदेश है । यहाँ इन दोनो ही उपदेशोंका निश्चय करनेमें असमर्थ यतिवृषभ आचार्य ने एक उपदेश यहाँ लिखा और एक उपदेश स्थिति सक्रमणमें लिखा, अत इन दोनो ही उपदेशोंको स्थगित करके कथन करना चाहिए । २. ओघ आदेश प्ररूपणाएँ १. सारणीमें प्रयुक्त संकेतोंके अर्थ संकेत अर्थ | संकेत अर्थ अगु ज.प्र जगप्रतर अतर्मुहूर्त ज श्रे. जगश्रेणी अपर्याप्त ते तेजस शरीर अप्र. अप्रतिष्ठित नि. अप. निवृत्यपर्याप्त असरख्यात नि. प. निवृत्ति पर्याप्त आवली, आहारक पचे. पंचेन्द्रिय शरीर पर्याप्त उत्कृष्ट परि. परिणाम योग स्थान उपशम सम्यक्त्व या पृथिवी उपशमश्रेणी उपपाद प्रति. प्रतिष्ठित योग स्थान बादर एकान्तानुवृद्धि ल,अप लब्धयपर्याप्त योगस्थान वनस्पति औदारिक शरीर वेदक सम्यक्त्व कार्मण शरीर वै क्रियिक शरीर क्षपक श्रेणी सख्यात क्षायिक सम्यक्त्व सम्मूर्छन गुणकार या गुणस्थान सामान्य जघन्य सूक्ष्म २. षट् द्रव्योंका षोडशपदिक अल्पबहत्व ध.३/१,२,३/३०/७ द्रव्य अल्पबहुत्व गुमकार वर्तमान काल स्तोक अभव्यय राशि अनन्त गुणी ज युक्तानन्त सिद्ध काल सिद्ध जीव अस गुणे शत पुथक्त्व असिद्ध काल स. आवली अतीत काल विशेषाधिक सिद्ध काल भव्य मिथ्याष्टि अनन्त गुणे भव्य सामान्य विशेषाधिक सम्यग्दृष्टि मिथ्या दृष्टि अभव्य ससारी जीव भव्य आ, बा. वन जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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