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________________ अर्हन्त १३८ अलका * अर्हन्तोंके मृत शरीर सम्बन्धी कुछ धारणाएँ-दे __मोक्षा। * अर्हन्तोका विहार व दिव्य ध्वनि-दे वह वह नाम । * भगवान्के १००८ नाम-दे म. पु /२५/१००-२१७ । ९. भगवान्के १००८ लक्षण म पु/१५/३७-४४/केवल भाषार्थ-श्रीवृक्ष, शख, कमल, स्वस्तिक, अकुश, तोरण, चमर, सफेद छत्र, सिहासन, पताका, दो मीन, दो कुम्भ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान. भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, बाण, धनुष, मेरु, इन्द्र, देवगंगा. पुर, गोपुर, चन्द्रमा, सूर्य, उत्तम घोडा, ताल वृन्त (परखा), बाँसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएँ, रेशमी वस्त्र, दुकान, कुण्डल आदि लेकर चमकते हुए चित्र विचित्र आभूषण, फल सहित उपवन, पके हुए वृक्षोसे सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वज्र, पृथिवी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूडामणि, महानिधियों, कल्पलता. सुवर्ण, जम्बूद्वीप, गरुड, नक्षत्र, तारे, राजमहल, सूर्यादि ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य, और आठ मगल द्रव्य आदि, इन्हे लेकर एकसौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यजन भगवान के शरीरमें विद्यमान थे। (इस प्रकार १०८ लक्षण + १०० व्यजन-१००८) (द पा टो/३/२७) * अर्हन्तके चारित्रमें कथश्चित् मलका सद्धाव (दे.केवली। २/सयोगी व अयोगीमें अन्तर)। * सयोग केवली--दे. केवली । १०. सयोग केवली व अयोगकेवली दोनों अहंन्त है ध./८/३,४१/८/२ ख विदधादिकम्मा केवलणाणेण दिवसबहा अरहता णाम |-जिन्होने घातिया कर्मोको नष्ट कर केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोको देख लिया है वे अरहन्त है। (अर्थात सयोग व अयोग केवलो दोनो हो अर्हन्त सज्ञाको प्राप्त है।) * सयोग व अयोग केवलीमें अन्तर--दे केवली/२ । ११. अर्हन्तोंको महिमा व विभूति नि, सा /मू ७१ घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया । चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहता एरिसा होति ।-घनघातिकर्म रहित केवलज्ञानादि परमगुणो सहित, और चौतीस अतिशय युक्त ऐसे अर्हन्त होते है । (क्रि क./३-१/१) नि. सा/ता वृ/७ में उद्धृत कुन्दकुदाचार्यको गाथा-"तेजो दिट्टी णाण इड्ढो सोकव तहेव ईसरिय। तिहुबणपहाणदइय माहप्प जस्स सो अरिहो । तेज (भामण्डल), केपलदर्शन, केवल ज्ञान, ऋद्धि (समवसरणादि) अनन्त सौरव्य, ऐश्वर्य, और त्रिभुवनप्रधानवल्लभपना -ऐसा जिनका माहात्म्य है, वे अर्हन्त है। बो. पा./मू /२६ दसण अण तणाणे मोक्खो णडटकम्मबंधेण। 'णिरुपमगुणमारूढो अरहतो एरिसो होइ ॥२६॥ जाके दर्शन और ज्ञान ये तौ अनन्त है, बहुरि नष्ट भया जो अष्ट कर्मनिका बन्ध ताकरि जाके मोक्ष है, निरुपम गुणोपर जो आरूढ है ऐसे अर्हन्त होते हैं । ( सं / मू./५०) (पंध/उ./६०७) ध.१/१.१.१/२३-२५/४५/केवल भावार्थ-मोह, अज्ञान व विघ्न समूहको नष्ट कर दिया है ॥२३॥ कामदेव विजेता, त्रिनेत्र द्वारा सकलार्थ व त्रिकालके ज्ञाता, मोह, राग, द्वेष रूप त्रिपुर दाहक तथा मुनि पति हैं ॥ २४ ॥ रत्नत्रयरूपा त्रिशूल द्वारा मोहरूपी अन्धासुरके विजेता, आत्मस्वरूप निष्ठ, तथा दुनयका अन्त करने वाले ॥२५॥ ऐसे अर्हन्त होते है। त. अनु. / १२३-१२८ केवल भावार्थ-देवाधिदेव, घातिकम विनाशक अनन्त चतुष्टय प्राप्त ॥१२३॥ आकाश तलमें अन्तरिक्ष विराजमान, परमौदारिक देहधारो॥१२४॥ ३४ अतिशय व अष्ट प्रातिहार्य युक्त तथा मनुष्य तिर्यंच व देवो द्वारा सेवित/१२५ ॥ पचमहाकल्याणकयुक्त, केवलज्ञान द्वारा सकल तत्त्व दर्शक/१२६ ॥ समस्त लक्षणोंयुक्त उज्ज्वल शरीरधारी,अद्वितीय तेजवन्त, परमात्मावस्थाको प्राप्त/१२७१२८ ॥ ऐसे अर्हन्त होते है। अर्ह (सत्र)-भ आ /वि /६७/१६४/१ अरिहे अर्ह. योग्य । सविचारभक्तप्रत्याख्यानस्याय योग्यो नेति प्रथमोऽधिकार । अरिह -अर्ह अर्थात योग्य। सविचारभक्त प्रत्याख्यान सल्लेखनाके लिए कौन व्यक्ति योग्य होता है और कौन नही, इसका वर्णन 'अहं' सूत्रसे किया जाता है। यह प्रथमाधिकार है। ( विस्तारके लिए दे. भ आ /मू./७१-७६) अर्हत-दे अर्हन्त । अर्हत्पासा केवली-कवि वृन्दावन (ई १७६१-१८५८) द्वारा हिन्दी भाषामें रचित, भाग्य निर्णय विषयक छोटा-सा एक ग्रन्थ है। इसमें एक लकडीका पासा फैककर उसपर दिए गए चिह्नोके आधारपर भाग्य सम्बन्धी बाते जानी जाती है। अर्हत्सेन-सेन लघकी गुर्वावलोके अनुसार आप दिवाकरसेनके शिष्य तथा लक्षमणसेन के गुरु थे।-समय-वि ६८०-७२० (ई. ६२३६६३) विशेष दे इतिहास/9६।१ (प पु/मू /१२३/१६७), २. (प पु/ प्र. १६/प पन्नालाल) अईदत्त-मूलसंघ की पट्टावली के अनुसार भगवान महावीरकी मूल परम्परामें लोहाचार्य के पश्चादवाले चार आचार्योमे आपका नाम है। समय-वी. नि ५६५-५८५, ई ३८-५८ । विशेष दे इतिहास/४/४। ईदत्त सेठ--(प पु/सर्ग/श्लो न.) वर्षायोगमें आहारार्थ पधारे गगन विहारी मुनियोको ढोगी जानकर उन्हे आहार न दिया। पीछे आचार्य के द्वारा भूल सुझाई जानेपर बहुत पश्चात्ताप किया/१२/ २०-३१) । फिर मथुरा जाकर उक्त मुनियोको आहार देकर सन्तुष्ट हुआ। (६२/४२)। अर्हदबलि-(ष ख १/प्र. १४,२८/H. I Jan) पूर्व देशस्थ पुण्ड्रवर्धन देशके निवासी आप बडे भारी सघनायक थे। पंचवर्षीय युग-प्रतिक्रमणके समय आपने दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) मे एक बडा भारी यति सम्मेलन किया था। यतियोमें कुछ पक्षपातकी गन्ध देखकर उसी समय आपने मूल संघको पृथक पृथक अनेक सघामें विभक्त कर दिया था ॥१४॥ आ धर सेनका पत्र पाकर इस सम्मेलनमेसे हो आपने पुष्पदन्त और भूतबला नामक दो नवदीक्षित साधुओको उनको सेवामे भेजा था। एकदेशागधारी होते हुए भी सध भेद निर्माता होनेके कारण आपका नाम श्रुतधरोकी परम्परामे नहीं रखा गया है। समय-वी. नि, ५६५५६३ (ई ३८-६६) । (विशेष दे परिशिष्ट/२/७) अहंद्भक्ति-दे भक्ति/१। अलंकारोदय-(प.पु/४/श्लो न.)-पृथिवीके भीतर अत्यन्त गुप्त एक सुन्दर नगरी थी/१६२-१६४। इसको रावणके पूर्वज मेघवाहनके लिए राक्षसाके इन्द्र भोम सुभोमने रक्षार्थ प्रदान की थी। अलंभषा-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिककुमारी देवी-दे, लोक ५/१३ । अलक-एक ग्रह-दे ग्रह। अलका-१ विजयाध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दै विद्याधर, २. पूर्वके दूसरे भवमे 'रेवती' नामकी धाय थी। इसने कृष्ण के पूर्व भवमें अर्थात् नि मिकको पर्यायमे उसका पालन किया था/१४४१४५ । वर्तमान भव मे भद्रिला नगरमें सुदृष्टि नामा सेठकी स्त्री हुई। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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