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________________ अनुयोगी अनेकान्त आ.प/६ गुणपर्यायाधिकार 'एकस्याप्यनेकस्वभावोपलम्भादनेकस्वभाव । एक द्रव्यके अनेक स्वभावकी उपलब्धि होनेके कारण वह अनेक स्वभाववाला है। स, सा/आ/परि शक्ति नं.३२ एकद्रव्यव्याप्यानेकपर्यायमयत्वरूपा अनेकत्व शक्ति 1 एक द्रव्यसे व्याप्य (व्यापने योग्य) अनेक पर्यायमयपनारूप अनेकत्व शक्ति है । अनेकान्त-वस्तुमें एक ही समय अनेकों क्रमवी व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मों गुणों, स्वभावों व पर्यायोंके रूपमें- भली प्रकार प्रतीति के विषय बन रहे है। जो वस्तु किसी एक दृष्टिसे नित्य प्रतीत होती है वही किसी अन्य दृष्टिसे अनित्य प्रतीत होती है, जैसे व्यक्ति वहका वह रहते हुए भी बालकसे बूढा और गँवारसे साहब बन जाता है। यद्यपि विरोधी धर्मोका एक ही आकारमें रहना साधारण जनोंको स्वीकार नही हो सकता पर विशेष विचारकजन दृष्टिभेदकी अपेक्षाओ को मुख्य गौण करके विरोधमें भी अविरोधका विचित्र दर्शन कर सकते है। इसी विषयका इस अधिकारमें कथन किया गया है। अनयोगी--(यह शब्द नैयायिक व वैशेषिक दर्शनकार आधार व आश्रयके अर्थ में प्रयुक्त करते है। द्रव्य अपने गुणोका अनुयोगी है, परन्तु गुण अपने द्रव्यका नहीं, क्योंकि द्रव्य ही गुणका आश्रय है, गुण द्रव्यका नहीं)। अनुराग-दे राग। अनुराधा-एक नक्षत्र-दे. नक्षत्र । अनुलोम-(५ ध/पू./२८८/भाषाकार) सामान्यकी मुख्यता तथा विशेषकी गौणता करनेसे जो अस्तिनास्तिरूप वस्तु प्रतिपादित होती है, उसको अनुलोमक्रम कहते है। अनवाद-ध १/१,१.२४/२०१/४ गतिरुक्तलक्षणा, तस्याः वदनं वाद । प्रसिद्धस्याचार्य परम्परागतस्यार्थस्य अनु पश्चात वादोऽनुवाद । -गतिका लक्षण पहिले कह आये है। उसके कथन करनेको वाद कहते हैं। आचार्य परम्परासे आये हुए प्रसिद्ध अर्थका सदनुसार कथन करना अनुवाद है। ध.१/१,१.१११/३४६/३ तथोपदिष्टमेवानुववनमनुवाद. प्रसिद्धस्य कथनमनुवाद । -जिस प्रकार उपदेश दिया है, उसी प्रकार कथन करनेको अनुवाद कहते है। · अथवा प्रसिद्ध अर्थ के अनुकूल कथन करमेको अन वाद कहते है। अनुवीचिभाषण-रा.वा./७/५,१/५३६/१२ अनुवी चिभाषण अनु. लामभाषणमित्यर्थ । -- अनुवीचिभाषण अर्थाद विचारपूर्वक बोलना (चा स./६३/३)। चा.प./टी/४६/११ वीची बाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सोऽनुवीचिभाषा, जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनु वीचिभाषा पूर्वाचार्यसूत्रपरिपाटीमन बल ध्य भाषणीयमित्यर्थ । -बीची वाग्लहरीको कहते है उसका अन सरण करके जो भाषा बोली जाती है सो अन वीचिभाषण है। जिनसूत्रकी अनु सारिणीभाषा अम वीची भाषा है। पूर्वाचार्यकृत सूत्रकी परिपाटीको उक्ल घन न करके बोलना, ऐसा अर्थ है। अनवत्ति-स.सि.१//३३१४०/६ द्रव्य सामान्यमुत्सर्ग अनुवृत्ति रित्यर्थ । - द्रव्यका अर्थ सामान्य उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। स्या म./४/१६/२ एकाकारप्रतीतिरेकशब्दवाच्यता चान वृत्ति। -एक नामसे जाननेवाली प्रतीतिको अनुवृत्ति अथवा सामान्य कहते है। किसी धर्मको विधिरूपसे वृत्ति या अनुस्यूतिको अनवृत्ति कहते है। जैसे घटमें घटत्वको अनु वृत्ति है । (न्या दी/३/६७६)। अनशिष्ट-भ.आ./वि./६८/१६६/४ अणुसिट्टि सूत्रानुसारेण शासनम् । - अशिष्ट अर्थात आगमके अविरुद्ध उपदेश करना । अनश्रेणी-ज.प./प्र १०५ Along a world line अर्थात एक प्रदेश, पंक्ति। अनुश्रेणींगति-दे. विग्रह गति। अनुसमयापवर्तना-१. काण्डकघात व अन समयापवर्तनामें अन्तर -दे. अपकर्षण/४। अनुस्मरण-रा.वा /१/१२,११/५५/१६ पूर्वानुभूतानुसारेण विकल्पनमनुस्मरणम् - पूर्व की अनुभूतियोंके अनुसार विकल्प करना अनुस्मरण है। १ भेद व लक्षण १. अनेकान्तसामान्यका लक्षण । २. अनेकान्तके दो भेद (सम्यक् व मिथ्या)। ३ सम्यक् व मिथ्या अनेकान्तके लक्षण । ४. क्रमे व अक्रम अनेकान्तके लक्षण । २. अनेकान्त निर्देश १. अनेकान्त छल नही है। २ अनेकान्त संशयवाद नही है । * अनेकान्त प्रमाणस्वरूप है। -दे. नय I/२ । ३. अनेकान्तके बिना वस्तुकी सिद्धि नहीं होती। ४. किसी न किसी रूपमे सब अनेकान्त मानते हैं। ५. अनेकान्त भी अनेकान्तात्मक है। ६. अनेकान्तमे सर्व एकान्त रहते है पर एकान्तमे अने कान्त नहीं रहता। ७. निरपेक्ष नयोका समूह अनेकान्त नही है। ८. अनेकान्त व एकान्त का समन्वय । * सर्व दर्शन मिलकर एक जैनदर्शन बन जाता है। -दे. अनेकान्त २६ । * एवकारका प्रयोग व कारण आदि । -दे. एकान्त २। * स्यात्कारका प्रयोग व कारण आदि। -दे. स्याद्वाद ९. सर्व एकान्तवादियोके मत किसी न किसी नयमे गर्भित है। ३.अनेकान्तका कारण व प्रयोजन १. अनेकान्तके उपदेशका कारण । * शब्द अल्प है और अर्थ अनन्त । २. अनेकान्तके उपदेशका प्रयोजन । ३. अनेकान्तवादियोंको कुछ भी कहना अनिष्ट नही । ४. अनेकान्तकी प्रधानता व महत्ता। अनृत-दे. सत्य । अनेक-१.द्रव्यमें एक अनेक धर्म (दे. अनेकाम्त ४)। २.षद्रव्यों में एक अनेक विभाग (दे. द्रव्य ३) । अनेकत्व-न. च. वृ./६२/६५ अणेकरूवा हु विविहभावस्था॥६॥... अणेक्क...पज्जपदो १६५३ - अनेक रूप अर्थात विविध भावों या पर्यायों में स्थित श द्रव्य पर्यायकी अपेक्षा अनेक है ॥६॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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