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________________ है। अर्थात् चोर चोरी करना ही भूल गए हैं जिस से कहीं पर चौर्य-शब्द सुनाई ही नहीं देता है । इस बादशाह के कोपयुक्त नेत्र की भयंकरता का स्मरण कर कोई मनुष्य किसी परस्त्री के सामने नहीं देखता । 'पराजित मनुष्य का ही विजेता के आधीन होना न्यायसङ्गत बात है परंतु द्यूत के विषय में यह नीति बराबर नहीं पाली जाती । द्यूत (जुआ) के आधीन जीतनेवाला और हारने वाला दोनों हो जाते हैं । ऐसी बदनीति मेरे राज्य में नहीं चलनी चाहिए; ऐसा विचार कर बादशाह ने द्यूत खेलना बन्ध कर दिया । 'इस समय, इस चराचर जगत् का स्वामी एक तो ईश्वर और दूसरा मैं हूं । जिस में ईश्वर तो संसार के सभी जीवों पर दया करता है, तो फिर मुझे भी सब पर दया ही रखना चाहिये ।' यह सोच कर बादशाह ने शिकार खेलना भी छोड दिया । 'वीरपुरुषों की यह प्रतिज्ञा होती है कि जो अपराधी, शस्त्र उठाकर बडा अपराध करता है उसी पर वे अपना शस्त्र चलाते हैं, औरों पर नहीं, तब मैं शूरवीरों में शिरोमणि कहला कर इन निरपराध और भयाकूल पशुओं पर कैसे अपना शस्त्र चलाऊँ ?' यह विचार कर बादशाह सभी प्राणियों पर रहम करता है । सज्जनों के सुवाक्य अपने कान में न आ सके इस हेतु से और नृपतियों ने जिन दुर्जनों को अपने दौवारिक (दरबान) बना रक्खे हैं, उन को इस बादशाह ने अपने निकट भी नहीं आने दिये । यदि यह बादशाह जलक्रीडा की इच्छा से यहां पर आवें तो बहुत अच्छा हो, इस उत्कंठा से आंखों के बिना मूंदे (निर्निमेष होकर), इस बादशाह की राह देखते हुए डाबर - तालाब के मत्स्य आशीर्वाद दे रहे हैं कि 'हे बादशाह तूं चिरंजीव ! जय ! विजय ! बुद्धिमान हों !' अर्थात् बादशाह ने डाबर तालाब के मत्स्यों के वध का निषेध कर दिया । बादशाह की इस दया का अनुकरण, जिन का भक्ष्य केवल मत्स्य मात्र हैं ऐसे बगले भी करने लगे । वे भी | मछली को अपने मुंह में पकड कर एक बार उसे फिर छोड़ देते ( बगलों का ऐसा स्वभाव होता है ।) - - इस बादशाह के सौराज्य में न कहीं अनीति है, न परराज्य का भय है, न बिमारी है, न दुर्भिक्ष पडता है और ना ही राज की तरफ से कोई कष्ट है । समय पर ही मेघ बरसता है और समय पर ही वृक्ष फलते हैं । ईख में बहुत मीठास भरी हुई है और खानों में बेसुमार धातु निपजती है । इन सब आश्चर्यकारक Jain Education International ६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016007
Book TitleKruparaskosha
Original Sutra AuthorShantichandra Gani
AuthorJinvijay, Shilchandrasuri
PublisherJain Granth Prakashan Samiti
Publication Year1996
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size8 MB
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